खडस भाई प्रजा समाजवादी पार्टी की धारा से आए थे। इसलिए पिछड़ों की राजनीति को लेकर उनके मन में कोई वैसा आकर्षण नहीं था जैसा आम लोहियावादियों का होता है। वह कहा करते थे कि जाति आाधारित राजनीति अंत में फासिज्म की ओर ले जाती है। लेकिन बाबरी मस्जिद के ध्वंस के बाद उन्हें लगने लगा था कि मंडल और आंबेडकरवादी राजनीति कमंडल की राजनीति को, तात्कालिक तौर पर ही सही, चुनौती दे सकती है। विचारधारा के स्तर पर भले ही एक खोज जारी थी, एक राजनीतिक निराशा उनके मन में कहीं न कहीं अपनी जड़ें जमा चुकी थी।
अगर खडस भाई पद-प्रतिष्ठा पाने की दौड़ में नहीं थे तो फैशन के असर में विचारधारा से समझौता करनेवालों में भी नहीं। एक बार नागपुर में दलितों की स्थिति पर विचार के लिए उन्हें किसी राष्ट्रीय स्तर की बहस में बुलाया गया। यह किसी एनजीओ का आयोजन था। इसमें दिल्ली के प्रसिद्ध दलित लेखक मोहनदास नैमिशराय समेत कई विद्वान आए थे। खडस भाई मुझे भी साथ ले गये। आयोजकों का मानना था कि मुसलमानों तथा ईसाइयों के भीतर जातिगत भेदभाव नहीं है। खडस भाई का कहना था कि यह पूरी तरह गलत है। वहाँ जातियां भी हैं और भेदभाव भी। इसे लेकर बड़ा विवाद हुआ, लेकिन खडस भाई अपनी बात पर अड़े रहे। आयोजक नाराज थे। लेकिन खडस भाई पर कोई असर नहीं हुआ।
खडस भाई भारतीय लोकतंत्र की उस बेहतरीन धारा की उपज थे जिसकी बुनियाद गांधी, नेहरू और आंबेडकर ने रखी थी। इसे जयप्रकाश, लोहिया समेत अनेक नेताओं ने गढ़ा था। कोंकण के पिछड़्रे इलाके में लोकतंत्र की जड़ें किस तरह जमीं, इसका अंदाजा खडस भाई के किस्सों में मिलता है। वह बताते थे कि कोंकण में भयंकर गरीबी और बेरोजगारी के कारण लोगों को रोजगार के लिए मुंबई आना पड़ता था। लेकिन बदहाली के माहौल में भी वे अखबारों और रेडियो पर आनेवाली हर खबर पर जमकर बहस करते रहते थे। वे संयुक्त राष्ट्र से लेकर नयी दिल्ली की खबरों पर नजर रखते थे।
सोशलिस्ट पार्टी ने कोंकण के राजनीतिक जागरण में बड़ी भूमिका निभायी थी। प्रसिद्ध समाजवादी नेता बैरिस्टर नाथ पै लोकसभा में कोंकण का प्रतिनिधित्व करते थे। उनकी लोकप्रियता का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि जब बरसों बाद मैं राजापुर लोकसभा का चुनाव कवर करने गया तो देखा कि उनके समर्थन में दीवाल पर लिखे गये नारों को लोगों ने सहेज कर रखा हुआ था। आम लोगों की बस्ती में इन नारों से सजी दीवालें एक रोमांचक अनुभव देती थीं। इसी समाजवादी राजनीतिक संस्कृति में खडस भाई पले-बढ़े थे। उनके पास नाथ पै की एक स्वेटर सहेज कर रखी थी जो किसी मीटिंग में ठंड से काँपते खडस भाई को नाथ पै ने पहना दी थी। खडस भाई उसे फख्र से दिखाते थे।
प्रजा समाजवादी पार्टी के विचारों का उन पर ऐसा गहरा असर था कि किसी भी समस्या के आर्थिक पहलुओं का विश्लेषण जरूरी मानते थे। लोगों का जीवन-स्तर बेहतर करने में विज्ञान-तकनीक की भूमिका को महत्त्वपूर्ण मानते थे। यही वजह है कि जब नर्मदा बचाओं का आंदोलन चल रहा था तो बाकी साथियों से उनकी राय अलग थी। उनका कहना था कि बाँध का विरोध करने के बदले बेहतर मुआवजे और पुनर्वास की माँग होनी चाहिए। उनकी राय में सिंचाई के लिए बाँध जरूरी हैं। इसी तरह वह मानते थे कि दलितों, पिछड़ों और मुसलमानों की समस्या मूलतः आर्थिक है और उनके उत्पीड़न में आर्थिक कारकों की बड़ी भूमिका है क्योंकि उनकी बड़ी संख्या कामगार हैं। उनका कहना था कि मुसलमानों में ज्यादातर लोग कारीगर हैं और नयी अर्थव्यव्स्था के उनपर गंभीर परिणाम हो रहे हैं।
खडस भाई की स्मृतियों को साझा करते समय उन व्यक्तिगत अनुभवों को याद करना जरूरी है जिनके बगैर उनके व्यक्तित्व का सही चित्र नहीं उभर सकता है। मुझे टायफाड ज्वर हो गया था। उन्होंने किसी परिचित डॉक्टर से दिखाया और भोजन की काफी पाबंदियों के साथ मेरा इलाज शुरू हुआ। बार-बार उलटियाँ लगती थीं। फाफा सुबह सुबह पेज तैयार करती थीं और दिन भर इसी तरह के परहेज वाले भोजन की जरूरत थी। पूरे पखवाड़े यह सब चलता रहा। मुझे घर की कभी याद नहीं आयी। उनके घर कभी बाहरी जैसा रहा नहीं, इसलिए आज ऐसे वाकयात को साझा करते समय खासा संकोच हो रहा है। किसी बाहरी व्यक्ति को घर का हिस्सा बना लेना कोई आसान बात नहीं है। लोग किसी को छोटी मदद देकर कितना अहंकार करने लगते हैं!
ऐसी अनेक घटनाएँ मुझे याद हैं। एक दिन खडस भाई ने मुझे मिलने के लिए बुलाया। यह परेल का कोई रेस्टोरेंट था। हम लोग चाय पी रहे थे। उन्होंने इधर-उधर की चर्चा के बाद पूछा कि तुम्हारा खर्च चलाने में कितने की कमी आ रही है। मैंने कहा कि कम तो पड़ रहा है, लेकिन कभी हिसाब नहीं लगाया। उन्होंने खुद ही अंदाजा लगाकर बताया कि कितने की कमी है और कहा कि कष्ट झेलने की जरूरत नहीं है। घर की बात है, ये पैसे मैं दे दिया करूँगा। इसमें संकोच मत करो। मैंने मना कर दिया- खडस भाई, जरूरत पड़ेगी मैं ले लूँगा। मुझे मेहनत करनी चाहिए। कई जगह लिखने का ऑफर है। मैं उन दिनों ‘हमारा महानगर’ में छद्म नाम से लिखता था और महानगर की कठिन आर्थिक परिस्थितियों के बावजूद वहाँ से करीब-करीब नियमित भुगतान था। जब मीरा रोड में मकान खरीदने की बात आयी तो खडस भाई ने समर के हाथों पैसे भिजवाये। निखिल वागले के एडवांस, दोस्तों की सहायता और हाउसिंग लोन के सहारे मीरा रोड का मकान ले पाया।
मुंबई का प्रवास मेरे जीवन का अहम हिस्सा है और इस हिस्से में खडस भाई हर जगह दिखाई देते हैं। जनसत्ता में नौकरी की शुरुआत से लेकर मुंबई की मेरी जिंदगी के हर मोड़ पर वह एक अभिभावक की तरह मौजूद थे। मैंने उस दौरान अपना कोई भी फैसला उनके बगैर नहीं लिया। एक-दो फैसले लिये भी तो वे पूरी तरह गलत साबित हुए। इन्हीं में से एक फैसला था इंडियन एक्सप्रेस से इस्तीफा देने और एक गुजराती पत्रिका के प्रस्तावित हिंदी संस्करण की नौकरी स्वीकार करने का। उन्होंने मना किया था। मैं इस्तीफा देना तय कर चुका था। कुछ महीनों के बाद ही प्रोजेक्ट बंद हो गया और मैं सड़कों पर आ गया। फैसला इतना गलत था कि मैं मुंबई से विस्थापित हो गया और मुझे दिल्ली में अंतिम नौकरी पाने तक कई शहर बदलने पड़े। अपने साथ के लोगों की तकलीफ में उसके साथ रहने, उसकी तरक्की के लिए प्रयास करना और उसे खुश देखकर खुश होना उनके स्वभाव का हिस्सा था। ईर्ष्या करना या साथ के लोगों के प्रति तटस्थता उनके स्वभाव में नहीं था।
उनके निधन से ढाई साल पहले उनसे मिलने गया तो खडस भाई अस्पताल से लौटे थे। स्वास्थ्य के बारे में पूछा तो कहने लगे कि शरीर है तो बीमारी होगी ही। समर की पत्नी ने कहा कि बाबा कई दिनों के बाद इतनी बातें कर रहे हैं। खडस भाई से अपना संवाद कभी खत्म हो सकता है क्या? हमारे जैसे अनेक लोग हैं जिनसे उनका संवाद उनकी मौत के बाद भी खत्म नहीं होनेवाला है। ऐसे थे हमारे खडस भाई!
दुनिया अगर उम्मीद पे कायम है तो इन्हीं इने गिने त्यागी तपस्वी स्त्री-पुरुष मनस्वियों की बदौलत