24 अप्रैल। मध्यप्रदेश के नालछा तहसील के गुगली गाँव के निवासी गट्टू लाल को पाँच महीने से पता ही नहीं चला, कि उनकी बेटी कहाँ है? 2021 में उन्होंने अपनी 16 वर्षीय पुत्री को एक विश्वस्त रिश्तेदार के साथ इंदौर की महू तहसील के पास दैनिक मजदूर के रूप में काम करने के लिए भेजा था। एक दिन उन्हें फोन आया, कि उनकी बेटी कार्यस्थल से गायब है। अधिक समय बीतने पर उन्होंने अपने गाँव के पास नालछा थाने में प्राथमिकी दर्ज करायी, किंतु उसका कुछ पता नहीं चला।
राज्य के भील समुदाय से ताल्लुक रखनेवाले गट्टू लाल ने कहा, “पेट कैसे पालें? इसीलिए भेज दिया था। उक्त भील जाति की साक्षरता दर 42.2 फीसद है, जोकि अनुसूचित जनजातियों के लिए 59 फीसदकी राष्ट्रव्यापी औसत साक्षरता दर से काफी कम है।
आठवीं कक्षा तक पढ़नेवाली किशोरियाँ उन हजारों लड़कियों में शामिल हैं, जो हर साल मध्यप्रदेश से लापता हो जाती हैं और लापता रहती हैं। सरकारी आँकड़े बताते हैं, कि 2020 में राज्य से 8,751 बच्चे लापता हुए (24 बच्चे एक दिन), जो देश में सबसे ज्यादा है। उनमें से 80 फीसद से अधिक लड़कियाँ थीं, जिनमें से कई आदिवासी थीं। 2016 के बाद से, एमपी ने देश में लापता बच्चों की सबसे अधिक संख्या दर्ज की है। आधिकारिक आँकड़े बताते हैं, कि पिछले वर्षों की तुलना में कम से कम 4,600 लड़कियों का पता ही नहीं चला है।
राज्य की 21 फीसद से अधिक आबादी अनुसूचित जनजातियों, समुदायों से संबंधित है जो राज्य की सबसे खराब साक्षरता और स्वास्थ्य मानकों को दर्ज करते हैं, साक्षरता के मामले में सामान्य आबादी से 18 प्रतिशत अंक पीछे हैं। राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण-5 (2019-21) के अनुसार अनुसूचित जनजाति के बच्चों में कुपोषण राज्य के अन्य बच्चों की तुलना में अधिक पाया गया। आँकड़ों से पता चलता है कि धार जिले में, जहाँ गरीबी रेखा से नीचे आय वाले कुल परिवार 82.4 फीसद थे, वहीं अनुसूचित जनजाति के 88 फीसद से अधिक परिवारों की आय गरीबी रेखा से नीचे थी।
सरकारी प्राथमिकता सिर्फ कागजों तक सीमित है। भारतीय जनता पार्टी के सबसे लंबे समय तक मुख्यमंत्री रहे शिवराज सिंह चौहान, जिन्होंने 2016 में लड़कियों को बचाने के लिए ‘ऑपरेशन मुस्कान’ या ‘ऑपरेशन स्माइल’ अभियान को हरी झंडी दिखाई थी, इस अभियान के तहत उन्होंने घोषणा की थी, कि लापता बच्चों का पता लगाना उनकी सरकार की पहली प्राथमिकता होगी।
हालांकि कुछ मामलों में एक महीने बाद भी प्राथमिकी दर्ज नहीं की गयी, जैसा कि Article-14 की जमीनी रिपोर्ट से पता चलता है। कुछ मामलों में जहाँ लड़कियाँ दूसरी या तीसरी बार लापता हुई थीं, उन पर बिल्कुल भी मामला दर्ज नहीं किया गया था। स्थानीय पुलिस अधिकारियों के साथ बातचीत से पता चला है कि प्राथमिकी दर्ज करने में देरी के साथ-साथ किशोरियों के लापता होने को अक्सर एक ‘रिवाज’ के रूप में पेश किया जाता था।
मध्य प्रदेश की बाल अधिकार कार्यकर्ता रेखा श्रीधर ने कहा, “वास्तविकता यह है कि प्राथमिकी तब तक दर्ज नहीं की जाती जब तक कि काफी समय बीत चुका होता है, तस्करी नेटवर्क तेजी से आगे बढ़ते हैं।” उन्होंने कहा कि बच्चों का तेजी से पता लगाना तभी संभव है जब पहले 24 घंटों के भीतर मामले दर्ज हों। श्रीधर के अनुसार, “कानून प्रवर्तन एजेंसियों ने कुछ समुदायों से संबंधित रूढ़ियों और मिथकों को प्राथमिकता पर रखा, जिससे प्रारंभिक जाँच में बाधा उत्पन्न हुई।”
2013 में सुप्रीम कोर्ट ने निर्देश दिया था कि लापता बच्चे के हर मामले में, पुलिस को इसे अपहरण या तस्करी की घटना के रूप में मानना चाहिए, जब तक कि जाँच अन्यथा साबित न हो। जिन प्रकरणों में गुमशुदा बच्चों को चार माह तक बरामद नहीं किया जा सके, उन्हें राज्य की मानव तस्करी रोधी इकाई (एएचटीयू) को अग्रेषित किया जाना चाहिए। ये जिला स्तर की टीमें हैं जिनमें प्रशिक्षित पुलिस अधिकारी, महिला एवं बाल कल्याण विभाग के प्रतिनिधि और स्थानीय गैर-लाभकारी संस्थाएँ शामिल हैं।
(Article-14.com से साभार)
अनुवाद : अंकित कुमार निगम