फुले और आंबेडकर की विरासत को आगे बढ़ाना है तो हिंदुत्व से मुकाबला करना होगा

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— सुरेश खैरनार —

भारतीय समाज के जागरण के पुरोधाओं में सबसे पहले राजा राममोहन राय का जन्म, अंग्रेजों के सोलह साल पहले प्लासी की लड़ाई में बंगाल के नवाब सिराजुद्दौला को पराजित करने के बाद हुआ ! 22 मई 1772 को जनमे राजा राममोहन राय भारत के पुनर्जागरण के पुरोधाओं में पहले ही थे जिन्होंने अंग्रेजी शिक्षा प्राप्त करने के बाद अपने सामाजिक काम की शुरुआत की! और 1829 में सती प्रथा को कानूनन बंद कराने मे कामयाब रहे। और उसके बाद अंग्रेजों ने काफी कानून व्यवस्था को अंजाम देने के लिए, 1843 में गुलामी की प्रथा को कानूनी तौर पर बंद किया। और उसी कड़ी में अंग्रेजों ने वर्ष 1837 में यात्रा करनेवाले लोगों को जिन्हें ठग बोला जाता था वह भी कानूनन बंद किया ! और सबसे महत्त्वपूर्ण बात यह कि 1860 में इंडियन पीनल कोड बनाने के बाद, विभिन्न धर्मों के और जातीय पंचायत के दकियानूसी कानूनों पर पाबंदी लगा दी, जिसके कारण जाति या संप्रदाय के अंतर्गत समाज सुधार के कामों को मदद मिली।

हिंदू मनुष्य का परंपरागत जीवनक्रम, संपूर्ण रूप से सनातन जीवनक्रम, धार्मिक अंधश्रद्धाओं के बंधनों में कैद था ! सुबह उठने से लेकर रात को सोने के पहले तक सब कुछ धर्मश्रद्धाओं के और धर्मग्रंथों के द्वारा तय किया हुआ था !

और नहाने से लेकर पानी पीने तथा भोजन, पर्यटन, व्यवसाय, विवाह इत्यादि मानव जाति के रोजमर्रा के व्यवहार तथा सोने की दिशा से लेकर जम्हाई, छींक जैसी स्वाभाविक क्रियाओं के ऊपर भी धर्म के अनुसार करने की व्यवस्था! और जाति -बिरादरी को लेकर तो ऊंच-नीच की धर्मग्रंथों ने इतनी सूक्ष्म सुचनाओं की भरमार कर रखी थी !

इस सब के परिप्रेक्ष्य में अंग्रेजी राज के बाद आधुनिक शिक्षा और भौतिक सुधार के चलते हजारों वर्ष पुरानी भारत की श्रुति, स्मृति-पुराणों की जगह इतिहास, गणित, भूगोल, सृष्टिविज्ञान जैसी आधुनिक विद्याओं ने लेना शुरू किया ! और उसी के परिणामस्वरूप बंगाल में नवजागरण के पुरोधाओं के पहले राजा राममोहन राय ने सभी धर्मों का अध्ययन करने के बाद कहा कि सभी धर्मों का मूल सत्य ईश्वर एक है! और इसी संदेश के प्रसार-प्रचार के लिए 1828 में ब्राह्मसमाज की स्थापना की। उसी की देखा-देखी में महाराष्ट्र में प्रार्थना समाज की स्थापना 1867 में की गयी। और उधर पंजाब में 1875 में आर्य समाज की स्थापना की गयी। और इन सभी का उद्देश्य एकेश्वरवाद ही था! लेकिन आज आर्य समाज की परिणति हिंदुत्ववादी संघटन बनाने के लिए काम आयी है ! शुद्धि आंदोलन को उसकी एक मिसाल के रूप में देखा जा सकता है !

लेकिन 1873 में पुणे में सत्यशोधक समाज की स्थापना, महात्मा ज्योतिबा फुले के द्वारा होना भारत के नवजागरण के भीतर और एक महत्त्वपूर्ण कदम कहा जा सकता है !

ब्राह्मसमाज, प्रार्थना समाज और आर्य समाज से भिन्न प्रकार की धार्मिक और सामाजिक क्रांति की शुरुआत ! महात्मा ज्योतिबा फुले 11 अप्रैल 1828 यानी राजाराम मोहन के 56 वर्ष के बाद! और स्वामी विवेकानंद के जन्म के पैंतीस साल पहले जनमे महात्मा ज्योतिबा फुले संपूर्ण भारत के सामाजिक और सांस्कृतिक, धार्मिक आंदोलन में एक अनूठी प्रतिभा लेकर आये थे ! अन्यथा पेशवाओं के राजनीतिक पतन के दस साल के बाद पुणे में ज्योतिबा फुले का जन्म ! सामाजिक परिवर्तन की लड़ाई का आज से दो सौ साल पहले सूत्रपात!

महाराष्ट्र की पिछड़ी जातियों में चेतना निर्माण करने के कारण ब्राम्हणों के वर्चस्व के खिलाफ शुरू किया गया सत्यशोधक समाज का आंदोलन ! बहुजन समाज के ऊपर ब्राह्मणों ने अपने स्वार्थों के लिए ! युग युग से अपने ब्राह्मण होने के कारण बहुजन समाज के लोगों पर अपनी चौधराहट चलाकर ! उन्हें शिक्षा से वंचित रखने से लेकर गरीबी, भीरुता, पिछड़ापन, गंदगी, और मानसिक रूप से दबाकर रखने के कारण आत्मविश्वास का अभाव! और इस कारण हताशा की मनोवृत्ति के शिकार होने के लिए मजबूर किया ! और ज्योतिबा ने सत्यशोधक समाज के द्वारा उनके अन्दर आत्मविश्वास जागृत किया। एक तरह से उन्हें भी मनुष्य होने का एहसास कराने का ऐतिहासिक काम किया। और यह काम आर्थिक वृद्धि के बावजूद बहुत मायने रखता है ! यही गलती कम्युनिस्ट लोगों ने की, वे सिर्फ वर्ग की अवधारणा में विश्वास रखते थे, जाति कड़वी हकीकत को उन्होंने नजरअंदाज किया। और इसीलिए बाबासाहब आंबेडकर और कम्युनिस्टों में कभी मित्रता नहीं हो सकी।

किसानों तथा मजदूरों और कारीगरों के दीर्घकालीन शोषण के कारण भी इस आंदोलन को चेतना देने के लिए काम आए हैं ! ठेविले अनंते तैसेची रहावे ! इस मराठी के वचन के अनुसार अनंत याने भगवान ने जैसा रखा वैसा ही रहना है ! क्योंकि पूर्वजन्म के पापों के कारण आज यह स्थिति आयी है ! तो इस जन्म में चुपचाप सहने के बाद शायद अगले जन्म में कुछ अच्छे दिन आएंगे !

कितनी चतुराई से हजारों सालों से बहुजन समाज के लोगों को पशुओं से भी बदतर जीवन जीने के लिए इस तरह के वचन लिखकर गुलाम मानसिकता में रहने को मजबूर किया था ! इस स्थिति को आज से दो सौ साल पहले महात्मा ज्योतिबा फुले ने प्रबोधन के द्वारा दूर करने की कोशिश की!

हिंदू धर्म की जड़ता पर बौद्धिक आक्रमण करने की नैतिक जिम्मेदारी महात्मा ज्योतिबा फुले के 1873 के सत्यशोधक समाज ने ली। अपनी भूमिका में बुद्धि प्रामाण्य को सर्वोच्च महत्त्व देते हुए पुरोहित वर्ग के अलावा, मूर्तिपूजा विरोध, तीर्थयात्रा विरोध, भूत-प्रेत बाधा तथा चमत्कार का विरोध, परलोक और स्वर्ग-नर्क जैसी कल्पनाओं का विरोध किया। समस्त मानव जाति के समता व बंधुत्व और व्यक्तिस्वातंत्र्य की वकालत की।

ये मूलभूत मुद्दे ब्राह्म और प्रार्थना समाज की तरह सत्यशोधक समाज के भी थे ! तत्कालीन सरकारी विभागों में सभी महत्त्वपूर्ण स्थान ब्राह्मण समाज के लोगों के हाथो में थे ! सत्यशोधक समाज ने इस स्थिति के खिलाफ एल्गार का आह्वान किया था ! और उसके परिणामस्वरूप वर्गयुद्ध जैसी स्थिति बन गयी थी ! और ज्योतिबा फुले के जैसा दबंग, त्यागी, हिम्मतवाला तपस्वी नेता ! राजा राममोहन को छोड़कर भारत के तत्कालीन समाज में, और मुख्यतः हिंदू धर्म सुधार के इतिहास में दूसरा वैसा कोई नहीं है ! आगरकर उनके जैसे लगते हैं लेकिन वह राष्ट्रवादी तो थे, मानवतावादी नहीं ! ज्योतिबा के मानवता के अथाह प्रेमसमुद्र के सामने आगरकर कुछ भी नहीं थे !

सत्यशोधक समाज के संस्थापकों ने दक्षिण भारत और महाराष्ट्र के बहुजन समाज के लोगों में एक प्रबल इच्छाशक्ति जगाने में बहुत बड़ी कामयाबी हासिल की है ! बहुजन समाज की मानसिक दुर्बलता का मुख्य कारण यही रहा है कि ब्राह्मणों ने अपने स्वार्थ के लिए तरह तरह के अंधविश्वास बहुजन समाज के लोगों के मन में हजारों सालों से भर रखे थे ! उन्हें उस स्थिति से प्रबोधन के साथ, आंदोलन के दौरान, हम भी इन्सान हैं और मनुष्य के हर अधिकार में हम भी हिस्सेदारी ले सकते हैं यह आत्मविश्वास दिलाने का ऐतिहासिक काम महात्मा ज्योतिबा फुले का रहा है !

आज भारत की राजनीति के केंद्रबिंदु में हिंदुत्ववादियों की तरफ से जो प्रचार-प्रसार किया जा रहा है उसमें सत्यशोधक समाज के लोगों को ब्राह्मणों की तुलना में अधिक मुकाबला करना चाहिए !

लेकिन भागलपुर से लेकर गुजरात दंगों, भीमाकोरेगांव, खैरलांजी, झज्जर, वुलगढी, बलरामपुर, सहरानपुर और मुजफ्फरनगर के दंगों के के हालात देखने के बाद मुझे बहुत मायूसी हो रही है ! कि इन दंगों में ज्यादातर बहुजन समाज के लोग शामिल थे ! और वर्तमान दलितों के बहुसंख्य नेताओं ने ब्राह्मणों के हरावल दस्तों की भूमिका में काम करना शुरू किया है !

इससे बड़ा अपमान महात्मा ज्योतिबा फुले और डॉ बाबासाहब आंबेडकरजी का नहीं हो सकता ! इन दोनों महामानवों के प्रति सही आदरांजलि यही होनी चाहिए, कि आज हिंदुत्ववादियों की तरफ से चलायी जा रही मुहिम, अल्पसंख्यक समाजों के खिलाफ जहरीले प्रचार के खिलाफ सही तथ्यों से लोगों को अवगत कराने का आंदोलन शुरू किया जाए।

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