11 मई। इक्कीसवीं सदी की शुरुआत से ही पूरी दुनिया में सूखे का पड़ना और उसके टिके रहने का समय बढ़ता जा रहा है। मरुस्थलीकरण का मुकाबला करने के लिए संयुक्त राष्ट्र के सम्मेलन (यूएनसीसीडी) के चल रहे देशों के सम्मेलन (कॉप-15) में 11 मई को ‘ड्राउट इन नंबर्स 2022’ नाम की रिपोर्ट जारी की गयी।
पिछले 122 सालों में 196 देशों में लोगों के जीवन और उनकी आजीविका पर सूखे के असर का आकलन यह कहता है कि एक पूरी पीढ़ी पानी की कमी को देखते हुए बड़ी हो रही है।
इस आकलन में भारत को ऐसे देशों में रखा गया है, जो सूखे का भयंकर रूप से शिकार हैं। 2020 से 2022 के दौरान देश का लगभग दो-तिहाई हिस्सा सूखे की चपेट में आया।
वैश्विक स्तर पर सूखे के प्रति संवेदनशील देशों की सूची में भारत भी शामिल है। भौगोलिक रूप से इस मामले में भारत की तुलना उप-सहारा अफ्रीका से की गयी है। आकलन में कहा गया है- ‘1998 से 2017 तक के दस सालों में गंभीर सूखे के प्रभाव से भारत के सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) में दो से पांच फीसदी की कमी होने का अनुमान लगाया गया।’
‘डाउन टु अर्थ’ ने पहले किए अपने विश्लेषण में पाया था कि 1997 के बाद से देश में सूखे से संभावित क्षेत्र में 57 फीसदी की वृद्धि हुई है। पिछले एक दशक से ज्यादा के समय में देश के एक तिहाई जिलों में चार से ज्यादा सूखे पड़े हैं। हर साल देश के लगभग पांच करोड़ लोग सूखे से प्रभावित होते हैं।
पिछले साल, इसरो के अंतरिक्ष अनुप्रयोग केंद्र ने अपनी ‘भारत के मरुस्थलीकरण और भूमि क्षरण एटलस’ रिपोर्ट में अनुमान लगाया था कि 2018-19 के दौरान भारत में लगभग 9.785 करोड़ हेक्टेयर (देश की भूमि का लगभग 30 फीसदी) भूमि का क्षरण हुआ था।
सूखा भारत की प्रमुख वर्षा सिंचित खेती को प्रभावित करता है, जो औसतन बोए गए क्षेत्रों का साठ फीसदी है। फिलीपींस के अंतरराष्ट्रीय चावल अनुसंधान संस्थान और जापान के अंतरराष्ट्रीय कृषि विज्ञान अनुसंधान केंद्र ने छत्तीसगढ़, झारखंड और ओड़िशा के अनुसंधान संगठनों के सहयोग से किए एक अध्ययन में पाया था कि सूखा, लोगों को हमेशा के लिए गरीबी की रेखा से नीचे बनाए रखने में एक प्रमुख कारक है। 2006 में प्रकाशित इस अध्ययन में पाया गया कि सूखे से गंभीर रूप से प्रभावित किसी एक साल में छत्तीसगढ़, झारखंड और ओड़िशा के किसानों को चालीस करोड़ डालर के करीब नुकसान होता है।
अध्ययन में देखा गया कि इन तीनों राज्यों में गरीबी रेखा से ऊपर रहनेवाले लगभग 1.3 करोड़ लोग सूखे के कारण हुए आर्थिक नुकसान के चलते गरीबी रेखा से नीचे चले गए।
*सूखे के चंगुल में धरती*
साल 2000 के बाद से ही पूरी दुनिया में सूखे का पड़ना और उसके टिके रहने का समय बढ़ता जा रहा है। सूखे को धीमी शुरुआत वाली आपदा माना जाता है, इसलिए इससे निपटने की तैयारी के लिए काफी वक्त लिया जाता है। हालांकि हाल के दशकों में मौसम से जुड़ी आपदाओं में सूखा, उन बड़े कारणों में से एक रहा है, जिसके चलते लोगों को अपनी जानें गंवानी पड़ीं और आर्थिक नुकसान झेलना पड़ा।
यूएनसीसीडी के कार्यकारी सचिव इब्राहिम थिआव के मुताबिक, ‘सूखे की अवधि और प्रभावों की गंभीरता में ऊपर की ओर उछाल दिख रहा है। यह न केवल मानव समाज को प्रभावित करता है, बल्कि पारिस्थितिक तंत्र पर भी असर डालता है, जिस पर सभी के जीवन का अस्तित्व निर्भर करता है। इसमें हमारी अपनी प्रजाति भी शामिल है।’
आकलन के मुताबिक, प्राकृतिक आपदाओं में सूखे की भागीदारी 15 फीसदी है लेकिन इसके चलते 1970 से 2019 के दौरान लगभग 6,50,000 लोगों की जानें गयी हैं। पिछली सदी में सूखे के चलते एक करोड़ से ज्यादा लोगों को मौत का शिकार बनना पड़ा।
एक आकलन के मुताबिक, अगले आठ सालों में यानी साल 2030 तक सूखे के चलते दुनिया भर में 70 करोड़ लोग विस्थापित होंगे। 2019-20 में सूखे ने 1.4 अरब लोगों के जीवन को प्रभावित किया।