हमने पीछे पढ़ा है कि कांग्रेस के दो नौजवान नेता- जवाहरलाल नेहरू और सुभाषचंद्र बोस– समाजवादी विचारधारा से प्रभावित थे, फलतः वे कांग्रेस की नीतियों और कार्यक्रमों में समाजवाद का पुट लाने का प्रयास करते थे। 1930 और 1934 के सामूहिक सत्याग्रह आंदोलनों से उत्पन्न नयी और व्यापक चेतना के साथ नए विचार भी आए। कुछ नौजवान कार्ल मार्क्स के विचारों से काफी प्रभावित हुए। इन नौजवानों में आदर्शवाद, त्याग और हिम्मत की कमी नहीं थी, लेकिन उनकी आँखों पर मात्र ‘इतिहास की आर्थिक उत्पत्ति या विश्लेषण’ का पर्दा पड़ा था। इस कारण भारतीय समाज की विशेषताओं को वे नहीं समझ सके। वे भूल गए कि यहां जो सामाजिक व्यवस्था है वह वर्गों पर आधारित न होकर जन्म और जाति पर आधारित है। ऐसी समाज व्यवस्था में आंतरिक अभिसरण (एक जाति से दूसरी जाति में चले जाने की स्वाभाविक प्रक्रिया) बिल्कुल नहीं होता जबकि वर्ग-व्यवस्था में ऐसा अभिसरण निहित है, यानी अवसर और गुणवत्ता के आधार पर एक व्यक्ति अथवा परिवार एक वर्ग से दूसरे वर्ग में प्रवेश कर सकता है। परंतु जन्म के आधार पर निर्धारित वर्ण और जाति व्यवस्था के अंदर इस तरह की कोई अभिसरण की गुंजायश नहीं रहती और इसी बात को ये कार्ल मार्क्स से प्रभावित नौजवान समझ नहीं पाए।
भारत जैसी वर्ण-व्यवस्था या जाति व्यवस्था किसी अन्य देश में नहीं पायी जाती है। लेकिन हाँ, इंग्लैण्ड में वर्ग-व्यवस्था जरूर कुछ जमने लगी थी, कड़ा रूप धारण करने लगी थी, जो निम्न उदाहरण से स्पष्ट है। जी.आर. आस्ट कहता है : इस युग में हरेक व्यक्ति, चाहे वह सरदार हो, धर्मगुरु हो, कामगार हो या व्यापारी हो, का कर्तव्य है कि वह अपने-अपने परंपरागत कार्य का अध्ययन करे और उसके लिए परिश्रम करता रहे। उसकी जो स्थिति है उससे उसे प्रसन्न रहना चाहिए और दूसरों के कार्य में या दूसरों की गुह्य बातों में उसे दखल नहीं देना चाहिए। हरेक का सामाजिक दर्जा और उसका सामाजिक कर्तव्य ईश्वरप्रदत्त है, ईश्वर नियत है और यह हमेशा स्थिर तथा अपरिवर्तनीय रहना चाहिए। जिस तरह शरीर के विशिष्ट अवयव हैं और उनके स्थान और कार्यों में अदल-बदल नहीं हो सकता, उसी तरह समाज रूपी शरीर के अवयवों की स्थिति है। (जी.आर. आस्ट- लिटरेचर एण्ड पूलपिट इन मीडिएवल इंग्लैण्ड, 1961)
इस उदाहरण से ऋग्वेद के समाज-पुरुष के वर्णन की याद आती है। इसके अनुसार चारों वर्णों (क्षत्रिय, ब्राह्मण, वैश्व और शूद्र) का शरीर के विभिन्न अवयवों से संबंध जोड़ा गया है, अथवा तुलना की गयी है। फर्क इतना ही है कि हिंदुस्तान में जन्माधिष्ठित एवं वंश-परंपरागत जाति व्यवस्था विकसित हो गयी और इंग्लैण्ड की खुशनसीबी से यह बात वहां केवल कागज पर रह गयी। वहां समाज के विभिन्न वर्गों में परस्पर अभिसरण कभी पूर्णतया बंद नहीं हुआ। एक वर्ग से दूसरे वर्ग में रोटी-बेटी का लेन-देन होता रहा। बल्कि औद्योगिक क्रांति ने तो जो थोड़ी-बहुत दूरी विभिन्न वर्गों के बीच रह गई थी, उसे भी मिटा दिया। यूरोप के अन्य देशों की तुलना में निश्चित रूप से इंग्लैण्ड में वर्गभेद ज्यादा स्थिर और वंश-परंपरा पर आधारित था। लेकिन इंग्लैण्ड की वर्ग-व्यवस्था कभी पूर्णतया जाति-व्यवस्था में परिणत नहीं हो पायी।
दुर्भाग्य से डॉ. आंबेडकर जैसे नेताओं की पीड़ा और व्यवस्था समाजवादी विचारधारा से प्रभावित जवाहरलाल और सुभाषचंद्र नहीं समझ पाये। गांधीजी का अनशन और हरिजन उद्धार का आंदोलन जवाहरलाल को नहीं भाया। तिलकवादी लोगों की तरह वे भी समझते थे कि गांधीजी साधारण जनता का ध्यान एक गौण और गैर-राजनीतिक प्रश्न उठाकर स्वराज्य के मुख्य राजनैतिक प्रश्न से विचलित कर रहे हैं। जवाहरलाल आदि की गरीबों और शोषित के प्रति गाढ़ी सहानुभूति तो थी, लेकिन इस शोषण के सामाजिक पहलू को वे नहीं समझ पा रहे थे बल्कि शोषण का आर्थिक पहलू ही उनकी नजर में था। वे सोचते थे कि समाजवादी समाज की रचना हो जाने पर सामाजिक शोषण और जुल्म अपने आप खत्म हो जाएगा।
डॉ. भीमराव आंबेडकर शोषितों और पिछड़ों के नेता के रूप में उन दिनों विख्यात थे। शोषितों और पिछड़ों या कहिए अस्पृश्यों की उस समय क्या दशा थी, इसकी जानकारी हमें डॉ. भीमराव आंबेडकर की जीवनी पढ़कर मिलती है। अतः उनकी तत्कालीन दशा जानने के लिए डॉ. आंबेडकर के बारे में थोड़ी–सी जानकारी प्राप्त कर लेना यहां अवांछनीय नहीं होगा।
डॉ. आंबेडकर एक हरिजन परिवार में जनमे थे। उनकी जाति को महाराष्ट्र में महार कहा जाता था। (आज इस जाति के अधिकांश सदस्य बौद्ध धर्म ग्रहण कर चुके हैं और उन्हें अब नव-बौद्ध कहकर पुकारा जाता है)। डॉ. आंबेडकर को बड़ौदा के महाराज सैयाजी राव ने उच्च स्तरीय पढ़ाई हेतु अमरीका भेजा था। वहां उन्होंने कोलंबिया यूनिवर्सिटी से अर्थशास्त्र में पीएच.डी. की डिग्री हासिल की। उसके बाद वे इंग्लैण्ड चले गए जहां उन्होंने लंदन विश्वविद्यालय से डी.एस.सी. की उपाधि प्राप्त की। ‘ग्रेज इन’ से वे ‘बार-एट-ला’ बन गये। सैयाजी राव ने उन्हें अमरीका इसलिए भेजा था कि वे हिंदुस्तान लौटकर कम से कम दस साल बड़ौदा सरकार की खिदमत करेंगे, सेवा करेंगे।
जब डॉ. आंबेडकर अपनी उच्च शिक्षा पूरी करके अमरीका से भारत लौटे तो बड़ौदा सरकार ने उन्हें बुला लिया। महराजा का आदेश होते हुए भी कोई सवर्ण हिंदू उन्हें लेने स्टेशन नहीं पहुंचा। एक हरिजन और अस्पृश्य का स्वागत करने कौन स्टेशन जाता? उन्होंने ऑफिस में काम शुरू कर दिया लेकिन चपरासी उनके ऑफिस के कागजात और फाइलें देना भी पाप समझते थे। वे दूर से फाइलों के बंडल और कागजात उनकी टेबल पर पटक देते थे। डॉ. आंबेडकर जब कार्यालय से जाने के लिए निकलते थे तो फर्श पर बिछे कालीन और दरी लपेट लिये जाते थे ताकि उनके स्पर्श से दरी-कालीन अपवित्र न हो जाएं। दफ्तर में उन्हें पीने के लिए पानी नहीं मिलता था तब वे मजबूर होकर सार्वजनिक वाचनालय का आश्रय लेते थे। चूंकि उनकी टेबल पर कोई काम नहीं होता था इसलिए उनका वरिष्ठ अधिकारी उन्हें वाचनालय चले जाने देता था।
डॉ. आंबेडकर को कोई भी सवर्ण अपने घर में रहने के लिए जगह देने को तैयार नहीं था। वे पारसी हॉस्टल में गुप्त रूप से रहा करते थे। इस तरह के अपमानजनक जीवन की चरम सीमा उस दिन हुई जब कुछ पारसी डंडे लेकर आंबेडकर के पास आ गए और उनसे पूछने लगे कि वे कौन हैं? उन्होंने कहा कि मैं हिंदू, पारसी लोगों ने कहा कि हम जानते हैं कि तुम एक तुच्छ अस्पृश्य हो। उन्होंने डॉ. आंबेडकर को धमकाया। उन्होंने कहा कि वे यहां रहकर उनके समाज को अपवित्र और अपुनीत क्यों कर रहे हैं? उन्होंने उन्हें तत्काल हॉस्टल छोड़कर चले जाने के लिए कहा। आंबेडकर ने किसी तरह अपने को नियंत्रित किया और उनसे आठ घंटे की मोहलत मांगी। शहर में कोई हिंदू, कोई मुसलमान ऐसा नहीं था जो उनको आश्रय देता। डॉ. आंबेडकर ने तब महाराजा को सूचित किया। महाराजा ने दीवान से कहा तो दीवान ने जवाब दिया कि वह इस मामले में कुछ नहीं कर सकता। अंत में वे थके-भूखे एक पेड़ के नीचे बैठ गए और आंसू बहाने लगे। बाद में डॉ. आंबेडकर ने इन सब बातों का जिक्र 1 मई 1936 की अपनी ‘जनता’ नाम की पत्रिका में किया।
डॉ. आंबेडकर कहते हैं कि उस समय मेरे लिए जमीन ही बिछौना था और आसमान छप्पर। विद्वत्ता में जो अपने समकालीन किसी भी विद्वान से कम नहीं थे, उनको इस सामाजिक बुराई के चलते इस तरह का असह्य अपमान सहना पड़ा था। इससे यह स्पष्ट होता है कि हिंदू समाज अस्पृश्यों के साथ किस तरह का व्यवहार उस समय करता था। और यह भी कौन कह सकता है कि आज भी इस तरह का व्यवहार उनके साथ नहीं होता?
क्या इस तरह का अपमान सहने के बाद हिंदू समाज और हिंदू सभ्यता के प्रति किसी के मन में जरा भी आस्था जीवित रह सकती है? बाद में आगे चलकर जब आंबेडकर दलित समाज को संगठित करने के काम में जुट गए तो उन्होंने हिंदू संगठन के समर्थकों के बारे में कहा कि “मुसलमानों के दबाव के कारण अब वे अस्पृश्यों और हरिजनों के प्रति कुछ मीठी बात करने लगे हैं। लेकिन हरिजनों को उन पर विश्वास नहीं करना चाहिए।” उन्होंने अपना ताजा अनुभव उन्हें बताते हुए कहा कि हाल में ही बंबई के एक ब्राह्मण होटल वाले ने उनको कप में चाय देने से इनकार कर दिया था और कहा कि अगर चाय पीनी है तो गिलास में पीनी पड़ेगी। उन्होंने अपने अनुयायियों से कहा कि मात्र शिक्षित हो जाने से ही उनकी समस्याएं हल नहीं होनेवाली हैं, उन्हें सामाजिक अन्यायों के खिलाफ भी लड़ाई लड़नी पड़ेगी।”
सवर्ण हिंदुओं में ‘मनुस्मृति’ का अत्यधिक महत्त्व है। लेकिन डॉ. आंबेडकर उसे सामाजिक विषमता और गैर-बराबरी का प्रतीक समझते थे। इसलिए 25 दिसंबर, 1927 को एक प्रस्ताव द्वारा उन्होंने उसे जलाने का निश्चय किया और ‘मनुस्मृति’ की अग्नि में आहुति दे दी। उनके इस कृत्य से सारे देश में क्षोभ पैदा हो गया जिसके फलस्वरूप सवर्ण लोग उनसे घृणा करने लगे। लेकिन डॉ. आंबेडकर ने इसकी जरा भी परवाह नहीं की।