स्वतंत्रता आंदोलन की विचारधारा – मधु लिमये : 20वीं किस्त

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मधु लिमये (1 मई 1922 - 8 जनवरी 1995)

बायझेंटीन साम्राज्य के कुछ हिस्सों में तुर्क राज्य उदित हो गए थे। उनमें से उस्मान नाम के तुर्क नेता के वंशजों ने अपने राज्य का तेजी से विस्तार किया। उनमें से एक सुल्तान मोहम्मद ने इस्तंबूल पर कब्जा करके उसे अपने साम्राज्य की राजधानी बना लिया। सुल्तान सुलेमान के जमाने में तुर्की साम्राज्य (जो आटोमन साम्राज्य के नाम से मशहूर है) पश्चिम में अल्जीरिया और पूर्व में इराक तक फैला हुआ था। मक्का-मदीना पर कब्जा होने पर इन्होंने अपने आप को खिलाफत के उत्तराधिकारी जाहिर कर दिया। मोटे तौर पर इस दावे को मुस्लिम समाज द्वारा मान्यता दे दी गयी थी। हालांकि इन तुर्की खलीफाओं के आदेश ईरान के शिया राज्य और मुगल साम्राज्य में कभी नहीं चले। मुगल साम्राज्य के पतन और ईरान का राज्य दुर्बल होने के बाद तुर्क साम्राज्य भी अवनति के रास्ते पर चल पड़ा था। उनके साम्राज्य के कई हिस्सों पर फ्रांस, इंग्लैण्ड, इटली आदि पश्चिमी देशों का प्रभुत्व स्थापित हो गया।

प्रथम महायुद्ध में चूंकि तुर्की जर्मनी के साथ था, इसलिए अंग्रेजों ने अरबों में आधुनिक राष्ट्रीयता की भावना जगाकर उन्हें विद्रोह के लिए प्रेरित किया। तुर्की साम्राज्य के बँटवारे की एक गुप्त योजना भी मित्र राष्ट्रों में बन चुकी थी। मुगल साम्राज्य के ह्रास काल में जिस तरह भारत में मुगल सम्राटों के प्रति साधारण लोगों की आस्था में कोई कमी नहीं आयी थी, उसी तरह तुर्की की अवनति के काल में मुसलमानों की, और खासकर भारतीय मुसलमानों की आस्था तुर्की साम्राज्य और खिलाफत के साथ जुड़ गयी थी। युद्धोत्तर काल में तुर्की की दुर्गति से भारतीय मुस्लिम समुदाय हिल उठा था। इनके धार्मिक नेताओं को पश्चिम एशिया के नए राजनीतिक प्रवाहों के बारे में न जानकारी थी, न अरब राष्ट्रीयता के तीव्र आवेग का अहसास। तुर्की के प्रति अंग्रेजों ने अपने वायदे तोड़े हैं और खिलाफत की पवित्र तथा ऐतिहासिक संस्था नष्ट हो रही है। यही बात उनके लिए असह्य हो उठी। इसी का सहारा देकर हिंदुस्तान में अली भाइयों के नेतृत्व में मुसलमान अत्यधिक उत्तेजित हो उठे थे। तुर्की गणराज्य बनने के बाद और कमाल अतातुर्क द्वारा खिलाफत की संस्था को ही समाप्त कर दिए जाने के बाद यह आंदोलन अपने आप समाप्त हो गया था। यही खिलाफत आंदोलन की पृष्ठभूमि है।

मगर इसी सदी में दो वर्ष और बीत गए। अखंड आंदोलन की कल्पना भी व्यावहारिक नहीं थी। चौरी-चौरा के बाद प्रत्यक्ष आंदोलन और सत्याग्रह वापस ले लिया गया। गांधीजी जेल चले गए। उनके अनुयायियों में दरार पड़ गयी। कुछ नेता कौंसिल-बहिष्कार के पक्ष में थे, कुछ कौंसिल में जाना चाहते थे। इसी वातावरण में स्वराज्य पार्टी का निर्माण हुआ। जिन्ना और मोतीलाल नेहरू कौंसिल में आपसी सहयोग के आधार पर कार्य करते थे। मगर 1925-26 में सांप्रदायिक वातावरण विषाक्त हो चुका था। दंगे और फसाद बढ़ रहे थे। स्वयं गांधीजी ने हिंदू-मुसलमान एकता का प्रयास छोड़ दिया था।

1927 में जब साइमन कमीशन की नियुक्ति हुई तो देश में क्षोभ की लहर उठ खड़ी हुई। कमीशन के बहिष्कार का नारा दिया गया। जहाँ-तहाँ उसके विरुद्ध विराट प्रदर्शन हुए। अब विभिन्न भारतीय दलों में एकता और समझौता करने का नया प्रयास किया गया। एक  सर्वदलीय सम्मेलन बुलाया गया और एक समिति बनाकर उसके हाथ में यह अधिकार सौंप दिया गया कि वह स्वतंत्र भारत के लिए ब्रिटिश साम्राज्य के अंतर्गत स्वराज्य के सिद्धांत के आधार पर एक संविधान का प्रारूप तैयार करें। संविधान के बाकी सभी अंगों के बारे में आपस में मतैक्य स्थापित करना विशेष मुश्किल नहीं था। लेकिन अल्पसंख्यकों के अधिकारों के बारे में मतभेद उत्पन्न हो गए। इन मतभेदों को मिटाने का प्रयास भी किया गया। आगाखां, फालजी हुसैन आदि मुसलमान नेताओं द्वारा विधायकों का सम्मेलन बुलाया गया। जिन्ना साहब को अगल-थलग करने की उन दिनों अंग्रेजों की नीति थी। विभिन्न मुस्लिम संस्थाओं की ओर से एक माँगपत्र सर्वदलीय सम्मेलन के सामने पेश किया गया। उसमें दो-तीन बातों को लेकर एक राय नहीं हो पायी। इसी सिलसिले में जिन्ना साहब ने एक 14सूत्री समझौते का आधार मुल्क के सामने प्रस्तुत किया। संक्षेप में ये सूत्र इस प्रकार हैं :

  1. प्रातिनिधिक संस्थाओं में मुसलमानों के प्रतिनिधि अलग मतदाता सूची के आधार                                पर अलग चुनाव क्षेत्रों में चुने जाएं, न कि संयुक्त मतदाता सूची से। यह व्यवस्था तब तक कायम रहे जब तक स्वयं मुसलमान इसको बदलना न चाहें।   
  2. मुस्लिम बहुमत वाले जितने प्रांत बन सकते हैं, उतने बनाए जाएं और स्वायत्तता के जितने अधिकार अन्य प्रांतों को दिए जाएं वे नव-निर्मित मुसलमान राज्यों को भी पूर्णरूपेण प्रदान किए जाएं। इसीलिए माँग उठी कि सिंध (जो कि तब बम्बई प्रांत का हिस्सा था) को बम्बई से अलग करके उसे स्वतंत्र प्रांत का दर्जा दिया जाए। यह माँग भी सामने आयी कि पश्चिमोत्तर सीमा प्रांत को एक स्वतंत्र प्रांत के रूप में न सिर्फ गठित किया जाए बल्कि उसे भी प्रांतीय स्वायत्तता के सारे अधिकार प्रदान किए जाएं।

3.बलूचिस्तान का जो हिस्सा अंग्रेजों के हाथ में है उसे कमिश्नर का इलाका न मानकर उसे भी एक स्वतंत्र भारत के रूप में गठित किया जाए, और उसमें प्रातिनिधिक सरकार बनायी जाए।

  1. चूंकि पंजाब और बंगाल में मुसलमानों का स्वल्प बहुमत था, उन्हें डर लगता था कि अल्पसंख्यकों को विशेष अधिकार देने के नाम पर यदि सिक्खों और हिंदुओं का प्रतिनिधित्व थोड़ा-सा भी बढ़ा दिया गया तो बहुसंख्यक मुसलमान अल्पसंख्यक के रूप में बदल जाएंगे और इस प्रकार पंजाब और बंगाल उनके प्रभाव से निकल जाएंगे। इसलिए उन्होंने चौथा उपाय यह सुझाया था कि अल्पसंख्यकों को विशेष अधिकार, विशेष प्रतिनिधित्व और विशेष संरक्षण देते समय किसी भी हालत में बहुमत को अल्पमत में परिवर्तित न किया जाए। यानी जो बहुमत वाले प्रांत हैं, चाहे मुस्लिम प्रांत हों या हिंदू प्रांत, उनको वैसे ही बरकरार रखा जाए और इस सिद्धांत के दायरे में जो भी विशेष अधिकार दिए जा सकते हैं, दिए जाएं।
  2. इस तरह मुस्लिम बहुमत वाले इलाकों में अपने बहुमत की रक्षा करने के बाद पाँचवाँ सुझाव यह दिया गया कि जिन प्रांतों में हिंदुओं की बहुसंख्या है, और मुसलमान अल्पसंख्या में हैं, उनमें पर्याप्त संरक्षण मिले, यानी उनकी जनसंख्या से अधिक प्रतिनिधित्व उन्हें दिया जाए। सिंध और पश्चिमोत्तर सीमावर्ती राज्यों में हिंदू और सिक्खों को उसी अनुपात में प्रतिनिधित्व देने के लिए वे राजी थे।
  3. केंद्रीय संसद के दोनों महागारों में मुसलमानों को एक-तिहाई प्रतिनिधित्व दिया जाए।  

इस पृष्ठभूमि में यह समझना बहुत आसान है कि जहाँ इंडियन नेशनल कांग्रेस और हिंदुओं के संगठन शक्तिशाली केंद्रीय सरकार की माँग करते थे और कहते थे कि शेष अधिकार भी इसी सरकार के हाथ में रहें, वहाँ मुस्लिम नेतृत्व हमेशा इस बात पर जोर देता था कि हम लोग संघ राज्य के चौखटे को मानने के लिए तैयार हैं बशर्ते संघ राज्य के पास सीमित अधिकार रहें। अधिक-से-अधिक अधिकार प्रांतों को दिए जाएं और जिन अधिकारों का उल्लेख नहीं किया गया है, यानी जो शेष अधिकार हैं वे भी प्रांतों के हाथों में रहें।

ये माँगें लगभग सभी मुसलमान नेताओं द्वारा की जा रही थीं। लेकिन कलकत्ता के इस सर्वदलीय सम्मेलन में दो-तीन बातों को लेकर मतभेद हो गए। जयकर-मुंजे ने कहा कि जिन्ना साहब कौन हैं? नतीजा हुआ कि यह समझौता 1928 में भी नहीं हो पाया। 1931 के गोलमेज सम्मेलन के समय भी मदनमोहन मालवीय आदि के विरोध के कारण गांधीजी ने मुसलमानों की माँगों को कबूल करने से इनकार कर दिया। कम्युनल अवार्ड के बारे में मुसलमान और मालवीय-अणे में तीव्र मतभेद हो गए। कांग्रेस ने बीच की भूमिका निभायी। जिन्ना साहब लगभग निवृत्त होकर इंग्लैण्ड चले गए।

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