भीमा कोरेगांव मामले में फॅंसाये गये बुद्धिजीवियों की रिहाई की मांग

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31जनवरी। अखिल भारतीय सांस्कृतिक अभियान ने भीमा कोरेगांव मामले में फर्जी तरीके से फँसाये गये 13 बुद्धिजीवियों और मानवाधिकार कार्यकर्ताओं की रिहाई की मांग की है।

लेखकों-कलाकारों के इस मंच ने राष्ट्रपिता महात्मा गांधी की शहादत के मौके पर यह मांग की। प्रख्यात लेखक ज्ञानरंजन, नरेश सक्सेना, अशोक वाजपेयी कुमार प्रशांत, असग़र वज़ाहत, पंकज बिष्ट, वीरेंद्र यादव समेत 5000 से अधिक लेखकों ने एक प्रस्ताव ऑनलाइन पारित कर यह मांग की।

सम्मेलन के बाद जारी विज्ञप्ति के अनुसार महात्मा गांधी की शहादत के 75वें साल की शुरुआत के इस मौके पर लेखकों, पाठकों, कलाकारों और कलाप्रेमियों की यह सभा भीमा-कोरेगाँव मामले में गिरफ्तार किये गये बुद्धिजीवियों, मानवाधिकारकर्मियों और समाजकर्मियों की अविलंब रिहाई की माँग करती है।

विज्ञप्ति के अनुसार, यह प्रतिरोध सभा इस दुखद स्थिति पर अपना क्षोभ प्रकट करती है और आनंद तेलतुंबड़े, गौतम नवलखा, अरुण फरेरा, वरनन गोंजालविस, हैनी बाबू, सुधीर धावले, सुरेन्द्र गाडलिंग, महेश राउत, शोमा सेन, रोना विल्सन, सागर गोरखे, ज्योति जगताप और रमेश गाईचोर की अविलंब रिहाई की माँग करती है। हम अदालत से उम्मीद करते हैं कि वरवर राव और सुधा भारद्वाज समेत इन सभी लोगों के ऊपर लगाये गये आरोपों के संबंध में अंतिम चार्जशीट दाखिल किये जाने के लिए अब वह और अधिक समय-विस्तार न देकर मामले की सुनवाई जल्द शुरू करेगी और यथाशीघ्र देश को अपने न्यायोचित निर्णय से अवगत कराएगी।

विज्ञप्ति के अनुसार, अदालती सुनवाई की शुरुआत का इंतजार करते ये जिम्मेदार नागरिक जिन आरोपों के तहत गैर-जमानती जेलबंदी का उत्पीड़न सहने के लिए मजबूर हैं, वे  बेबुनियाद हैं, यह बात अब संदेह से परे है। न सिर्फ मानवाधिकार और लोकतंत्र के पक्ष में इन नागरिकों की सक्रियता का पिछला रिकार्ड, बल्कि उनकी गिरफ्तारी के लिए गढ़े गये पुलिस और राष्ट्रीय जाँच एजेंसी के आख्यान में आनेवाले एक-के-बाद-एक बदलाव और स्वतंत्र एजेंसियों की ओर से प्रकाश में लाये गये हैरतनाक तथ्य भी यह बताते हैं कि इनकी गिरफ्तारी निराधार है।

पहली खेप में पकड़े गये पाँच लोगों पर पहले भीमा-कोरेगाँव में हिंसा की साजिश रचने का आरोप लगाया गया, उसके बाद उनकी साजिश को सनसनीखेज़ तरीके से प्रधानमंत्री के ‘राजीव गांधी-स्टाइल असासिनेशन’ की योजना तक खींचा गया और साजिश में कथित रूप से लिप्त अनेक दूसरे बुद्धिजीवियों-मानवाधिकारकर्मियों की गिरफ्तारी की गयी, और आखिरकार ‘आरोपों के मसौदे’ (draft charges) में सत्रह आरोपों के अंतर्गत प्रधानमंत्री की हत्या की साजिश के आरोप को शामिल न करके ‘सशस्त्र क्रांति के द्वारा जन-सरकार’ कायम करने को उनका मुख्य उद्देश्य बताया गया।

कहने की जरूरत नहीं कि जाँच एजेंसी, जैसे भी मुमकिन हो, उन्हें खतरनाक अपराधी साबित करने पर बज़िद है। क्या आश्चर्य कि 22 जनवरी 2020 को महाराष्ट्र में भाजपा की सरकार की जगह तीन दलों की गठबंधन सरकार के आते ही और उसके द्वारा इस मामले की नये सिरे से तहकीकात की घोषणा होते ही 24 जनवरी को केंद्र सरकार ने यह मामला केंद्रीय गृह मंत्रालय के अधीन काम करनेवाली राष्ट्रीय जाँच एजेंसी को सौंप दिया। ढँके-तुपे इरादे, इस तरह, खुलकर सामने आ गए।

विज्ञप्ति केअनुसार, उधर 8 फरवरी 2021 को अमेरिका की आर्सेनल कन्सल्टेंसी ने, जो डिजिटल फोरेंसिक एनालिसिस करनेवाली एक स्वतंत्र भरोसेमंद जाँच एजेंसी के रूप में प्रतिष्ठित है, अपनी जाँच में यह पाया कि एनआईए ने रोना विल्सन के कंप्यूटर से जो इलेक्ट्रॉनिक सबूत इकट्ठा किये थे, वे एक मालवेयर के जरिये उनके कंप्यूटर में प्लांट किये गये थे। फिर जुलाई में यह बात सामने आयी कि ऐसा ही सुरेन्द्र गाडलिंग के कंप्यूटर के साथ भी हुआ था।

गरज कि जिन पत्राचारों के आधार पर ये गिरफ्तारियाँ हुई थीं, वे झूठी निकलीं। निस्संदेह, वे अभी भी एक साजिश का सबूत तो हैं, पर वह साजिश लोकतान्त्रिक विधि से चुनी गई सरकार के तख्ता-पलट की नहीं, बल्कि इन बुद्धिजीवियों और समाजकर्मियों को फँसाने की साजिश थी। यह तथ्य सामने आ चुके होने के बावजूद इन्हें जेल में बंद रखकर अपनी सेहत और सक्रियता पर गंभीर समझौते करने के लिए बाध्य किया जा रहा है, इससे अधिक दुखद और क्या होगा!

दलितों और आदिवासियों के अधिकारों के लिए संघर्ष करनेवाले

कई और आरोपित वरिष्ठ नागरिक हैं और स्वास्थ्य संबंधी गंभीर समस्याओं से जूझ रहे हैं। सेहत को देखते हुए सिर्फ वरवर राव को जमानत दी गयी है और अन्य आरोपितों में से सिर्फ सुधा भारद्वाज को दिसम्बर 2021 में जमानत मिल पायी। 13 और लोग अभी भी सुनवाई की प्रतीक्षा करते हुए विभिन्न जेलों में बंद हैं।

जिस तरह भीमा कोरेगांव मामले में असली अपराधियों को बचाने के लिए वाम-बहुजन मानवाधिकार कार्यकर्ताओं और बुद्धिजीवियों को झूठे आरोप में फँसाया गया है, ठीक उसी तरह दिल्ली दंगों के मामले में राजनीतिक कार्यकर्ताओं के साथ किया गया है। दंगों का खुलेआम आह्वान करनेवाले और  पुलिस को चेतावनी देनेवाले नेता आज भी खुले घूम रहे हैं जबकि सीएए विरोधी आंदोलन में सक्रिय जनवादी नौजवान भारी संख्या में गिरफ्तार कर लिये गये हैं। इसी तरह हाथरस गैंगरेप मामले और कश्मीर की तरह और भी कई उदाहरण हैं जिनमें सच्चाई उजागर करने की कोशिश करनेवाले पत्रकारों को फर्जी आरोपों में जेलों में डाला गया है।

जेलों में बंद कुछ प्रमुख कार्यकर्ताओं और पत्रकारों के नाम इस प्रकार हैं- मीरान हैदर, आसिफ़ इक़बाल तन्हा, शिफ़ा उर रहमान, उमर ख़ालिद, शरजील इमाम, इशरत जहां, ताहिर हुसैन, गुलफिशां फ़ातिमा, ख़ालिद सैफ़ी, सिद्दीक़ कप्पन और आसिफ़ सुल्तान।

यह प्रतिरोध सभा इन सभी की अविलंब रिहाई और इन सभी मामलों की निष्पक्ष जांच की मांग करती है।

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