“आदमी न पत्थर है, न ठूंठ, वह है धरती का कल्पवृक्ष”

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— भोला प्रसाद सिंह —

हिंदी क्षेत्र की बोलियों में उजाला के लिए ‘अँजोर’ शब्द ज्यादा प्रचलित है. छत्तीसगढ़ी में भी ‘अँजोर’ ही आम जुबान पर आता है. बहुत स्वाभाविक है कि छत्तीसगढ़ी कविताओं के संग्रह का नाम ‘अँजोर’ हो. इसके कवि एकांत श्रीवास्तव भी छत्तीसगढ़ के हैं और उन्होंने तुतलाना भी छत्तीसगढ़ी बोली में ही सीखा होगा. हिंदी कविता का इतिहास भी तो बोलियों में ही लिखा गया. गद्य-पद्य दोनों रूपों में खड़ी बोली की पूर्ण प्रतिष्ठा के बाद भी हिंदी के बड़े कवियों ने अवधी, ब्रज आदि में भी लिखा है और हिंदी जगत को सशक्त रचनाएं दी हैं. ‘अँजोर’ के कवि एकांत श्रीवास्तव के पूर्ववर्ती चार कविता संग्रह खड़ी बोली में हैं; लेकिन प्रस्तुत संकलन छत्तीसगढ़ी में.

‘अँजोर’ में छत्तीसगढ़ी की कविताएँ अवश्य हैं लेकिन इसके अनूदित रूप में खड़ी बोली हिंदी, छाया की तरह मौजूद है. प्रथम पृष्ठ पर छत्तीसगढ़ी और उसके सामने के पृष्ठ पर हिंदी. पढ़ते हुए आभास हो रहा है कि रामचरितमानस का पाठ कर रहे हैं–पद्य अवधी में और गद्यरूप हिंदी में या विनय पत्रिका पढ़ते हुए पद्य ब्रज में और गद्य खड़ीबोली में.

एकांत श्रीवास्तव

लेकिन एक अंतर है और वह बड़ा अंतर है. ‘मानस’ आदि के अनूदित रूप पर विशेष ध्यान नहीं दिया गया. हर बोली या भाषा की अपनी प्रकृति होती है महज शब्दों के प्रतिस्थापन से उसमें स्वाभाविकता नहीं रह पाती. ‘अँजोर’ की कविताओं का अनुवाद स्वयं कवि ने किया है इसलिए छत्तीसगढ़ी की स्वाभाविक धारा खड़ी बोली में भी प्रवाहित है. समय की धारा ने भी अनुवादक को सहूलियत दी है. छायावाद के बाद की हिंदी कविताएँ गद्योन्मुख होती गई हैं. बड़े से बड़े कवियों ने समर्थ गद्य कविताओं की रचना की है. ‘अँजोर’ संग्रह में ‘निशान’ कविता की इन पंक्तियों में गद्य और पद्य की विभाजक रेखा मिट सी गई है –

“बांह में है मेरे गोदना का फूल
उंगली में अंगूठी चांदी की
आँखों में समाया है रूप तेरा साथी
हाथ में गुदा है तेरा नाम
गुदा है ह्रदय में”

अंतिम दो पंक्तियों की भावनात्मकता इसे काव्य की तरलता से जोड़ती है. ‘भादो’ में भी लयात्मक गद्य की महिमा इसे काव्य की तरलता में डुबोती है–

“तुम्हारी स्मृतियाँ थीं
सघन अन्धकार में
जैसे कांस के उजले फूल”

एकांत श्रीवास्तव प्रेम और अनुराग के कवि हैं. इनके अनुरागात्मक संसार में फूलों की कोमलता है, पकी हुई फसलों की गमक है, इसके साथ ही कांटेदार बबूल की खासियतें भी. छत्तीसगढ़ के गाँवों में बबूल बहुतायत में पैदा होते हैं. एकांत जी के उपन्यास ‘पंखुड़ी-पंखुड़ी प्रेम’ में काँटेदार बबूल का प्रसंग भी आकर्षक बन गया है. वहाँ बबूल की तुलना संत से की गई है. “प्रचंड गर्मी में धरती की हरियाली अगर कहीं बचती है तो केवल बबूलों पर. जैसे ये पेड़ न होकर धरती के संत हों. ताप सहकर हरियाली को बचाए हुए. ‘अँजोर’ संग्रह में भी ‘बबूल वन’ कविता है–

“जीवन हो गया है बबूल वन
एक काँटा निकालता हूँ तो
गड़ जाता है दूसरा”

लेकिन ये बबूल के कांटे नहीं हैं-
जीवन के तरह तरह के दुख हैं. इसमें विस्थापन का भी दर्द है. भूख, अकाल, झूठ, फरेब, अपनापन, घर-गाँव का छूटना ये सभी दुख के ही तो रूप हैं.

‘अँजोर’ की कविताओं का शीर्षक व्यक्तिवाचक है तो जातिवाचक भी है.
यथा–‘सुखरु धीवर’ ‘अहीर’ आदि.

धीवर एक मामूली व्यक्ति होने के बावजूद वह संन्यासी बनाने के क्रम में इतिहास के कई अध्यायों को खोल देता है. बुद्ध और तुलसीदास के गृह त्यागने पर जो हालात यशोधरा और रत्नावली की हुई, वही हालात सुखरु के योगी बन जाने पर उनकी पत्नी की हुई. राजा हो या रंक, पति के वियोग का दंश तो हर पत्नी को झेलना पड़ता है. संग्रह की अंतिम कविता ‘धरती का कल्पवृक्ष’ में मनुष्य की प्रतिष्ठा है. आदमी का सबसे बड़ा गुण उसकी संवेदनशीलता है. “आदमी न पत्थर है, न ठूंठ, वह तो धरती का कल्पवृक्ष है.”

‘अँजोर’ यानी उजाला. उजाले में अन्धकार का घना रूप ज्यादा स्पष्ट हो जाता है. ॲंधेरा वहीं गहरा है जहाँ साधनहीनता है, कदम-कदम पर जीवन-यापन की विवशता है. आलोच्य गाँव के साठ घरों में एक को छोड़कर सब में टिमटिमाती रौशनी है, लेकिन साहूकार के घर में उगा है चंद्रमा. दूसरों को तो तारों की रौशनी भी उपलब्ध नहीं. कवि ने चाँद और तारों के माध्यम से विषमता की सीढ़ियों को आलोकित किया है–
“साहूकार के घर में
उगा है चन्द्रमा
हमारे पास नहीं कोई तारा”

हिन्दुस्तान के गाँवों का असली रूप कुछ ऐसा ही है. हिंदीतर भाषाओं में भी कुछ मिलते-जुलते भाव चित्र हैं. आकाश में पूर्णिमा का चाँद चमक रहा है, धरती पर एक भूखे व्यक्ति को चन्द्रमा एक झुलसी रोटी दिखाई दे रही है. बंगला के बहुचर्चित कवि सुकांत भट्टाचार्य (जिनकी मृत्यु युवाकाल में ही हो गई) की कविता का मर्मस्पर्शी चित्र है. एक भूखे पेट की पहली तलाश तो रोटी ही होती है. छत्तीसगढ़ के ग्रामीण मजदूर अन्य हिंदी प्रदेशों की भाँति विस्थापन की पीड़ा झेलने को अभिशप्त हैं. संग्रह की ‘अकाल’ कविता इस तथ्य की ओर इंगित करती है –
“सूने-सूने गाँव
खाली है धान का कटोरा
भरी-भरी आँखे
छूट रहा देश
सेंहुड़ की डाल में रो रही है पड़की”

बागीचा वीरान है, पंडुक कहाँ जाएं, कहाँ बैठें, सेंहुड़ की डाल पर बैठकर रो रही है. रोजी-रोटी की तलाश में दलबद्ध होकर लोग गाँव छोड़ चुके हैं, विस्थापन की पीड़ा झेलने के लिए, और जो रह गए हैं वे वीरानी की वेदना सहने के लिए अभिशप्त हैं. गाँव में कम से कम रहने के लिए मिट्टी के घर ही सही पर अपना तो है, शहरों में वे बेघर हैं, न ठौर न ठिकाना. पेट भरने के लिए बद से बदतर जिंदगी बितानी है. ‘मिट्टी का घर’ की पंक्तियाँ हैं –
“हम हैं मिट्टी के घर के रहवासी
मिट्टी जैसा हमारा मन
पड़ेगा फूल तो फूल उग जाएगा
पड़ेगा बबूल का बीज तो बबूल”

एक बड़े प्रदेश से टूटकर एक छोटा प्रदेश छत्तीसगढ़ बना. विकास और समृद्धि के बड़े-बड़े दावे किए गए. कुछ नए राजा बने, कुछ शहर, कुछ छोटे-बड़े व्यवसायी की किस्मत चमक उठी. लेकिन छत्तीसगढ़ के गांवों से आज भी पलायन जारी है. रेलगाड़ियों में भूसे की भांति लदकर शहरों में काम की तलाश में चल देते हैं. दो पैरों वाले जीव भेड़ों की चाल में.
कवि के शब्दों में –
“फूल के रस को फूल चुहकी पीती है
आंसू को पीती है माँ
जादूगरनी पीती है मानुष का रक्त
साहूकार पीता गरीब का पसीना
कौन सा जल पियूँ
कि बुझ जाय मेरी प्यास” ( ‘प्यास’ कविता से उद्धृत )

‘अँजोर’ की कविताएं गद्य और पद्य के बीच की दीवार तोड़ती है |

संग्रह की ‘पंचकोसी’ कविता विशेष रूप से ध्यान आकर्षित करती है. कविता की पंक्तियों से गुजरते हुए ‘तीसरी कसम’ का वह दृश्य सामने आता है–जहां हीरामन और अन्य गाड़ीवान साथी सड़क के किनारे ईंट के चूल्हे पर खाना बनाते हैं–इस प्रक्रिया में सब कुछ सामयिक या अल्पजीवी है. पंचकोसी कविता का दृश्य देखिए-
“जिस जगह लगती भूख
जला लेते हैं आग
पका लेते हैं भात-साग
तीन पत्थरों के चूल्हे में
……..खा लेते हैं
पलाश के पत्तों की पत्तलों में
आम के पेड़ की छाँव में ….

कुछ ऐसा ही दृश्य मुक्तिबोध की कविता ‘इसी बैलगाड़ी को’ में ये परिलक्षित होता है. यह बताना जरूरी है कि ये गाड़ीवालों की नहीं बल्कि शिवभक्तों की टोली है. छत्तीसगढ़ के एक शिवस्थान ने दूसरे शिवस्थान की यात्रा पर निकल पड़े हैं. दूर-दूर तक चलकर शंकर जी से मनोकामना पूरी करवाने की आकांक्षा लेकर. मन में द्वन्द्व भी है कि पहले कहाँ जायें–कुलेश्वर या कोपेश्वर या चम्पेश्वर है? ये ग्रामीण शिवभक्त, बीस कोस की पैदल यात्रा पर निकले हैं, केवल अपने लिए नहीं बल्कि समाज कल्याण के लिए, इनकी कामना है एक हिंसामुक्त समाज की– “सिरजो ऐसा संसार
कि पंच और पंचायत का
न पड़े काम.

पूरे संग्रह में ऐसे विकासोन्मुख समाज की कामना है जहां कल्याण और भाईचारे का शंखनाद ध्वनित होता रहे.

‘पंचकोसी’ कविता में कवि की आकांक्षाओं का प्रतिबिम्ब है _
“यदि कुछ नष्ट हो तो नष्ट हो
सोना और चांदी
महल और अटारी
यदि कुछ बचे तो
बच जाए प्रेम इंसान का
बूंद भर आंसू आँखों में बचा रहे”

एक और मनोभाव के साथ अपनी टिप्पणी को विराम देना चाहूंगा–‘मेरे जैसे पाठकों को ‘अँजोर’ की कविताएँ अवश्य पढ़नी चाहिए, जो शहर में जनमे, शहर में ही पले-बढ़े और शहर में ही बूढ़े हो गए और और खेत-खलिहानों की दुनिया के अनुभवों से वंचित रहे. ऐसे नागर जन कम से कम ‘सोना मासुरी’, ‘जयफूल’ और ‘हरुना’ आदि धान की कोटियों से तो अवगत होंगे. इसमें कोई दो राय नहीं कि हिंदी प्रदेशों में अभिव्यक्ति का माध्यम बोलियाँ हैं. हिंदी तो अभिजन की भाषा है. छोटी सी कविता ‘जयफूल’ कितना बता देती है और साथ ही फसल के प्रति किसानों की बदलती हुई मानसिकता भी.
“लालच में पड़ गए हैं लोग
बोते हैं काटते हैं हरुना
कोई बोता है इंद्राणी कोई महामाया
मैं बोता हूँ जयफूल
खेत में.” —
किताब : ॲंजोर (कविता संग्रह)
कवि : एकांत श्रीवास्तव
प्रकाशन संस्थान
4268-B/3, अंसारीरोड,
दरियागंज नई दिल्ली-110002
मूल्य: 250 रु.

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  1. सारगर्भित विश्लेषण।अच्छी रचना की प्रभावी समीक्षा।आपदोनों को बधाई।

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