राज्यसभा आखिर किसका सदन है?

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— शशि शेखर प्रसाद सिंह —

जकल भारत में राज्यसभा के द्वि-वार्षिक चुनाव की चर्चा जोरों पर है। जिन राज्यों से राज्यसभा सदस्यों का 6 वर्ष का कार्यकाल पूरा हो रहा है वहाँ उन रिक्त स्थानों के लिए चुनाव हो रहा है। राज्यसभा भारतीय द्वि-सदनी संसद का उच्च सदन है और इसे संसद का द्वितीय सदन भी कहा जाता है। संसद के उच्च सदन की उपयोगिता के विषय में ब्रिटिश राजनीतिक चिंतक जेएस मिल ने कहा था कि यह ऐसा सदन हो जो लोकप्रिय सदन की तुलना में जनमत के दबाव से मुक्त, स्वस्थ तथा गंभीर राजनीतिक चर्चा करे। सामान्यतः संघीय लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं में द्वि-सदनी विधायिका होती है जिसमें उच्च सदन संघ की इकाइयों अर्थात प्रांतों/राज्यों का सदन होता है और निम्न सदन जनता का सदन अर्थात लोकसभा/ प्रतिनिधि सभा या किसी अन्य नाम से हो सकता है।

भारत में संयुक्त राज्य अमेरिका या कई अन्य संघीय व्यवस्थाओं से अलग संविधान निर्माताओं ने राज्यसभा की संरचना में राज्यों की विधानसभा के द्वारा चुने गए प्रतिनिधियों के साथ-साथ राष्ट्रपति के द्वारा विज्ञान, कला, साहित्य या समाज सेवा के क्षेत्रों में विशिष्ट योगदान देनेवाले 12 व्यक्तियों को 6 वर्ष के लिए मनोनीत किये जाने का प्रावधान किया है जो राज्यों के प्रतिनिधि नहीं, संघीय सरकार के प्रतिनिधि जैसे होते हैं।

राज्यसभा कितना संघीय?

यह उच्च सदन कितना संघीय है और राज्यों के हितों का संसद में कितना प्रतिनिधित्व करता है? यह इसलिए विचारणीय विषय है क्योंकि राजनीतिक दल इस सदन के संघीय चरित्र और विशेषताओं के विपरीत आचरण करके राज्यसभा के संघीय सदन होने पर ही लगातार सवालिया निशान लगाते रहे हैं।

भारतीय संविधान के अनुच्छेद 80 के अनुसार राज्यसभा की अधिकतम संख्या 250 है जिसमें 238 राज्यों और संघशासित प्रदेशों के प्रतिनिधि हो सकते हैं जहाँ संविधान के द्वारा विधानसभा का प्रावधान है, जनता विधानसभा के प्रतिनिधियों को वयस्क मताधिकार के आधार पर चुनती है, जिसमें राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली और पुद्दुचेरी जैसे केंद्रशासित प्रदेश शामिल हैं। प्रधानमंत्री मोदी की संघीय सरकार ने संविधान के अनुच्छेद 370 को समाप्त करने के अपने राजनीतिक उदेश्य की पूर्ति के लिए न सिर्फ जम्मू और कश्मीर राज्य का विशेष दर्जा खत्म किया बल्कि पहली बार किसी भारतीय राज्य- जम्मू और कश्मीर- के अस्तित्व को समाप्त कर उसे दो केंद्रशासित प्रदेशों- जम्मू-कश्मीर तथा लद्दाख- में बाँटकर संविधान की संघीयता से खुलेआम खिलवाड़ किया।

इससे पहले संघशासित प्रदेशों को राज्य का दर्जा तो दिया गया था किंतु किसी राज्य को समाप्त कर उसे संघशासित प्रदेश में नहीं बदला गया था। आज जम्मू और कश्मीर का राज्य का दर्जा खत्म करने के कारण वहाँ कोई विधानसभा नहीं, फलतः राज्यसभा में 4 सदस्य होते थे किंतु फरवरी 2021कोई सदस्य नहीं। यह संघीय व्यवस्था और जनतंत्र दोनों पर हमला था।

राज्यों की समानता भी नहीं और निवास की अनिवार्यता भी नहीं

भारत के संविधान ने अनुच्छेद 1 के द्वारा भारत को राज्यों का संघ तो घोषित कर दिया किंतु संघीय व्यवस्था में इकाइयों ( राज्यों) की समानता के सिद्धांत के विपरीत राज्यों की जनसंख्या के आधार पर राज्यों को राज्यसभा में प्रतिनिधित्व दे दिया। संविधान की अनुसूची 4 में राज्यों और संघशासित प्रदेशों की राज्यसभा में सदस्य संख्या निर्धारित है। उत्तर प्रदेश सबसे अधिक जनसंख्या वाला राज्य होने के कारण सबसे अधिक सदस्य ( 31) राज्यसभा में भेजता है। संयुक्त राज्य अमेरिका, आस्ट्रेलिया, ब्राजील सहित दुनिया की अधिकांश संघीय व्यवस्थाओं में संसद के संघीय सदन में राज्यों की समानता का सिद्धांत अपनाया गया है। इससे लोकतांत्रिक व्यवस्था में संसद के दोनों सदनों में जनसंख्या के आधार पर प्रतिनिधित्व न होने से संसद में अधिक जनसंख्या वाले राज्यों का वर्चस्व नहीं होता है । परिणामतः संघीय लोकतांत्रिक व्यवस्था में लोक प्रतिनिधि और राज्य प्रतिनिधि के बीच में संतुलन बना रहता है।

संघीय व्यवस्था में दूसरी सामान्य आवश्यकता है कि राज्य के जन्मजात निवासी या एक निश्चित काल तक रहे निवासी संघीय सदन में राज्य का प्रतिनिधित्व करें ताकि राज्य के हितों का राज्यों के सदन में सही प्रतिनिधित्व हो सके। इसके विपरीत भारत में राज्यसभा में सदस्य होने के लिए राज्य का जन्मजात या निश्चित काल तक निवासी होने का कोई प्रावधान नहीं है अर्थात कोई भी व्यक्ति जिसकी उम्र तीस साल हो वह राज्यसभा के निर्वाचन में उम्मीदवार होने की योग्यता रखता है और जीतने पर राज्यसभा जैसे संसद के स्थायी सदन में 6 साल के लिए सदस्य हो जाता है।

राज्यसभा के संघीय स्वरूप को राजनीतिक दलों से खतरा

भारतीय जनतांत्रिक व्यवस्था में राजनीतिक दलों के लगातार बढ़ते प्रभाव, दलों में केंद्रीयता की निरंतर बढ़ती प्रवृत्ति, दलों की अलोकतांत्रिक कार्यप्रणाली तथा दलों में एकल नेता या परिवारवादी राजनीति के कारण राज्यसभा न तो सही अर्थों में संघीय सदन रह पाया है और न लोकतांत्रिक ही। सामान्यतः लोकसभा चुनाव में पराजित राजनीतिज्ञों को राजनीतिक दल राज्यसभा में राज्यों की विधानसभाओं से अपनी संख्या के बल पर निर्वाचित कर भेज देते हैं। इतना ही नहीं, इस बात का भी खयाल नहीं रखते कि क्या उस व्यक्ति का उस राज्य से कोई संबंध है भी या नहीं।

*कई बार तो राजनीतिक दल किसी पूँजीपति, उद्योगपति या धनकुबेरों के हाथों राज्यसभा की सदस्यता बेच देते हैं। ऐसा भी कई बार हुआ कि कोई बड़ा पूँजीपति किसी राज्य से राज्यसभा के लिए निर्दलीय उम्मीदवार के रूप नामांकन दाखिल करता है और राजनीतिक दलों के विधानसभा सदस्यों की करोड़ों में बोली लगाकर उसका मत चुपके से खरीद लेता है और चुनाव जीत जाता है। और तो और राज्यसभा का सदस्य होते हुए भी बैंकों के हजारों करोड़ रुपये लेकर देश से ही चम्पत हो जाता है। कर्नाटक के विजय माल्या जब नौ हजार करोड़ बैंकों का कर्ज लेकर देश से भाग गए थे तो वह राज्यसभा के निर्दलीय सदस्य थे।*

कटु सत्य तो ये है कि ऐसे धनकुबेर हर बार अलग-अलग राजनीतिक दल का समर्थन लेकर राज्यसभा में पहुँच जाते हैं। पहली बार 2002 में विजय माल्या को निर्दलीय उम्मीदवार के रूप में कांग्रेस का समर्थन मिला था और वे राज्यसभा सदस्य बने थे। दूसरी बार 2010 में कर्नाटक के देवेगौड़ा की पार्टी जनता दल (एस) ने अपना समर्थन दिया और माल्या की जीत को भारतीय जनता पार्टी के कुछ (16) विधानसभा सदस्यों ने सुनिश्चित किया था। ये अलग बात है कि जब विजय माल्या सरकारी बैंकों का 9000 करोड़ लेकर देश से भागे तो समर्थन देनेवाली किसी पार्टी ने कोई जिम्मेदारी नहीं ली!

घिनौना सच यह है कि ऐसे धनकुबेरों को राज्यसभा में भेजने में वामपंथी पार्टियों को छोड़कर सबने कमोबेश भागीदारी की है। इतना ही नही, हद तब हो जाती है जब राजनीतिक दल के ताकतवर नेता भ्रष्टाचार में लिप्त होने के कारण अदालतों में कानूनी सहायता के लिए ऐसे प्रभावशाली वकीलों को राज्यसभा में दल से उम्मीदवार बनाकर भेज देते हैं जिनका संबंध उस राज्य या यहाँ तक कि दल से भी नहीं होता है लेकिन उस दल के विधानसभा सदस्यों के मत से राज्यसभा में पहुँच जाते हैं।

अभी अभी सुप्रीम कोर्ट के प्रसिद्ध वकील कपिल सिब्बल कांग्रेस की सदस्यता त्याग कर अखिलेश यादव की समाजवादी पार्टी के समर्थन से उत्तर प्रदेश से राज्यसभा के चुनाव में उम्मीदवार बन बैठे हैं। उनका उत्तर प्रदेश से कोई संबंध नहीं है।

वैसे पहले भी लालू यादव की पार्टी आरजेडी के समर्थन से वे बिहार से 1998 में भी राज्यसभा के सदस्य रह चुके हैं। आरके आनंद जैसे सुप्रीम कोर्ट के नामी वकील भी भ्रष्ट नेताओं को अदालत में कानूनी सहायता देकर बचाने की कोशिश करते थे और कभी झारखंड से राज्यसभा के सदस्य रह चुके हैं। आरके आनंद का झारखंड से दूर दूर का रिश्ता नहीं था लेकिन राजनीतिक दलों के भ्रष्ट नेताओं से मधुर संबंध रखते थे और उनके लिए कानूनी कवच बनते थे। हरियाणा के पूँजीपति प्रेमचंद गुप्ता झारखंड से लेकर बिहार से लालू यादव की पार्टी आरजेडी के समर्थन से मजे से राज्यसभा में विराजमान रहे हैं जबकि झारखंड या बिहार की जनता के दुख-दर्द से उनका कोई वास्ता नहीं रहा। धनकुबेर होना और सिर्फ आरजेडी का कोषाध्यक्ष होना उनकी राज्यसभा में सदस्यता की गारंटी रही है। ऐसे अनेकों धनकुबेरों के नाम गिनाये जा सकते हैं जो किसी न किसी दल से, अपनी आर्थिक शक्ति के बलबूते, राज्यसभा में सदस्य बनते रहे हैं और राज्य के हितों के बजाय अपने आर्थिक हितों को साधते रहे हैं।

पराजित नेताओं की शरणस्थली

राज्यसभा में पिछले दरवाजे से पहुँचनेवाले नेताओं की कमी नहीं। और तो और कभी डॉ मनमोहन सिंह लोकसभा का चुनाव हार गए थे किंतु बाद में असम राज्य से राज्यसभा में कांग्रेस के कई बार सदस्य रहे। भला सोचिए, डॉ मनमोहन सिंह उत्तर-पूर्व के असम राज्य के हितों के लिए संसद के संघीय सदन में कितनी उपयोगिता रखते थे? भारतीय जनता पार्टी के नेता अरुण जेटली गुजरात से तीन बार राज्यसभा के सदस्य रहे लेकिन गुजरात राज्य से उनका कोई लेना देना नहीं था! 2014 में पंजाब से लोकसभा का चुनाव हारने के बाद भी राज्यसभा के सदस्य के नाते मोदी मंत्रिमंडल में वित्तमंत्री तक रहे।

यद्यपि भारत में ऐसे भी नेता रहे हैं जिन्होंने लोकसभा चुनाव हारने के बाद राज्यसभा में जाने से इनकार कर दिया। प्रसिद्ध समाजवादी नेता मधु लिमये उन्हीं नेताओं में से एक थे।

यहाँ यह भी याद रहे कि जो राज्य से बाहर का व्यक्ति किसी भी दल के प्रभावी नेता होने की वजह से या निर्दलीय होकर किसी दल के समर्थन से या दौलत की ताकत से विधायकों को खरीद कर राज्यसभा सदस्य बनते हैं वो राज्यसभा में उस राज्य के संघीय हितों की चिंता करेंगे या अपने राजनीतिक आकाओं को खुश रखने की कोशिश करेंगे। इतना ही नहीं, राज्यसभा सदस्य होने के नाते जो उस राज्य के लिए संसदीय कोष मिलता है उसका बिना राज्य की स्थानीय समस्याओं से परिचित हुए कैसे सदुपयोग कर पाएंगे।

राज्यसभा की संरचना में व्यापक परिवर्तन जरूरी

वस्तुतः समय आ गया है कि राजनीतिक दलों के द्वारा राज्यसभा को धनकुबेरों का आरामगाह बनाने तथा लोकसभा/विधानसभा चुनाव में जनता द्वारा ठुकराए नेताओं का राज्यसभा को शरणस्थली बनाने से रोकने के लिए संविधान में आवश्यक संशोधन से लेकर जनप्रतिनिधित्व कानून में यथाशीघ्र परिवर्तन करने जैसे चुनाव सुधारों की मांग हो और जनांदोलन हो क्योंकि एक तरफ संघीय व्यवस्था में बढ़ती केंद्रीयता तथा दूसरी ओर राजनीतिक दलों में चंद नेताओं या परिवारों के वर्चस्व की जगह उम्मीदवारों के चयन में विकेंद्रीयता व पारदर्शिता लायी जाए। यह तो तय है कि राजनीतिक दलों में लोकतांत्रिक कार्यप्रणाली और लोक दायित्व को विकसित किये बिना कोई चुनाव सुधार सफल नहीं हो सकता।

राज्यसभा में सदस्यता के लिए उस राज्य का निवासी होने की अनिवार्य शर्त लगाई जाए, राज्यसभा में राष्ट्रपति के द्वारा मनोनीत सदस्यों के प्रावधान को समाप्त किया जाय तथा राज्यसभा में राज्यों की समानता के सिद्धांत को अपनाने के लिए आवश्यक संशोधन किया जाए ताकि भारतीय संसद के उच्च सदन- राज्यसभा- को वास्तविक अर्थ में संघीय बनाया जा सके।

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