— रितु कौशिक —
कुछ इतिहासकारों का मानना है कि हड़प्पा सभ्यता मूल रूप से कृषिप्रधान व मातृसत्तात्मक सभ्यता थी। यूरोप की तरह भारत में भी आर्यों के आगमन के बाद हमारा समाज पितृसतात्मक संस्कृति की ओर आगे बढ़ता गया। आइए देखते हैं कि जब भारत में आर्यों का आगमन हुआ उस समय हिंदुस्तान किस दौर से गुजर रहा था।
जब खुद को आर्य कहनेवाले स्टेपी के लोग हिंदुस्तान पहुंचे तो उनका सामना एक ऐसी सभ्यता से हुआ जिसके पास पहले से ही अपने धार्मिक विश्वास, रीति–रिवाज तथा भाषाएँ थीं और यह लंबे सूखे की वजह से सामने आ रहे विनाश के साथ धीरे-धीरे अपना तालमेल बैठा रही थी और वह सभ्यता थी प्राचीन दुनिया की सबसे प्रारंभिक, सबसे बड़ी और सबसे असाधारण सभ्यता, हड़प्पा सभ्यता जो ईसापूर्व 2600 के आसपास विकसित हुई थी।
हड़प्पा सभ्यता
यह भी हमारे लिए गर्व करने का विषय है कि हिंदुस्तानी बहुत पहले ही पृथ्वी की सबसे बड़ी आबादियों में से एक आबादी बन चुके थे तथा एक कृषि क्रांति और फिर एक ऐसी नगरीय क्रांति का नेतृत्व कर चुके थे जो अपने समय की सबसे बड़ी सभ्यता की रचना का कारण बनी थी। यह कहना एकदम सटीक होगा कि भारत के जिस रूप को आज हम जानते हैं उसकी नींव हड़प्पा सभ्यता के कालखंड के दौरान ही पड़ चुकी थी।
हड़प्पा सभ्यता दो बड़ी नदी घाटियों के समानांतर विशाल क्षेत्र में फैली थी। एक नदी थी सिंधु, जो आज भी बह रही है, और दूसरी थी घग्गर हकरा, जो एक समय के बाद सूख गई थी। अपनी पराकाष्ठा के युग में इस सभ्यता के दायरे में उत्तर पूर्वी पाकिस्तान और पश्चिमी भारत के मुख्यतः पंजाब, हरियाणा, उत्तरप्रदेश और गुजरात शामिल थे। दुनिया भर के विशेषज्ञों के लगभग एक सदी से जारी एकाग्र प्रयत्नों के बावजूद हड़प्पा की लिपि अभी तक पढ़ी नहीं जा सकी है इसीलिए हमारे पास हड़प्पा की नगरीय सभ्यता के भीतर क्रियाशील रही विचारधारा और शक्ति संबंधों का कोई प्रत्यक्ष लिखित साक्ष्य नहीं है। लेकिन वे लोग जो मुहरों में अंकित चित्रकारी, डिजाइन, स्थापत्य और मूर्तिशिल्प छोड़ गए हैं उनसे हमें उनकी विचारधारा की झलकियाँ और उनकी शक्ति संरचना के बारे में सुराग मिलते हैं।
हड़प्पा सभ्यता में महलों और आडंबरपूर्ण कब्रों का अभाव एक कम गैरबराबरी वाले समाज का संकेत देता है। लेकिन ज्यादातर इतिहासकार मानते हैं कि हड़प्पा की सभ्यता के विभिन्न नगर–राज्यों को संचालित करने का काम कोई एक शक्तिशाली राजा नहीं करता था बल्कि एक उच्चवर्गीय लोगों का समूह इस पूरी नगर व्यवस्था को संचालित करता था।
हड़प्पावासियों ने अपने पश्चिम में स्थित सभ्यताओं की तरह राजाओं और उनके पराक्रम का महिमामंडन करनेवाली कोई मूर्तियां स्थापित नहीं की थीं और न ही हड़प्पा में किसी मुखिया के पिरामिड हैं। हड़प्पा सभ्यता के लोग बड़े पैमाने पर आभूषणों का प्रयोग करते थे जिनमें कंगन प्रमुख थे। यह एक शहरी सभ्यता थी जिसमें गांव की तुलना में सैकड़ों गुना ज्यादा आबादी रह रही थी। हस्तशिल्प, यातायात, अपने काम में पूरी तरह समर्पित विशेषज्ञ, कृषक वर्ग के अतिरिक्त उत्पादनों का संचय करनेवाला शासक वर्ग, विशाल सार्वजनिक इमारतें, लेखन प्रणाली, विदेश व्यापार, मोहरें आदि इस सभ्यता को एक विशेष शहरी सभ्यता के रूप में दर्शाते हैं। ईसापूर्व 2600 से 1900 के आसपास यह सभ्यता अपने विकास की पराकाष्ठा पर थी लेकिन उसके बाद धीरे-धीरे इस सभ्यता का पतन होना शुरू हो गया था।
हड़प्पा सभ्यता में एक चीज थी जो बहुत ही अनोखी और महत्त्वपूर्ण थी, जिसके कारण सचमुच में ही हमें हड़प्पा सभ्यता के लोगों को अपना पूर्वज कहने पर गर्व होना चाहिए और वह थी हड़प्पा सभ्यता में ऐसी चीजों का अभाव होना जो मनुष्यों के बीच हिंसा को दर्शाती हों। मनुष्य के साथ मनुष्य की हिंसा को दर्शानेवाली चीजों की गैर-मौजूदगी, कुल्हाड़ी तथा तलवारों जैसे युद्ध के समय इस्तेमाल होनेवाली चीजों की गैर-मौजूदगी से भी जाहिर होती है।
लेकिन अब सवाल यह भी उठ सकता है कि हड़प्पा सभ्यता का निर्माण करनेवाले ये लोग कौन थे। क्या अचानक से हड़प्पा सभ्यता जैसी विशालतम सभ्यता अस्तित्व में आ गयी जो विश्व की अपने समय की सबसे विशालतम सभ्यता थी। नहीं, ऐसा नहीं हुआ। शिकारी और संग्रहकर्ता से सभ्य जीवन की तरफ जाने में कृषि ने एक महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा की है। कोई भी सभ्यता कृषि के दौर से गुजरे बिना सभ्यता नहीं बन सकती। यही वह कड़ी है जो शिकारी संग्रहकर्ताओं के जीवन और हड़प्पा सभ्यता के सभ्य जीवन को जोड़ती है।
दक्षिण एशिया में कृषि की शुरुआत मेहरगढ़ में हुई थी। जो वर्तमान पाकिस्तान के बलूचिस्तान में स्थित है। यह ईसापूर्व 7000 और ईसापूर्व 2600 के बीच लगभग 4400 वर्षों तक आबाद रहा था। पुरातात्विक अध्ययनों के अनुसार मेहरगढ़ ने ही हड़प्पा सभ्यता की बुनियाद रखी थी। मेहरगढ़ हड़प्पा सभ्यता के पहले की सभ्यता थी। लेकिन पुरातत्त्वविदों के अनुसार मेहरगढ़ ईसापूर्व 9700 के आसपास के समय तक हिमानी युग की वजह से रेगिस्ताननुमा इलाका था। इसलिए जो भी कोई लोग मेहरगढ़ में ईसापूर्व 7000 के आसपास अपनी बसावट के साक्ष्य छोड़ कर गए हैं वे लोग उसके कुछ हजार साल पहले से वहां रह रहे हों उसकी संभावना नहीं है। तो अब सवाल यह उठता है कि मेहरगढ़ के लोग कहां से आए थे? इसके लिए हमें यह देखना होगा कि मेहरगढ़ से पहले वह कौन सा क्षेत्र था जहां उन फसलों की खेती की जाती थी जिनके साक्ष्य हमें मेहरगढ़ में मिले हैं।
इतिहासकार जारीज का कहना है कि मेहरगढ़ की कृषि व्यवस्था तथा रहन-सहन का तरीका मेसोपोटामिया के आसपास के क्षेत्रों से मेल खाता है। इसीलिए हम निष्कर्ष के तौर पर कह सकते हैं कि मेहरगढ़ के नवपाषाण युग और मेसोपोटामियाई नवपाषाण युग के बीच करीबी रिश्ता था। मेसोपोटामिया के आसपास के क्षेत्रों तथा ईरान के कुछ क्षेत्रों में कृषि के साक्ष्य लगभग 8500 वर्ष पुराने और पशुपालन के साक्ष्य 7900 वर्ष पुराने हैं। इसीलिए स्पष्ट है कि प्रवाह ईरान के जैग्रोस से मेहरगढ़ की तरफ हुआ था। इस बात की पुष्टि डीएनए साक्ष्य से भी होती है।
डीएनए शोध दर्शाता है कि हड़प्पावासियों ने ईरानी खेतिहरों की वंशावली को समाहित किया हुआ था। इस बात से हम निष्कर्ष निकाल सकते हैं कि हड़प्पा सभ्यता के लोग ईरान की जैग्रोसपर्वत श्रृंखलाओं से आए लोगों और प्रथम भारतीयों के वंशजों की मिश्रित संतान थे लेकिन यह मिश्रण हड़प्पा सभ्यता के प्रथम नगरों के निर्माण के हजारों साल पहले हुआ था।
हड़प्पा सभ्यता की भाषा
अभी तक हड़प्पा सभ्यता की भाषा को पढ़ा नहीं जा सका है। लेकिन जैसे-जैसे आनुवांशिक साक्ष्य और पुरातात्विक साक्ष्य यह निर्धारित करते हैं कि मेसोपोटामिया की पूर्वी सरहद के नवपाषाणयुगीन स्थलों और सिंधु घाटी के पश्चिमी सीमांतों के बीच करीबी रिश्ता था। यह बात स्पष्ट है कि जग्रोस वासियों तथा हड़प्पा सभ्यता के बीच रिश्ता उसी समय से ही चला आ रहा था जब मेहरगढ़ में कृषि की शुरुआत हो रही थी। यह चीज हमें उन दोनों क्षेत्रों को जोड़नेवाले उतने ही महत्त्वपूर्ण तीसरे साक्ष्य की तरफ ले जाती है और यह साक्ष्य है भाषा।
प्राचीन डीएनए अध्ययन कहता है कि जगरोसियाई आबादी और इस महाद्वीप के प्रथम भारतीयों के बीच मिश्रण हुआ था। यह अध्ययन इस मिश्रण की ऐसी किसी कालावधि का उल्लेख नहीं करता जो प्राचीनतम रही हो लेकिन हम जानते हैं यह काल ईसापूर्व 7000 और ईसापूर्व 3000 के बीच का कोई कालखंड होगा। और इसी समय के दौरान ही मेसोपोटामियाई भाषाओं में से किसी भाषा के दक्षिण एशिया में लाए जाने की संभावना भी बनती है।
मेसोपोटामिया की सभ्यता नामक पद अपने दायरे में किसी एक राज्य या साम्राज्य को नहीं बल्कि उन बहुत सारी बादशाहतों, नगर राज्यों और साम्राज्यों को समेटता है जो हजारों सालों तक कायम रही थी।
बहुत सी मेसोपोटामियाई भाषाएं क्युनिफॉर्म लिपि में तब तक लिखी जाती रही थीं जब तक कि यह लिपि ईसा की आरंभिक सदियों में चलन से बाहर नहीं हो गई थी। जो भाषाएं क्युनिफॉर्म का इस्तेमाल करते हुए लिखी जाती थीं उनमें सुमेरियाई, एलेमाइट, हैतिक, hurriyai, yurartiyai, जैसी अलग-अलग भाषाएं अक्कड़ीयाई, अब्लास्ट और armorite और सामी जैसी Indo-European भाषाएं शामिल हैं। यह सारी भाषाएं बहुत पहले विलुप्त हो चुकी हैं और आज कहीं भी नहीं बोली जाती हैं।
इसीलिए पुरातात्विक और आनुवांशिक साक्ष्यों के आधार पर हम जो सर्वश्रेष्ठ अनुमान लगा सकते हैं, वह यही है कि दक्षिण या मध्य जग्रोस के मूल Elamite या उससे संबंधित भाषा बोलनेवाले लोग ईसापूर्व 7000 के बाद कभी दक्षिण एशिया आए, प्रथम हिंदुस्तानियों के साथ घुले-मिले और इस नई मिश्रित आबादी ने हिंदुस्तान के उत्तर पश्चिमी क्षेत्र में नई कृषि क्रांति की चिनगारी फूँकी और अगले कुछ हजार सालों में हड़प्पा सभ्यता का निर्माण किया।
द्रविड़ भाषाओं में विशेषता रखनेवाले दो भाषाशास्त्रियों प्रोफेसर फ्रैंकलीन साउथवर्थ और डॉ. डेविड डब्लू कल्पन द्वारा साउथ एशिया द्रविडियन लिंग्विस्टिक हिस्ट्री सिस्टम नाम से लिखित 2013 में प्रकाशित आलेख में मूल द्रविड़ के इतिहास पर रोशनी डालते हुए यह दिखाया है कि पुरानी एलेमाइट मूल द्रविड़ से मिलती-जुलती है। इन वैज्ञानिकों के द्वारा प्रस्तुत मूल द्रविड़ शब्दावलियों के विश्लेषण से हमें यह पता चलता है कि इतिहास के एक विशेष दौर में आकर मूल जैगरोसीआई भाषी और मूल द्राविड़ भाषी अलग हुए थे। जब भेड़ और बकरी जैसे जानवरों को पालतू बनाया गया था और कृषि के आरंभिक रूपों की शुरुआत हुई थी तब इन दोनों भाषाओं में पालतू पशुओं के लिए उपयुक्त शब्दावली और अनाज को भूसे से अलग करने की प्रक्रिया के लिए उपयुक्त शब्दावली एक ही थी। अर्थात् अलगाव इसके बाद हुआ था। अब यह आश्चर्य की बात नहीं कि हड़प्पा की लिपि को समझने की ज्यादातर कोशिशों ने यह मान लिया है कि इस लिपि में निहित भाषा द्रविड़ या द्रविड़ की बिल्कुल नजदीकी भाषा थी।
अब सवाल यह उठता है कि अगर हड़प्पा के लोगों की भाषा मूल द्रविड़ थी तो यह उत्तर पश्चिम भारत से दक्षिण भारत कब पहुंची। सबसे ज्यादा आम धारणा यह है कि यह ईसापूर्व 2000 के उपरांत कभी इस सभ्यता का पतन होने के बाद और उत्तर पश्चिम भारत में इंडो-यूरोपीयन भाषाएं बोलनेवालों या आर्यों के आने के बाद हुआ था। लेकिन भाषाविदों का मानना है कि शायद ईसापूर्व 2600 में परिपक्व हड़प्पा कालखंड के शुरू होने के पहले ही द्रविड़ भाषा दक्षिण भारत तक पहुंच चुकी थी। यही वह समय है जिसके आसपास हम दक्षिण भारत में उत्तरी कर्नाटक में चरवाहागीरी का पहला साक्ष्य देखते हैं। संभव है कि दक्षिण भारत में द्रविड़ भाषाएं लानेवाले लोग हड़प्पा सभ्यता के नागरिक नहीं बल्कि चरवाहे रहे हों जैसा कि बलूचिस्तान के ब्राहुई हैं।
जैसा कि हमने पहले देखा, जो लोग जग्रोस क्षेत्र से दक्षिण एशिया आए थे, वे संभवतः पूर्ण कृषक होने की बजाय गड़रिये थे और जहां उनमें से कुछ लोग किसानों के रूप में टिक कर रहने लग गए, जबकि दूसरे कुछ लोग चरवाहे बने रहे। इस बात की संभावना है कि इनमें से कुछ चरवाहे मवेशियों और बकरियों को दक्षिण भारत लेकर आए हों और वही लोग द्रविड़ भाषा को भी यहां लानेवालों में प्रथम रहे हों।
अगर यह आकलन सही है तो यह संभावना है कि लगभग एक हजार साल बाद हड़प्पा के नागरिकों के संभावित आगमन ने दक्षिण भारत में द्रविड़ भाषा की मौजूदगी की बुनियाद का इस्तेमाल करते हुए विकास किया होगा। द्रविड़ भाषा के बदलते स्वरूपों की वजह से ही आज बोली जानेवाली द्रविड़ भाषा और हड़प्पा सभ्यता की भाषा में इतना अंतर है कि अब हड़प्पा की भाषा को समझना मुश्किल हो गया है।
हड़प्पा सभ्यता का पतन
हड़प्पा सभ्यता के पतन के कारणों पर नजर डालने पर पता चलता है कि इस विशाल सभ्यता के पतन का कोई एक कारण नहीं था बल्कि बहुत से कारण रहे होंगे जिन्होंने हड़प्पा सभ्यता के पतन भूमिका निभाई।
पुरातात्विक खोजों से इस बात की संभावना ज्यादा दर्शाई जा रही है कि हो सकता है महासागर और वातावरण में आए बदलावों की वजह से भीषण सूखा पड़ा होगा जिसके कारण मेसोपोटामिया के साथ होनेवाला व्यापार नष्ट हो गया और परिणामस्वरूप सार्वभौम मुहरों तथा लिपि जैसे उनके सत्ता और वाणिज्य के प्रतीक लुप्त हो गए। इस जलवायु परिवर्तन के कारण हड़प्पा के लोगों ने उत्तरी पंजाब, हरियाणा और उत्तर प्रदेश के मानसूनी नमी वाले क्षेत्रों की ओर पलायन करना शुरू कर दिया था। लेकिन महत्त्वपूर्ण बात यह है कि 1900 ईसापूर्व के आसपास भले ही हड़प्पा सभ्यता पतनोन्मुख हो गयी हो लेकिन न तो इसके लोग लुप्त हुए, न ही भाषा लुप्त हुई और न ही अपने समय की इस सबसे बड़ी सभ्यता से जुड़े विश्वास और रीति-रिवाज ही लुप्त हुए। इसकी वजह यह थी कि जब यह सभ्यता सूखे की लंबी अवधि की वजह से पतनोन्मुख होने लगी तो हड़प्पा के लोग नई उपजाऊ जमीन की तलाश में अपना सामान, अपनी संस्कृति और अपनी प्रथाओं को अपने साथ लेकर पूर्व और दक्षिण दोनों दिशाओं में फैल गए।
इसी दौर में आर्यों का आगमन भी निश्चित तौर पर हड़प्पा के पतन के लिए एक प्रमुख कारण बना। वैदिक ग्रंथों में आर्यों के देवता इंद्र को पुरंदर कहा गया है, अर्थात् जो पुर यानी नगर का विध्वंस करता हो। चूंकि आर्य सभ्यता नगरीय सभ्यता नहीं थी इसीलिए आर्य जहां भी गए वहां उन्होंने नगरों का विध्वंस किया। वेदों में जिक्र है कि किस प्रकार से इंद्रदेव नदी के बांधों का विध्वंस कर रहे हैं। उस दौर में सिर्फ हड़प्पा ही एक विकसित सभ्यता थी जहां नदियों में बांध बनाकर खेतीबाड़ी व सिंचाई की जाती थी। आर्यों ने यहां आकर सब कुछ तहस-नहस कर डाला था। जलवायु परिवर्तन तथा व्यापार के पतन के कारण पहले से पतनोन्मुख हड़प्पा सभ्यता, मध्य एशिया से घोड़ों पर सवार होकर आए और लोहे के निर्माण के ज्ञान से समृद्ध आर्यों का सामना नहीं कर पाए।
इसीलिए ईसापूर्व 2000 के आसपास जिस चीज का अंत हुआ वह सत्ता संरचना थी, जिसने उस सभ्यता को सात सदियों से भी ज्यादा समय तक जारी रखा था और उसके साथ ही उनकी लिपि, मुहरों, मानवीयकृत ईंटों और यूनिकॉर्न जैसी कुछ अवधारणाओं का भी अंत हो गया था। लेकिन दक्षिण एशिया की इस पहली सभ्यता की दूसरी बहुत सी चीजें जो आम आदमी के जीवन का अभिन्न अंग थीं वे बनी रहीं और इसी के साथ उसके दार्शनिक और सांस्कृतिक आधार भी बरकरार रहे, भले ही हम उनको न पहचांन पाएं वो हमारी बुनियादें हैं जिन पर हमारी संस्कृति, परंपराएँ और इतिहास खड़े हैं।
हमने जाना है कि हड़प्पा सभ्यता के लोग ईरान की जग्रोस की पर्वत श्रृंखलाओं से आए लोगों और प्रथम भारतीयों के वंशजों की संतान थे। अब सवाल तो यह भी उठना स्वाभाविक है कि ये प्रथम भारतीय कौन थे जिन्होंने न सिर्फ हड़प्पा सभ्यता के निर्माण में मुख्य भूमिका निभाई बल्कि वर्तमान समय में भारत की आबादी का 50 से 60 प्रतिशत हिस्सा इन्हीं प्रथम भारतीयों की वंशावली समाहित करता है। देश के लगभग सारे क्षेत्र, सारे भाषा समुदाय और सारी जातियां तथा जनजातियां प्रथम भारतीयों की छाप लिये हुए हैं।