— राजू पाण्डेय —
इस वर्ष कंज्यूमर इंटरनेशनल के 100 देशों में फैले हुए 200 कंज़्यूमर समूहों ने “फेयर डिजिटल फाइनेंस” को विश्व उपभोक्ता अधिकार दिवस की थीम के रूप में चुना है। इसी के तहत उपभोक्ताओं के अधिकारों और उनकी आवश्यकताओं के विषय में वैश्विक स्तर पर जागरूकता उत्पन्न करने के मकसद से कल विश्व उपभोक्ता अधिकार दिवस मनाया गया। कंज़्यूमर इंटरनेशनल यह महसूस करता है कि तेजी से बढ़ती डिजिटल बैंकिंग जहां उपभोक्ताओं और व्यवसायों के लिए नए अवसर उत्पन्न कर रही है वहीं इसके तीव्र प्रसार के कारण सर्वाधिक संवेदनशील समूहों के पीछे छूट जाने का खतरा भी बना हुआ है। आर्थिक रूप से कमजोर लोगों के लिए साइबर फ्रॉड तब घातक सिद्ध होते हैं जब उनकी जिंदगी भर की जमा पूंजी पल भर में गायब हो जाती है।
फेयर डिजिटल फाइनेंस उपलब्ध कराना सरकारों और सेवा प्रदाताओं के लिए एक बहुत बड़ी चुनौती रहा है। वित्तीय सेवाओं का स्वरूप तेजी से डिजिटल हुआ है। 2007 से 2009 के मध्य आए वित्तीय संकट के बाद नए स्टार्ट अप्स और वित्तीय कंपनियों ने आम जनता एवं विभिन्न व्यवसायों को सीधे वित्तीय उत्पाद तथा सेवाएं देना प्रारंभ कर दिया। ये अब ग्राहक के किसी एक लक्ष्य अथवा आवश्यकता को पूर्ण करने पर ध्यान केंद्रित करने लगीं और इनके द्वारा किसी एक उत्पाद या सेवा को बेहतर गुणवत्ता के साथ उपलब्ध कराने की चेष्टा की जाने लगी।
धीरे-धीरे फिनटेक की अवधारणा सामने आयी। फिनटेक वह बिंदु है जहाँ पर वित्तीय सेवाओं और तकनीक का मिलन होता है। मोबाइल आधारित इंटरनेट सेवा और ई-कॉमर्स ने फिनटेक के प्रसार में बहुत बड़ा योगदान दिया है। फिनटेक सेवाओं का स्वरूप बहुत व्यापक है। इनमें बचत, निजी वित्तीय प्रबंधन सुविधा, निवेश और संपदा प्रबंधन, उधार और अनसिक्योर्ड क्रेडिट, मोर्टगेज, भुगतान, धन का प्रेषण, ई-कॉमर्स हेतु डिजिटल वॉलेट उपलब्ध कराना, बीमा, क्रिप्टो करेंसी एवं ब्लॉक चेन्स आदि विविध प्रकार की सेवाएं शामिल हैं।
मैकिंसी का आकलन है कि वैश्विक स्तर पर कम से कम 2000 फिनटेक स्टार्टअप्स परंपरागत एवं नयी वित्तीय सेवाएं उपलब्ध करा रहे हैं जबकि लगभग 12000 फिनटेक फर्म अस्तित्व में हैं।
कैपजैमिनी की 2021 की वर्ल्ड फिनटेक रिपोर्ट के अनुसार कोविड-19 के दौर में फिनटेक ने न केवल अनुकूलन क्षमता दिखाई बल्कि कोविड-19 के दौरान बैंकों के बंद रहने और नकद लेन-देन न करने के सुझावों ने फिनटेक को बढ़ावा दिया।
वर्ल्ड रिटेल बैंकिंग रिपोर्ट 2021 के अनुसार 57 प्रतिशत उपभोक्ता अब पारंपरिक बैंकिंग की तुलना में डिजिटल बैंकिंग को वरीयता देते हैं। 55 प्रतिशत उपभोक्ता मोबाइल एप्स का उपयोग वित्तीय लेन-देन हेतु करने के हिमायती हैं। कोरोना के पहले यह प्रतिशत 47 था।
एक्सेंचर का 2020 का सर्वेक्षण दर्शाता है कि अब 50 प्रतिशत उपभोक्ता हफ्ते में कम से कम एक बार मोबाइल एप या वेबसाइट के जरिए अपने बैंक से लेन-देन करते हैं जबकि दो वर्ष पहले ऐसे उपभोक्ताओं की संख्या 32 प्रतिशत थी।
कोविड-19 के कारण डिजिटल लेन-देन लगभग अनिवार्य बन गया। हमारे देश के ग्रामीण इलाकों में जहां डिजिटल साक्षरता बहुत कम है और डिजिटल संसाधनों का अभाव है वहां भी लोग डिजिटल लेन-देन के लिए बाध्य हो गए। इस कारण डिजिटल बैंकिंग और डिजिटल लेन-देन में तो बड़ी वृद्धि हुई किंतु साथ ही साइबर फ्रॉड, फिशिंग और डाटा चोरी एवं एक विशेष उद्देश्य से एकत्रित डाटा का अन्य उद्देश्य के लिए प्रयोग किए जाने की घटनाएं बढ़ीं।
आरबीआई के नवीनतम आंकड़ों के अनुसार वित्तवर्ष 2020-21 में डिजिटल भुगतान में 30.19 प्रतिशत की बढ़ोतरी दर्ज की गयी। नवगठित डिजिटल भुगतान सूचकांक (आरबीआई-डीपीआई) मार्च 2020 के अंत में 207.84 था जो मार्च 2021 के आखिर में बढ़कर 270.59 हो गया।
इलेक्ट्रॉनिक्स एवं आईटी राज्यमंत्री राजीव चंद्रशेखर ने नवम्बर 2021 में लोकसभा में एक प्रश्न के लिखित उत्तर में बताया कि वित्तवर्ष 2019 में डिजिटल लेन-देन की संख्या 3134 करोड़ थी जो वित्तवर्ष 2020 में बढ़कर 4572 करोड़ हो गई। वित्त वर्ष 2021 में इसमें और बढ़ोतरी हुई और यह 5554 करोड़ हो गई। जबकि वित्तवर्ष 22 में नवंबर के मध्य तक 4683 करोड़ डिजिटल लेन-देन हो चुके थे।
एफआईएस इंटरनेशनल यूएसए की ग्लोबल पेमेंट रिपोर्ट के अनुसार भारत में अब 68 प्रतिशत उपभोक्ता डिजिटल बैंकिंग सेवाओं का उपयोग कर रहे हैं।
अप्रशिक्षित भारतीय उपभोक्ताओं ने कोविड-19 के कारण डिजिटल बैंकिंग की दुनिया में झिझकते-सहमते प्रवेश तो ले लिया किंतु उनका पहला अनुभव प्रायः अच्छा नहीं रहा। उन्हें ऑनलाइन धोखाधड़ी का सामना करना पड़ा।
आरबीआई की वार्षिक रिपोर्ट के अनुसार एक लाख रुपए या उससे अधिक की बैंक धोखाधड़ी के मामलों में उछाल आया है। वित्तवर्ष 2019 में धोखाधड़ी की रकम 71,500 करोड़ रुपए थी जो वित्तवर्ष 2020 में बढ़कर 1.85 लाख करोड़ हो गयी। धोखाधड़ी के मामलों में भी इस अवधि में 28 प्रतिशत की वृद्धि हुई।
हिंदुस्तान टाइम्स की एक रिपोर्ट के अनुसार अप्रैल 2009 से सितंबर 2019 के बीच ऑनलाइन बैंकिंग फ्रॉड के 1लाख 17 हजार मामले सामने आए जिसमें 615.39 करोड़ की रकम की धोखाधड़ी हुई।
ऑनलाइन फ्रॉड पर लोकसभा में पूछे गए एक प्रश्न के उत्तर में वित्त राज्यमंत्री अनुराग ठाकुर ने बताया कि 2019 में केवल 3 महीनों (अक्टूबर से दिसंबर) में ऑनलाइन बैंक फ्रॉड की 21041 घटनाएं हुईं जिनमें 129 करोड़ रुपए की धोखाधड़ी हुई।
नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो के आंकड़े भी यह दर्शाते हैं कि कोविड-19 ने लोगों को डिजिटल लेन-देन के लिए बाध्य किया और इस कारण साइबर अपराधियों की बन आयी। वर्ष 2019 में ऑनलाइन फ्रॉड के लगभग 2000 मामले दर्ज हुए थे जो 2020 में बढ़कर चार हजार की संख्या को पार कर गए।
फरवरी 2021 में तत्कालीन इलेक्ट्रॉनिक्स एवं आईटी राज्यमंत्री संजय धोत्रे ने राज्यसभा को बताया था कि सन 2020 में डिजिटल बैंकिंग क्षेत्र में साइबर सुरक्षा से संबंधित 290445 घटनाएं दर्ज की गयी थीं।
मेडिसी ग्लोबल की जून 2020 की रिपोर्ट के अनुसार भारत में लगभग 40,000 हजार साइबर हमलों ने बैंकिंग क्षेत्र के आईटी बुनियादी ढाँचे को निशाना बनाया।
इस तरह के ऑनलाइन बैंक फ्रॉड न केवल ग्राहक या कंपनी को वित्तीय क्षति पहुंचाते हैं बल्कि इनके कारण ग्राहक का भरोसा ऑनलाइन लेनदेन और संबंधित कंपनी के प्रति कम होता है। कंपनी का व्यवसाय प्रभावित होता है और उसकी साख पर बुरा असर पड़ता है।
कंज्यूमर यूनिटी एंड ट्रस्ट सोसाइटी इंटरनेशनल के कंज्यूमर सर्वे ऑन डाटा प्राइवेसी एटीट्यूड इन इंडिया के अनुसार भारत में डाटा प्राइवेसी बहुत निचले स्तर पर है और उपभोक्ताओं में डाटा सुरक्षा की अवधारणा के विषय में समझ कम है, उनमें इस बारे में जागरूकता का अभाव है। वे इस विषय में उतनी सक्षमता भी नहीं रखते। कट्स इंटरनेशनल द्वारा भारत के उत्तरप्रदेश,पंजाब, असम, पश्चिम बंगाल, आंध्र प्रदेश और महाराष्ट्र में 2400 उपभोक्ताओं पर किए गए सर्वे से ज्ञात हुआ कि उपभोक्ता सामान्य तौर पर अपना निजी डाटा साझा करने में असुविधा का अनुभव करते हैं। उपभोक्ता अपनी फाइनेंसियल डिटेल्स, ब्राउजिंग एवं कम्युनिकेशन हिस्ट्री और लोकेशन को साझा करने के लिए सर्वाधिक अनिच्छुक होते हैं किंतु सेवा प्रदाताओं को वे यह निजी डाटा अवश्य उपलब्ध कराते हैं। इन उपभोक्ताओं का यह भी मानना है कि किसी खास उद्देश्य से लिए गए हासिल किये गये डाटा का उपयोग किसी अन्य असंगत उद्देश्य के लिए नहीं किया जाना चाहिए। कट्स इंटरनेशनल के इस सर्वे में यह उल्लेख है कि भारत में युवाओं, महिलाओं और ग्रामीणों में डिजिटल तकनीकी के उपयोग में भारी इजाफा हुआ है। भारत सरकार द्वारा पर्सनल डाटा प्रोटेक्शन बिल का ड्राफ्ट तैयार करने हेतु गठित एक्सपर्ट कमेटी को भी कट्स इंटरनेशनल के सर्वेक्षण के निष्कर्षों से अवगत कराया गया है।
यह उम्मीद कि कोविड-19 पर हमारी निर्णायक विजय के बाद हम पारंपरिक फाइनेंस और बैंकिंग की ओर लौट जाएंगे पूरी होती नहीं दिखती। वित्तीय सेवाओं का डिजिटलीकरण एक वैश्विक प्राथमिकता है और हमारा देश कोई अपवाद नहीं है।
भारत सरकार ने डिजिटल अर्थव्यवस्था को बढ़ावा देने के उद्देश्य से इस बार के बजट में अधिसूचित व्यावसायिक बैंकों के माध्यम से देश भर के 75 जिलों में डिजिटल बैंकिंग यूनिट्स की स्थापना का प्रस्ताव दिया है।
प्रश्न केवल यह है कि इस परिवर्तन की गति क्या हो? वित्तीय सेवा प्रदाताओं और आम उपभोक्ता को इसके लिए कैसे तैयार किया जाए? आम उपभोक्ता की सीमाओं और कमजोरियों को ध्यान में रखकर सरल, सुरक्षित और सुविधाजनक डिजिटल फाइनेंस सेवाओं को किस प्रकार डिज़ाइन किया जाए? आम उपभोक्ता को किस प्रकार साइबर हमलों से सुरक्षित रखा जाए? धोखाधड़ी का शिकार होने पर उपभोक्ता को रकम की वापसी और दोषी को दंड सुनिश्चित कैसे किया जाए?
कोविड-19 का लाभ उठाकर सरकार बहुत तेजी से डिजिटल फाइनेंस की ओर बढ़ रही है किंतु उसकी अविचारित तीव्र गति के अनेक दुष्प्रभाव देखने में आए हैं।
वित्तीय अपराधों से निपटने में हमारा तंत्र अभी सक्षम नहीं हो पाया है। एक समाचार समूह द्वारा आरटीआई के तहत बैंक फ्रॉड के विषय में मांगी गई जानकारी प्रदान करते हुए आरबीआई ने बताया कि वित्तवर्ष 2021 में प्रतिदिन 229 बैंकिंग फ्रॉड हुए जिनमें 1.38 लाख करोड़ रुपए की राशि की हेराफेरी हुई, इसमें से केवल 1031.31 करोड़ रुपए की रिकवरी की जा सकी।
साइबर फ्रॉड में अपराधियों से राशि वापस हासिल करना और उन्हें सजा देना बहुत कठिन है। कानून के जानकार बताते हैं कि दुनिया के अन्य देशों में साइबर क्राइम की शिकायत फ्रॉड का शिकार हुए उपभोक्ता के बैंक या उसके मोबाइल सेवा प्रदाता द्वारा दर्ज कराई जाती है, जबकि हमारे देश में यह काम पीड़ित उपभोक्ता को ही करना पड़ता है। पीड़ित का बैंक और मोबाइल सेवा प्रदाता उसे कोई भी सहयोग देने से इनकार कर देते हैं। न्यायिक क्षेत्राधिकार का अलग अलग होना पुलिस के लिए बाधा बनता है। प्रायः साइबर फ्रॉड के जरिए निकाली गयी रकम देश के दूसरे भागों में खोले गए खातों में स्थानांतरित कर दी जाती है। इन खातों के एकाउंट होल्डर ही फेक होते हैं। असली दोषी तक पहुंचना बहुत कठिन होता है।
भारत में अब तक कोई विशेष साइबर सुरक्षा कानून नहीं बनाया गया है। आईटी एक्ट 2000 के तहत ही मामले दर्ज किए जाते हैं। एनसीआरबी की 2020 की एक रिपोर्ट बताती है कि पुलिस के स्तर पर साइबर क्राइम के मामलों में चार्जशीट फाइल करने की दर महज 47.5 प्रतिशत है जबकि पेंडेंसी रेट 71 प्रतिशत है। न्यायिक स्तर पर कन्विक्शन रेट 68 प्रतिशत और पेंडेंसी रेट 89 प्रतिशत है।
प्रशिक्षित पुलिस कर्मियों की कम संख्या, प्रशिक्षित पुलिस कर्मियों के बार बार तबादले, मामलों की अधिकता और संसाधनों की कमी के कारण साइबर क्राइम की जांच प्रभावित होती है। छले गए उपभोक्ता के लिए यह स्थिति बहुत पीड़ादायक होती है।
उपभोक्ता शिक्षा के बारे में आरबीआई ने कुछ प्रयास किए हैं। आरबीआई का प्रोजेक्ट फाइनेंसियल लिटरेसी विभिन्न लक्षित समूहों, यथा स्कूल और कॉलेज में पढ़नेवाले विद्यार्थी, महिलाएँ, ग्रामीण तथा शहरी निर्धन जन, रक्षाकर्मी व वरिष्ठ नागरिकगण आदि को केंद्रीय बैंक एवं सामान्य बैंकिंग अवधारणाओं के बारे में जानकारी देने से संबंधित है।
इसी प्रकार का एक कार्यक्रम सेबी और एनआईएसएम द्वारा चलाया जा रहा है। पॉकेट मनी नामक यह कार्यक्रम स्कूली विद्यार्थियों के बीच वित्तीय साक्षरता बढ़ाने पर केंद्रित है।
‘क्रिएटिंग ए रोडमैप फॉर ए डिजिटल इन्क्लूसिव भारत’ रिपोर्ट में इस बात का उल्लेख है कि डिजिटल लेन-देन में वृद्धि से उपभोक्ताओं एवं कंपनियों दोनों के लिए संभावित सुरक्षा उल्लंघनों का खतरा बढ़ गया है। रिपोर्ट में सुझाव दिया गया है कि ‘फ्रॉड रिपॉज़िटरी’ समेत सूचना साझाकरण प्रणाली निर्मित की जाए और इस बात को सुनिश्चित किया जाए कि ऑनलाइन डिजिटल कॉमर्स प्लेटफॉर्म उपभोक्ताओं को धोखाधड़ी के खतरे के प्रति सतर्क करने के लिए चेतावनी जारी करें।
फेयर डिजिटल फाइनेंस का लक्ष्य तभी हासिल किया जा सकता है जब सरकार की नियामक संस्थाओं के प्रतिनिधि उपभोक्ता संगठनों से संवाद करें और उपभोक्ताओं के दृष्टिकोण को जानें। यह भी आवश्यक है कि विधि निर्माण हेतु गठित निकायों और समितियों की बैठकों में उपभोक्ता संगठनों को निमंत्रित किया जाए और उनसे सूचनाएं एवं आंकड़े प्राप्त किए जाएं। उपभोक्ता शिकायतों की प्रकृति का अध्ययन किया जाए जिससे यह ज्ञात हो सके कि किस प्रकार की शिकायतें सर्वाधिक हैं और तदनुसार नयी नीतियां बनाई जा सकें। निर्धन और ग्रामीण वर्ग की स्थिति और आवश्यकता इन नीतियों के केंद्र में हों।
बैंकों और वित्तीय सेवाओं का डिजिटलीकरण वित्तीय समावेशन का संवाहक है या इसके द्वारा निर्धन बैंकिंग सिस्टम से धीरे धीरे बाहर कर दिए जाएंगे- इस मुद्दे पर लंबे समय से बहस होती रही है। विश्व बैंक और आईएमएफ का मानना है कि फाइनेंस और बैंकिंग के डिजिटलीकरण ने डायरेक्ट बेनिफिट ट्रांसफर के माध्यम से गरीबों तक आर्थिक मदद पहुंचाई है, इसने बिचौलियों को रास्ते से हटाया है और भ्रष्टाचार पर अंकुश लगाया है। डिजिटल फाइनेंस ने सूदखोरों के चंगुल से छोटे और मझोले उद्यमियों को बचाया है। गरीबों की पहुंच ऐसी क्रेडिट सुविधाओं तक बनी है जो अधिक पारदर्शी हैं। आईएमएफ और विश्व बैंक के इन तर्कों को सावधानी से परखने पर यह प्रतीत होता है कि अब डिजिटल तकनीक की सहायता से छोटे और स्थानीय शोषकों को अपदस्थ कर बड़े कॉरपोरेट शोषक आम उपभोक्ता तक आ पहुंचे हैं।
वित्तीय सेवाओं के डिजिटलीकरण का एक पक्ष और है, इसके लिए आवश्यक गैजेट्स और इंटरनेट कनेक्टिविटी निर्धनों की पहुंच से दूर हैं। देश के एक बड़े वर्ग में डिजिटल साक्षरता का अभाव है और यह मानना कि यह वर्ग फिनटेक में होनेवाले सतत तकनीकी बदलावों के साथ तालमेल बना लेगा, अतिशय आशावादिता है।
फाइनेंस का डिजिटलीकरण बड़ी सरलता से यह स्थिति उत्पन्न कर सकता है कि आम आदमी का उसकी अपनी जमा पूंजी पर नियंत्रण समाप्त हो जाए। कैशलेस होना चॉइसलेस होना भी है, जमापूंजी के डिजिटल स्वरूप पर आम आदमी की तुलना में सरकार और बाजार का अधिक नियंत्रण होगा।
बहरहाल यह परिवर्तन बड़ी तेजी से घटित हो रहे हैं और बिना तैयारी के डिजिटल फाइनेंस की दुनिया में धकेल दिए गए आम भारतीय उपभोक्ता को फेयर डिजिटल फाइनेंस हासिल करने के लिए कड़ा संघर्ष करना होगा।