– योगेन्द्र नारायण –
हिंदी साहित्य के इतिहासकारों और आलोचकों ने मक्खनलाल और उनके सुखसागर को भले ही दरकिनार कर दिया हो, पर हिंदी के पाठकों ने दोनों को इस कदर अपनाया कि दोनों श्रीमद्भागवत के अनुवाद के पर्याय बन गये तथा सुखसागर के सन 2010 तक 67 संस्करण हो गए। हिंदी साहित्य के विद्वान तो, आचार्य रामचंद्र शुक्ल द्वारा हिंदी गद्य के विकास में वर्णित लल्लूलाल, सदल मिश्र, सदासुखलाल और सैयद इंशा अल्ला खाँ की चर्चा में इस कदर रमे कि उन्हें बाद के लोगों के बारे में पलटकर देखने की जरूरत ही नहीं महसूस हुई। मक्खनलाल खत्री का जन्म काशी में सन 1810 के लगभग हुआ था। इसका मतलब वे आधुनिक हिंदी गद्य के जन्मदाता भारतेंदु हरिश्चन्द के ही नहीं, आचार्य शुक्लजी के अनुसार हिंदी गद्य के प्रस्तावना काल के राजा शिवप्रसाद सितारेहिंद और राजा लक्ष्मण सिंह से पूर्व पैदा हुए थे। सितारेहिंद का जन्म सन 1823 और भारतेंदु का जन्म सन 1850 में हुआ था।
मक्खनलाल खत्री के जन्म के बारे में ठीक-ठीक नहीं पता, परन्तु सुखसागर के मंगलाचरण में उन्होंने लिखा है कि-
‘बीस वर्ष की अवस्था में मुंशी वृंदावन सरिस्तेदार अदालत फौजदारी मिर्जापुर के उपकार से कि जो मेरे बाप के मामा थे, मैं उसी जिले में बओहदे मुहर्रिरी थाने पर नौकर हुआ और तेईस वर्ष की अवस्था में दरोगा होकर, ऊपर थाने गोपीगंज परगने भदोही जमींदारी श्रीमहाराजाधिराज ईश्वरी प्रसाद नारायण सिंह बहादुर काशी नरेश, जो चौदह गुण निधान हैं, बदल आया। बत्तीस वर्ष की अवस्था में काम, क्रोध, मोह और लोभ संसारी जाल में ऐसा फँसा कि गुरुमुख भी न हुआ।’
गुरुमुख होने की इस इच्छा से प्रेरित हो वे काशी चले आए और बाबा जवाहिरलाल सारस्वत ब्राह्मण से गुरुमुख होने के बाद जब मन शुद्ध हुआ तो श्रीमद्भागवत पढ़ना आरंभ किया और बाद में उसके उल्था करने की इच्छा हुई, तो महाराजा फणीन्द्राचारी (गोपीगंज) और पं. गोविन्दराम तथा मदन मोहन ओझा की मदद से उल्था करना आरंभ किया। उनका यह कार्य सुखसागर नाम से संवत् 1903 (सन् 1846) में पूरा हुआ। इतने बड़े ग्रंथ का अध्ययन करने और उसका उल्था करने में कम से कम चार वर्ष तो लगा ही होगा। इस प्रकार ग्रन्थ के पूरा होने के सन् 1846 से उनके उम्र के 32 वर्ष, जब वे काशी आए और चार साल के अध्ययन और उल्था करने के समय को घटा दिया जाय तो उनका जन्म 1810 ठहरता है।
मक्खनलालजी का विद्याध्ययन याविनी विद्या का था। संस्कृत का ज्ञान तो बिल्कुल ही नहीं था। वे फारसी पढ़ना जानते थे और श्रीमद्भागवत का अध्ययन उन्होंने अबुल फैजी (अकबर के काल के) के फारसी अनुवाद से किया। मंगलाचरण के आरम्भ में ही उन्होंने घोषित कर दिया-
श्रीभागवत कठोर बड़ी कछु बूझि परै नहिं अर्थ की रीती।
बूझ बिना नहिं प्रेम जगै बिन प्रेम जगे उपजे नहिं प्रीती।।
प्रीति बिना नहिं काम सरै बिन काम सरे न सरे जग नीती।
याहि ते बूझिबे हेतु कहूं उर्दू में खुलासे से गोविन्द गीती।
अनुवाद तो उर्दू में हुआ, पर उर्दू संस्करण 1873 में निकला, जबकि देवनागरी में सुखसागर 1854 में ही छप चुका था। कठिन फारसी शब्दों का परिष्कार पं. जोखूराम और जगन्नाथ प्रसाद की मदद से बाद में हुआ।
सुखसागर के साथ विशेष बात यह थी कि इसका प्रथम संस्करण उतना सफल नहीं रहा, पर अयोध्या के राजा मानसिंह के आर्थिक सहयोग से नवल किशोर प्रेस, लखनऊ ने जब इसे पुनः संपादित कर 1866 में छापा तो इसे अपार लोकप्रियता मिली। यहां तक कि 1884 तक इसका 6 हजार प्रतियों का नौवां संस्करण भी प्रकाशित हो गया। इसके बाद भी सुखसागर में लगातार संशोधन होता रहा। मंगलाचरण में मक्खनलालजी ने लिखा है कि-
‘सब सन्त व हरिभक्तों के चरणों में शिर रख कर श्रीकृष्णदासानुदास मक्खनलाल बेटा गंजनलाल खत्री पंजाबी, रहने वाला काशीपुरी, मुहल्ला ब्रह्मनाल, नायब कोतवाल थाना कालभैरव, यह इच्छा रखता है कि उल्था श्रीमद्भागवत बारहवें स्कन्द का, जो पहले के महात्मा व हरिभक्तों ने भाषा दोहा चौपाई में बनाया है, बीच बोली उर्दू के लिखूं कि सब स्त्री व पुरुष व लड़का व बूढ़ा व छोटा व बड़ा व ज्ञानी व अज्ञानी उसके अर्थ को समझ कर परमेश्वर के चरणों में प्रीति लगायें।’
मक्खनलालजी अपने इस मकसद में कामयाब रहे। यहां तक कि 1884 में इसका नौंवा संस्करण, नौ टाइप सेट में छपा तथा मोटे अक्षरों में सचित्र इसका दूसरा संस्करण भी निकालना पड़ा। इसकी सबसे बड़ी विशेषता यह है कि सुखसागर ने श्रीमद्भागवत के भाव पक्ष पर जादा जोर दिया, उसके गूढ़ दार्शनिक पक्ष को उजागर करने की मक्खनलालजी से अपेक्षा भी नहीं की जा सकती थी। सुखसागर, थोड़ी भी पढ़ सकने में समर्थ महिलाओं के हाथों में पहुंचने लगा तथा अवसर मिलते ही अपने परिवार या पड़ोस की महिलाओं के साथ बैठ कर श्रीकृष्ण लीला माधुरी का आनंद लेने लगीं। मुझे याद है कि बचपन में गांव पर गर्मियों में रात होने के बाद चबूतरे पर कम से कम 12-14 चारपाइयां पड़ी होती थीं और अपने ही कुल का, बाबा का कोई हमउम्र भाई रामचरित मानस की कथा पढ़ कर सुनाया करता था या जाड़ों में दालान के कमरे में विशेष रूप से पुआल पर गद्दा बिछा होता था तथा बाबा के साथ हमलोग महाभारत की कथा सुनते थे, लेकिन सुखसागर सुनने के लिए रात की प्रतीक्षा करने की जरूरत नहीं होती थी। तिजहरियां होते ही परदादियों, दादियों की टोली बैठ जाती थी तथा सुविधानुसार धीरे-धीरे अटकते, ठिठकते, कथा प्रसंग पर विह्वल हो चर्चा करते करीब एक घंटे सुखसागर की कथा सुनने का सुख मिल ही जाता था। इन ग्रंथों में हम लोगों का एक आकर्षण और था कि इनमें वर्णित कथा प्रसंगों के रंगीन चित्र देखने को मिलते थे। इससे अधिकांश सुनी हुई कथाएं चित्रों के माध्यम से याद हो गईं। एक संदर्भ के अनुसार- ‘हरिऔधजी ने बताया कि सुखसागर उनकी माताजी का सबसे प्रिय ग्रंथ था और जब वे छोटे थे तभी सुखसागर पढ़ने के लिए उनपर जोर देने लगी थीं। हरिवंशराय बच्चन ने भी याद किया है कि किस तरह उनकी दादी अपनी सहेलियों के साथ सुखसागर का पाठ करती थीं। सुखसागर और प्रेमसागर उनके प्रिय ग्रंथ थे।’ श्रीमद्भागवत तो आज भी साधारण परिवारों में दुर्लभ ग्रंथ है पर सुखसागर के माध्यम से श्रीमद्भागवत की कथा घर-घर के धार्मिक आयोजनों में लोकप्रिय और सुलभ होती गई। इस लोकप्रियता का इससे अच्छा प्रमाण क्या होगा कि सन दो हजार तक इसके 63 संस्करण छप चुके थे और सन 2010 तक इसके चार और संस्करण बाजार में आ गए।
सुखसागर और मक्खनलालजी का नाम तो हिन्दीभाषी घरों में बस गया, पर मक्खनलालजी अपने ही शहर की स्मृति से लुप्त हो गए। जबकि पूरे देश में जातिवाद नंगा नाच कर रहा है, मक्खनलालजी के बारे में उनकी जाति खत्री समाज में भी उनके बारे में कोई कुछ बता सकने वाला तो दूर, कोई यह भी कहने वाला नहीं मिला कि हां, रिश्ते में वे मेरे बाबा या बाबा के फूफा, नाना या दूर के यह या वह लगते थे। उनके एक फोटो या उनके बारे में किसी भी तरह की किसी भी जानकारी के लिए शहर भर भटकता रहा, पर कुछ हाथ नहीं लगा। कुल-खानदान का भी अतापता नहीं मिला। ब्रह्मनाल मुहल्ले में इतना ही पता चला कि फलाँनी गली में उनके परिवार के लोग रहते थे, पर वर्षों पहले वे तेलियाबाग चौराहे पर रहने लगे थे। वहां खोजबीन करने पर पता चला कि करीब बीस साल पहले वह मकान बेच कर कहीं चले गए। गोस्वामी तुलसीदासजी ने अपने बारे में लिखा है-
कवि न होहिं, नहिं बचन प्रवीनू, सकल कला सब विद्या हीनू।
चौपाई की यह अर्धाली तुलसीदासजी की विनम्रता दर्शाती है, जबकि वह इसके ठीक उलट थे। वह कवि थे, वचन प्रवीण थे और विद्या पारंगत थे मगर मक्खनलालजी पर तो वाकई यह अर्धाली ठीक बैठती है। पुलिस की नौकरी, बिरादरी में परिवार की कोई खास प्रसिद्धि नहीं, पेट पालने के लिए लगता है मजबूरन ही फारसी की पढ़ाई, किसी संप्रदाय विशेष के महंत या कोई अन्य ओहदेदार भी नहीं, तो भला उनके बारे में कोई कुछ क्यों याद रखे? दो सौ वर्ष बाद इस समय मक्खनलालजी का अगर कुछ बचा है तो उनका नाम और सुखसागर।