जयंती पर बाबासाहेब से संविधान के सवाल

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— अरुण कुमार त्रिपाठी —

भारतीय संविधान अपने निर्माता बाबासाहेब आंबेडकर से उनकी जयंती पर यह सवाल पूछ रहा है कि आप तो `स्वर्ग’ में हैं पर मेरा क्या होगा? संविधान को संविधान सभा में कही गयी बाबा साहेब की एक एक बात याद आ रही है। उसे बाबा साहेब की एक एक चेतावनी याद आ रही है, इसके बावजूद उसे यकीन नहीं हो रहा है कि महात्मा गांधी और बाबासाहेब आंबेडकर के उत्तराधिकारी इतने गैरजिम्मेदार निकलेंगे कि वे उन सारे मूल्यों को ध्वस्त कर देंगे जिनको लेकर आजादी की लड़ाई लड़ी गयी और जिसके आधार पर संविधान का निर्माण किया गया।

संविधान पूछ रहा है कि उसकी शपथ लेते हुए लोकतांत्रिक संस्थाओं के तमाम पदाधिकारी कहते हैं कि मैं भय और पक्षपात, राग और द्वेष के बिना विधि सम्मत कार्रवाई करूंगा लेकिन काम वे राग-द्वेष और पक्षपात के आधार पर ही करते हैं। आखिर ऐसा क्यों? अगर सारी कार्रवाई पक्षपातपूर्ण ही की जानी है तो संविधान की शपथ लेने की क्या जरूरत है ? संविधान प्रतिशोध की भावना से काम करने की इजाजत नहीं देता लेकिन भारतीय दंड संहिता और दंड प्रक्रिया संहिता प्रतिशोध की आग बुझाने के हथियार बनते जा रहे हैं।

सामाजिक-आर्थिक और राजनीतिक न्याय का प्रतीक बुलडोजर बन गया है। व्यक्ति का अपराध कार्यपालिका तय करने लगी है और वहीं मौके पर दंड देने का सिलसिला चल निकला है। व्यक्ति को उसके खिलाफ गवाही देने के लिए आधुनिक तकनीक का भरपूर इस्तेमाल किया जा रहा है। उसके लिए दंड प्रक्रिया में संशोधन तक कर दिया गया। मशीनों के टैंक में नफरत का ईंधन भर दिया गया है और वे तेजी से अपना काम कर रही हैं। एक नए किस्म का अभियान चल निकला है जिसमें समाज को अभय बनाने की बजाय भयभीत करने की रीति निकल आयी है। यह नए किस्म का विधिशास्त्र है जहां आप अपराधी पहले मान लिये जाते हैं और बाद में आपको अपने को निर्दोष सिद्ध करना होता है। अनुच्छेद 19, 20, 21 से मिले नागरिकों के अधिकार भीड़ की आतिशबाजी में मनोरंजन की फुलझड़ियां बनकर रह गये हैं।

ऐसे में बाबासाहेब का संवैधानिक लोकतंत्र धन और सत्ता के सहारे किसी भी तरह से चुनाव जीतने का आयोजन बन गया है। बाबासाहेब की चिंता थी कि 26 जनवरी 1950 से हम एक नए युग में प्रवेश कर रहे हैं। जहां एक व्यक्ति को एक वोट का अधिकार होगा। यानी हम राजनीतिक तौर पर बराबर होंगे लेकिन सामाजिक और आर्थिक रूप से समाज में भारी असमानता है। इसलिए उन्हें डर था कि सामाजिक और आर्थिक असमानता इस राजनीतिक समानता को बेमानी बना देगी।

आज संविधान पूछ रहा है कि राजनीतिक समानता का लोगों ने ऐसा क्या अर्थ समझा कि वे सामाजिक और आर्थिक समानता के संकल्प को नष्ट करने पर तुल गए हैं। संविधान में न्याय की व्याख्या तो नहीं की गयी है लेकिन पूरा संविधान इसी अवधारणा पर अपनी इमारत खड़ी करता है। इसीलिए उद्देशिका में कहा गया है कि हम भारत के लोग अपने नागरिकों को राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक न्याय देने का संकल्प करते हैं। लेकिन आज न्याय की उस अवधारणा पर संविधान नहीं राजनीतिक दलों और उनके सांस्कृतिक संगठनों की विचारधारा हावी हो गयी है।

संविधान बाबासाहेब से पूछ रहा है कि आपके विवेक और ज्ञान ने देश के रहनुमाओं के सपनों को पूरा करने के लिए एक ढांचा बनाया था। जिसका उद्देश्य था लोगों के भीतर स्वतंत्रता, समता और बंधुत्व के मूल्यों का संचार करना और देश में एक लोकतांत्रिक संस्कृति विकसित करना ताकि संवैधानिक लोकतंत्र सुचारु रूप से चल सके। संविधान के दो उद्देश्य हैं। एक तो हजारों साल से बिखरा हुआ भारत देश एकजुट हो सके और उसकी अखंडता अक्षुण्ण रहे और दूसरा उद्देश्य था देश में सामाजिक क्रांति करना।

संविधान के यह दोनों उद्देश्य एक दूसरे के पूरक हैं। अगर समता और बंधुत्व नहीं होगा तो स्वतंत्रता का दावा बेमानी हो जाएगा। इसीलिए एकता और अखंडता तभी कायम रह सकती है जब सामाजिक क्रांति हो और लोगों में देश के प्रति एक लगाव बने। सामाजिक प्रतिक्रांति देश को कमजोर करती है। जब देश भीतर से कमजोर होगा तो सिर्फ राष्ट्र-राज्य की शक्ति से उसकी रक्षा नहीं की जा सकती। भारत क्यों गुलाम बना इस बारे में एक कारण यही रहा कि यहां देश के बड़े हिस्से का उससे कोई लगाव ही नहीं था क्योंकि देश में रहते हुए भी वे मानवीय अधिकारों से वंचित थे।

संविधान बाबासाहेब से यह सवाल पूछ रहा है कि आपने नागरिकों के अधिकारों की रक्षा वाले संस्थान और विधान इतने कमजोर क्यों बनाये? लेकिन दुर्भाग्य से बाबासाहेब इन सवालों का जवाब देने के लिए मौजूद नहीं हैं। ऐसे में यह सवाल सीधे उनके पास चला जाता है जो बाबासाहेब की जयंती पर उनके चित्रों पर माला चढ़ाएंगे, उनके स्मरण में लंबे लंबे व्याख्यान देंगे और मीडिया में उनके बारे में बड़े-बड़े विज्ञापन देंगे। बाबासाहेब ने माना था कि इस देश में बहुत सारी धार्मिक पुस्तकें हैं जिनका जनता बहुत सम्मान करती है। लेकिन देश को उन पुस्तकों से नहीं चलाया जा सकता। देश को चलाने और आगे ले जाने के लिए संविधान एक रोडमैप प्रस्तुत करता है। देश की संस्थाओं और नागरिकों को उसका सम्मान करना चाहिए। लेकिन उन्होंने यह भी कहा था कि संविधान कितना भी अच्छा हो अगर उसे चलानेवाले योग्य नहीं हैं तो देश भटक जाएगा।

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