22 मई। उत्तर प्रदेश के वाराणसी में भले ही ज्ञानवापी मस्जिद का मुद्दा सुलगाया जा रहा है लेकिन इस शहर में कई ऐसे धार्मिक स्थल हैं जहाँ कोई मजहबी चश्मा नहीं लगता। सिर्फ बनारस नहीं, चंदौली और जौनपुर, तथा इनके अलावा यूपी में कई ऐसी जगहें हैं, जो भाईचारा, कौमी एकता, गंगा-जमुनी तहजीब और सौहार्द के प्रतीक हैं। एक ही परिसर में नमाज अता की जाती है, तो आरती-भजन भी होता है। धार्मिक अनुष्ठान में हर संप्रदाय के लोग एक-दूसरे का सहयोग करते हैं और तीज-त्योहार साथ-साथ मनाते हैं। आजादी के बाद 1992 तक ज्ञानवापी मस्जिद-मंदिर को लेकर कोई विवाद नहीं था। मस्जिद के बेसमेंट में चूड़ियाँ बिका करती थीं, और कोयला भी। न कोई रोक-टोक था और न श्रृंगार गौरी के दर्शन-पूजन को लेकर कोई पाबंदी।
अभी ज्यादा दिन नहीं गुजरे, जब मुस्लिम समुदाय के लोगों ने काशी विश्वनाथ मंदिर के लिए जमीन मुहैया कराई थी। आपसी समझौते के तहत मस्जिद को 1700 वर्ग फीट की जमीन के बदले विश्वनाथ मंदिर ट्रस्ट ने एक हजार वर्ग फीट जमीन दी थी। कोर्ट के बाहर हुए इस समझौते के बाद मंदिर से जुड़े लोग खुश नजर आए तो मुसलमानों ने भी इसे सांप्रदायिक सौहार्द की मिसाल के तौर पर पेश किया। दरअसल, ज्ञानवापी मस्जिद के पास विश्वनाथ मंदिर से सटी तीन जमीनें हैं, उसी में से एक प्लॉट 1700 वर्ग फीट का है। इस जमीन पर बाबरी मस्जिद विध्वंस के बाद ज्ञानवापी मस्जिद और विश्वनाथ मंदिर की सुरक्षा के लिए कंट्रोल रूम स्थापित किया गया था। जमीन की दिक्कत हुई तो अंजुमन इंतजामिया मसजिद कमेटी आगे आयी और अपनी जमीन देने पर राजी हो गयी। तब न कोई बवाल हुआ और न कोई वितंडा खड़ा हुआ।
द्वादश ज्योतिर्लिंगों में से एक है, ओंकालेश्वर महादेव मंदिर। यह मंदिर कब्रिस्तान के बीचोबीच में है। मंदिर के पास है, फरदू शहीद की मजार। काशी खंड के अनुसार ओंकालेश्वर मंदिर में कपिलेश्वर और नादेश्वर महादेव का विग्रह है। इलाकाई पत्रकार दिलशाह अहमद कहते हैं, “ओंकालेश्वर मंदिर में वैशाख शुक्ल चतुर्दशी को वार्षिक पूजा और श्रृंगार का आयोजन किया जाता है। इस मौके पर बड़ी संख्या में दोनों संप्रदायों के लोग जुटते हैं। जयघोष से समूचा ओंकालेश्वर मुहल्ला गूंज उठता है। करीब 21 साल पहले फरदू शहीद की मजार की चादर में अराजकतत्वों ने आग लगा दी थी, जिसके चलते पुलिस और इलाकाई नागरिकों के बीच झड़प हो गयी थी। हिन्दू-मुसलमानों के बीच यहाँ कभी कोई सीधा विवाद नहीं हुआ। दोनों संप्रदायों के लोग मिल-जुलकर प्रार्थना-पूजा करते हैं।”
बनारस से सटे चंदौली जिले (पहले बनारस का हिस्सा था) में एक गाँव है लालपुर, जहाँ कोई मजहबी चश्मा नहीं लगाता। शहाबगंज प्रखंड का यह गाँव लेवा-इलिया मार्ग पर तियरा के नजदीक है। यहाँ एक विशाल शिव मंदिर और उसी से सटी शहीद बाबा की मजार। घंटा बजाने अथवा अजान से यहाँ किसी को कोई दिक्कत नहीं होती है। पास की मस्जिद में नमाज भी होती है, लेकिन किसी को कोई एतराज नहीं होता। दोनों पूजा स्थलों की देखरेख हिन्दू और मुस्लिम समुदाय के लोग मिलकर करते हैं। मंदिर और मजार की रंगाई-पोताई की जिम्मेदारी मुस्लिम और हिन्दू मिलकर उठाते हैं। यहाँ कभी भी सांप्रदायिक विवाद नहीं हुआ। मंदिर में पूजा करनेवाले मजार में भी दिया रख देते हैं, और यदा-कदा चादर चढ़ाते हैं।
लालपुर के निकटवर्ती उतरौत गाँव से सटा मजरा है तकिया शाह भोला। यहीं हजरत तकियाशाह भोला की मजार है, जहाँ हिन्दू हो या मुसलमान, हर किसी का सिर अकीदत से झुकता है। जियारत करनेवालों में न कोई हिन्दू होता है और न मुसलमान। यहाँ सिर्फ इनसानों की हाजिरी लगती है। यह मजार न केवल मनौती का केंद्र है बल्कि इंसानियत की भाषा सिखानेवाला मजहबी मरकज भी है।
बनारस के कबीरदास सदियों से हिन्दू और मुसलमानों के लिए प्रिय रहे हैं। विक्रम संवत 1575 में संत कबीरनगर जिले के मगहर में उनकी मृत्यु हुई थी, जहाँ उनकी दो-दो मजारें हैं, जिनमें एक हिन्दुओं की दूसरी मसलमानों की। फिर भी यहाँ कभी कोई विवाद नही हुआ। इटावा के लखना स्थित कालिका माता मंदिर में पुजारी ब्राह्मण नहीं बल्कि दलित होते हैंl इस अनूठे मंदिर परिसर में एक मजार भी है।