आंबेडकर की पत्रकारीय विरासत

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— प्रबोधन पॉल —

हालिया बरसों में आंबेडकर, जातिप्रथा और दलित राजनीति पर काफी कुछ लिखा गया है। इसका एक खास संदर्भ है, वह यह कि भारत में रैडिकल दलित राजनीति की सक्रियता बढ़ी है। इस तरह का लेखन मुख्य रूप से समसामयिक मुद्दों की पृष्ठभूमि में हुआ है, जिन मुद्दों ने जातिविरोधी दलित-बहुजन आंदोलन की दशा-दिशा को काफी प्रभावित किया है।

उपर्युक्त लेखन में फोकस आंबेडकर के राजनीतिक और सामाजिक दर्शन पर रहा है। नतीजतन, उनके विचारों ने न केवल जाति और दलित राजनीति पर होनेवाली चर्चाओं को बल्कि हमारे समाज के बारे में हमारी समझ को भी गहराई से प्रभावित किया है। लेकिन उनकी पत्रकारीय विरासत के बारे में लोग अमूमन अनजान हैं।

जिन अखबारों से आंबेडकर का नाता रहा उन्होंने रैडिकल राजनीतिक विचारों को फैलाने में अहम भूमिका निभायी और समाज में एक आलोड़न पैदा किया। उन अखबारों का अध्ययन हमें दलित राजनीतिक विमर्श के परिप्रेक्ष्य और इतिहास को तथा प्रतिनिधित्व, जातिगत हिंसा और धार्मिक कट्टरवाद जैसे मुद्दों को समझने में मदद करता है।

आंबेडकर और दलित राजनीति पर हुए अधिकांश समकालीन लेखन ने दलित-आंदोलन के इतिहास में दलित अखबारों के महत्त्व और उनकी भूमिका को प्रायः नजरअंदाज किया है। जिन अखबारों से आंबेडकर जुड़े थे वे दलित राजनीतिक सक्रियता के इतिहास बारे में सूचनाओं के विपुल भंडार हैं, इसलिए यह अफसोस की बात है कि एक पत्रकार और संपादक के रूप में आंबेडकर की भूमिका प्रायः अलक्षित रही है। उनका विद्वत्तापूर्ण लेखन तो अंग्रेजी में है लेकिन उनका पत्रकारीय काम मराठी में।

जोखिम भरी पत्रकारिता में प्रवेश

महाराष्ट्र में दलित अखबार जोतिबा फुले के सत्यशोधक आंदोलन की विरासत हैं। उन्नीसवीं शताब्दी के आखीर में फुले द्वारा दीन बंधु की स्थापना के बाद ही दलित अखबारों के प्रकाशन का सिलसिला शुरू हुआ। आंबेडकर से पहले के, शिवराम जानबा कांबले और किसन फागुजी बानसोडे जैसे दलित नेताओं ने जो अखबार शुरू किये वे मुख्य रूप से छुआछूत उन्मूलन के लिए समर्पित थे। वे अखबार जल्दी ही बंद हो गए और कोई टिकाऊ असर नहीं छोड़ पाये।

आंबेडकर ने 1920 में अखबारों की दुनिया में प्रवेश किया। उन्होंने 31 जनवरी, 1920 को अपना पहला अखबार मूकनायक नाम से शुरू किया। यह तीन साल चलकर बंद हो गया। बाद में उन्होंने तीन और अखबार निकाले- बहिष्कृत भारत (1927-1929), जनता (1930-56), और प्रबुद्ध भारत (1956)। इनमें से पहले दो अखबारों यानी मूकनायक और बहिष्कृत भारत के संपादकीय प्रबंधन से वह सीधे जुड़े रहे। 1930 से उन्होंने जिम्मा अपने सबसे महत्त्वपूर्ण सहयोगियों- देवराव नाइक, बी.आर.कादरेकर, जी.एन.सहस्रबुद्धे, आर.डी.भंडारे, और बी.सी.कांबले- को सौंप दिया। गौरतलब है कि नाइक, कादरेकर और सहस्रबुद्धे दलित नहीं थे।

आंबेडकर का एक पत्रकार के रूप में सक्रियता का दौर लंबा नहीं चला। फिर भी मराठी पत्रकारिता की रूपरेखा को आकार देने में उनका अहम योगदान रहा। उनके विरोधी भी मानते थे कि अपने अखबारों के जरिये उन्होंने अंतर्दृष्टि-संपन्न काम किया। सुबोध शैली में उनका विद्वत्तापूर्ण लेखन, और भाषा पर उनका अधिकार, दोनों की उस दौर पर अपनी छाप छोड़ने में समान भूमिका रही।

शायद मूकनायक के संपादन के अनुभव ने ही उन्हें मराठी में तार्किक शैली विकसित करने के लिए प्रेरित किया। आंबेडकर के बारे में लिखनेवाले शुरुआती लेखकों में से एक, रत्नाकर गणवीर के मुताबिक आंबेडकर की अंग्रेजी शिक्षा-दीक्षा के कारण उन्हें शुरू-शुरू में मराठी में अपने को अभिव्यक्त करने में कठिनाई महसूस होती थी। इस मुश्किल से उबरने के लिए वे पहले अंग्रेजी में संपादकीय लिखते और फिर उन्हें मराठी में अनूदित करते। उन्होंने मराठी साहित्य के विभिन्न आयामों को जानने-समझने के लिए बहुत प्रयास किये, जिसका उन्होंने अपने अग्रलेखों और टिप्पणियों में भरपूर उपयोग किया। 1927 के महाड सत्याग्रह के दौरान उनके लेखन की दृढ़ और संयत शैली खूब निखरकर सामने आयी।

आंबेडकर की पत्रकारिता का एक बहुत मोहक पहलू उनके इस विश्वास में दीखता है कि पत्रकारिता को लोकरुचि और लोक-मान्यता का अंधानुसरण नहीं करना चाहिए। इसके बजाय पत्रकारिता को लोकतांत्रिक विचारों को स्थापित करने में मदद करनी चाहिए। उनका कहना था कि अखबारों को उदाहरण पेश करके जनता को राह दिखानी चाहिए। उन्होंने सोच-समझकर ऐसे निर्णय लिये जिन्होंने उनके पत्रकारीय काम को गहरे प्रभावित किया, हालांकि उन्हें इसकी कीमत भी चुकानी पड़ी।

आंबेडकर के अखबार पैसे की तंगी से अभिशप्त रहे- इसी वजह से मूकनायकऔर बहिष्कृत भारत को आखिरकार बंद कर देना पड़ा। आर्थिक तंगी के कारणों में एक, विज्ञापन के मामले में उनका सख्त रुख भी था। बहिष्कृत भारत के एक संपादकीय में उन्होंने अखबारों की इस बात के लिए आलोचना की थी कि वे ऐसे गैर-जिम्मेवाराना विज्ञापन भी छपते हैं जो गैरबराबरी और रूढ़िवाद को खाद-पानी देते हैं। बाम्बे क्रानिकल और केसरी समेत कई राष्ट्रवादी अखबार ऐसे विज्ञापन छापते थे जो ब्राह्मणवादी साहित्य, समारोह और गतिविधियों के होते थे और ब्राह्मणवाद तथा पितृसत्तात्मकता को बनाये रखने के पक्षधर होते थे। उनका कहना था कि ‘सामाजिक रूप से अनैतिक और फूहड़ विज्ञापन’ छापने के बजाय वे कोई विज्ञापन न छापना पसंद करेंगे।

मूकनायक और बहिष्कृत भारत की स्थापना

31 जनवरी 1920 को शुरू हुआ मूकनायक एक पाक्षिक अखबार था जो मुंबई से शनिवार को प्रकाशित होता था। मूकनायक का दफ्तर परेल के पड़ोस में एक श्रमिक बस्ती में था। अखबार के नाम मूकनायक का मतलब ही है- बेआवाज लोगों का नेता- यह नाम भक्त-कवि तुकाराम की एक चतुष्पदी से प्रेरित था। मूकनायक को ढाई हजार रुपये का शुरुआती दान छत्रपति शाहू से मिला था, जो कि कोल्हापुर की रियासत के राजा और उस समय पश्चिम भारत की बड़ी हस्तियों में एक थे।

आंबेडकर मूकनायक के पदेन संपादक कभी नहीं रहे, अलबत्ता भारत में रहने के दौरान वही उसके असल संपादक होते थे। पांडुरंग भाटकर पहले पदेन संपादक हुए। आंबेडकर अपने पीएच.डी. अध्ययन से अवकाश लेकर 1918 में भारत आए। फिर वह शोधकार्य पूरा करने के लिए 1920 में देश से बाहर चले गये। भाटकर की जगह न्यानदेव डी. गोलप संपादक बनाये गये। गोलप ने एक ऐतिहासक उपलब्धि हासिल की, जब वह 1921 में बाम्बे प्रेसिडेंसी की विधान परिषद के पहले ‘अछूत’ सदस्य बने। आंबेडकर लंदन से मूकनायक के काम पर बारीकी से निगाह रखते थे।

आरंभ से ही मूकनायक को वित्तीय और प्रबंधकीय मुश्किलों से गुजरना पड़ा। आंबेडकर की गैर-मौजूदगी में, उनके घनिष्ठ मित्र, संपन्न उद्यमी नवल भाथेना ने, जो कोलंबिया विश्वविद्यालय में साथ पढ़े थे, खुले हाथों मूकनायक की सहायता की। उन्होंने कई बार मूकनायक को संकट से उबारा। उन्होंने बंबई के गोदरेज जैसे कुछ प्रमुख उद्योगपतियों को मूकनायक में विज्ञापन देने के लिए राजी किया। लेकिन समय बीतने के साथ आंबेडकर के लिए मूकनायक के कामकाज पर नजर रखना दिनोंदिन कठिन से कठिनतर होता गया। आखिरकार उन्होंने गोलप से कुछ निजी मतभेदों के चलते 1923 में मूकनायकसे अपना नाता तोड़ लिया। गोलप से झगड़े के दौरान आंबेडकर ने अखबार के प्रबंधन की बाबत एक अहम सबक सीखा, जिसका उन्होंने बाद के बरसों में उपयोग करते हुए, जब पत्र-पत्रिका निकाली तो उसपर अपना पूरा नियंत्रण रखा।

मूकनायक की तुलना में बहिष्कृत भारत का प्रकाशन-काल अधिक टिकाऊ और विवादमुक्त रहा। यह पाक्षिक था जो बंबई से प्रकाशित होता था। बहिष्कृत भारत का आरंभ 3 अप्रैल 1927 को महाड सत्याग्रह के दौरान हुआ था। बाद में यह आंबेडकर के नेतृत्व वाली बहिष्कृत हितकारिणी सभा का मुखपत्र हो गया। वित्तीय कठिनाइयों के कारण यह 1929 में बंद हो गया। लेकिन यह 1927 में महाड में शुरू हुए एक जोरदार जन आंदोलन की देन था।

1920 के दशक में मूकनायक और बहिष्कृत भारत ने धर्म, समाज और राजनीति से जुड़े अनेक विवादास्पद मसलों पर साहसिक रुख अख्तियार किये। बहिष्कृत भारत नाम बंबई में आंबेडकर की अध्यक्षता में हुई एक जनसभा में प्रस्तावित और स्वीकृत किया गया था। इसे शुरुआती आर्थिक सहायता कोंकण और बंबई के दलित कार्यकर्ताओं से मिली थी जिन्होंने महाड के आंदोलन में हिस्सा लिया था। आंबेडकर ने संपादकीय लिखे, रिपोर्टें और टिप्पणियाँ लिखीं और वे बहिष्कृत भारत के प्रकाशन के हर पहलू में दिलचस्पी लेते थे। उन्होंने कोई अतिरिक्त स्टाफ नहीं रखा। उन्होंने एक जगह यह लिखा है कि आर्थिक तंगी के कारण बहिष्कृत भारत में वह लिखने, संपादित करने, रिपोर्ट तैयार करने, सारे काम खुद ही करते थे।

(बाकी हिस्सा कल)

(द वायर से साभार)

अनुवाद : राजेन्द्र राजन

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