— शशि शेखर प्रसाद सिंह —
आज 18 जुलाई को भारतीय गणतंत्र के 15वें राष्ट्रपति के निर्वाचन के लिए 17वां निर्वाचन होने जा रहा है। अब तक देश के पहले राष्ट्रपति डॉ राजेंद्र प्रसाद दो बार राष्ट्रपति बने । यद्यपि स्वतंत्र भारत में प्रथम लोकसभा और राज्यों की पहली विधानसभाओं के चुनाव के पूर्व संविधान सभा के सभापति के नाते संविधान सभा ने उन्हें 26 जनवरी 1950 को संविधान लागू होने के दिन ही स्वतंत्र भारत के गणतंत्र का राष्ट्रपति बना दिया था। 1952 में निर्वाचन के द्वारा पहली बार और 1957 में दूसरी बार वे भारत के राष्ट्रपति बने। इसके बाद तेरह और राष्ट्रपति बने किंतु कोई दो बार इस पद पर आसीन नही हो पाया।
भारत की धार्मिक बहुलता के अनुरूप राष्ट्रपति पद पर अब तक हिंदू, मुस्लिम, सिख धर्मों के राष्ट्रपति बन चुके हैं किंतु कोई ईसाई, पारसी, बौद्ध या जैन धर्म का राष्ट्रपति नहीं बन पाया है। महाराष्ट्र की एक महिला श्रीमती प्रतिभा पाटिल तथा केरल से समाज के वंचित समूह अनुसूचित जाति से पहले के. आर.नारायणन तथा उत्तर प्रदेश से दूसरे निवर्तमान राष्ट्रपति श्री रामनाथ कोविंद हैं। निःसंदेह अबतक समाज के अन्य वंचित समूह अनुसूचित जनजाति से कोई राष्ट्रपति नहीं बना है।
इसबार भारतीय जनता पार्टी ने ओड़िशा की अनुसूचित जनजाति की महिला तथा झारखंड की पूर्व राज्यपाल श्रीमती द्रौपदी मुर्मू को राष्ट्रपति पद का उम्मीदवार बनाया है और राष्ट्रपति चुनाव के निर्वाचक मंडल की संख्या और सदस्यों के मतमूल्य की सामान्य गणना के आधार पर राष्ट्रपति पद के विपक्षी उम्मीदवार श्री यशवंत सिन्हा की तुलना में श्रीमती द्रौपदी मुर्मू का अगला तथा प्रथम अनुसूचित जनजाति का राष्ट्रपति बनना तय दिखाई देता है, फिर भी चूँकि राजनीति अनिश्चितताओं का खेल है और राष्ट्रपति चुनाव के इतिहास में 1969 के निर्वाचन का अनुभव यह बताता है कि भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के अधिकृत उम्मीदवार श्री नीलम संजीव रेड्डी कांग्रेस दल के निर्वाचन मंडल में अपेक्षित संख्या और मतमूल्य के बावजूद अपने प्रतिद्वंद्वी निर्दलीय उम्मीदवार पूर्व उपराष्ट्रपति श्री वी.वी गिरी से चुनाव में पराजित हो गए थे।तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमति इंदिरा गांधी ने कांग्रेस के उम्मीदवार के बजाय कांग्रेस के सांसदों और विधानसभा सदस्यों से अंतरात्मा के आधार पर वोट देने की अपील की थी और परिणाम निर्दलीय उम्मीदवार श्री वी. वी. गिरी के पक्ष में गया था। राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति के निर्वाचन के लिए दलों के द्वारा सदस्यों को व्हिप जारी नहीं किया जा सकता। अतः निर्वाचक मंडल के सदस्य राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति के चुनाव में गुप्त मतदान के द्वारा वोट डालने के लिए स्वतंत्र हैं। राष्ट्रपति का चुनाव समानुपातिक प्रतिनिधित्व प्रणाली तथा एकल संक्रमणीय पद्धति के द्वारा होता है।
राष्ट्रपति जो अपना कार्यकाल पूरा नहीं कर पाए
यह संयोग ही रहा है कि सभी राष्ट्रपतियों ने अपना कार्यकाल पूरा किया। सिर्फ अल्पसंख्यक मुस्लिम समुदाय के दोनों राष्ट्रपति, डॉ ज़ाकिर हुसैन तथा श्री फखरुद्दीन अली अहमद, अपना कार्यकाल पूरा नहीं कर पाए और पद पर रहते हुए ही उनकी मृत्यु हो गयी। संविधान के अनुच्छेद के द्वारा राष्ट्रपति की कार्यकाल के बीच मृत्यु, त्यागपत्र, महाभियोग द्वारा पदमुक्ति की स्थिति में उपराष्ट्रपति ही राष्ट्रपति का कार्यभार छह महीने के भीतर अगले राष्ट्रपति का चुनाव होने तक सम्हालते हैं। डॉ ज़ाकिर हुसैन की मृत्य के बाद तत्कालीन उपराष्ट्रपति वी.वी. गिरी ने यद्यपि राष्ट्रपति का कार्यभार सम्हाला था किंतु राष्ट्रपति के चुनाव में उम्मीदवार बनने के बाद उन्हें इस्तीफा देना पड़ा और भारत के सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश श्री हिदायतुल्लाह बेग ने अगले राष्ट्रपति के पद ग्रहण के पूर्व तक कार्यभार सम्हाला। पांचवें राष्ट्रपति श्री फखरुद्दीन अली अहमद की कार्यकाल के बीच मृत्यु के बाद उपराष्ट्रपति श्री बी. डी. जत्ती ने छठे राष्ट्रपति के रूप में 1977 में जनता पार्टी के उम्मीदवार श्री नीलम संजीव के राष्ट्रपति बनने तक कार्यकारी राष्ट्रपति के रूप में काम किया था। अबतक उत्तर भारत, दक्षिण भारत, पश्चिम भारत तथा पूर्वी भारत से राष्ट्रपति बन चुके हैं किंतु उत्तर पूर्व राज्यों से कोई राष्ट्रपति नहीं बन पाया है।
राष्ट्रपति पद की योग्यता
भारतीय गणतंत्र के राष्ट्रपति के लिए संविधान के अनुच्छेद 58 में जो योग्यता निर्धारित है उसमें भारत का नागरिक होना, 35 वर्ष की न्यूनतम उम्र तथा लोकसभा का सदस्य होने की योग्यता होना जरूरी है। किसी लाभ के पद पर होना अयोग्यता है। संसद या विधानसभा का सदस्य होने की स्थिति में चुनाव जीतने के बाद सदस्यता त्यागना अनिवार्य है। यहाँ यह स्पष्ट है कि भारत का संविधान जन्मजात या प्राप्त नागरिकता में संयुक्त राज्य अमेरिका के राष्ट्रपति की जन्मजात नागरिकता की अनिवार्य योग्यता की तरह अंतर नहीं करता।
महाभियोग
यद्यपि भारतीय संविधान में राष्ट्रपति को संसद में महाभियोग के द्वारा कार्यकाल समाप्ति के पूर्व, संविधान का उल्लंघन करने के कारण, अनुच्छेद 61 के द्वारा पद से हटाने का प्रावधान है। महाभियोग की वैधानिक प्रक्रिया अत्यंत जटिल है और संसद के दोनों सदनों में से किसी एक सदन में उस सदन के सदस्यों की कुल संख्या के एक चौथाई सदस्यों के द्वारा महाभियोग लाया जा सकता है और यदि सदन के कुल सदस्यों के दो तिहाई सदस्यों का समर्थन मिल जाता है तो फिर महाभियोग प्रस्ताव को संसद के दूसरे सदन में भेजा जाता है और यदि उस सदन की कुल संख्या के दो तिहाई सदस्यों का समर्थन प्राप्त हो जाता है तो राष्ट्रपति के खिलाफ महाभियोग पारित हो जाएगा और राष्ट्रपति को तुरंत पदत्याग करना होगा किंतु अब तक किसी राष्ट्रपति के खिलाफ महाभियोग नहीं लाया गया तो हटाने का सवाल कहाँ से उठता है।
राज्य का संवैधानिक प्रमुख किंतु शासक नहीं
भारत में संयुक्त राज्य अमेरिका तथा फ्रांस के विपरीत संसदीय गणतंत्रीय लोकतांत्रिक व्यवस्था है जहाँ राष्ट्रपति राज्य का प्रमुख तो होता है किंतु शासन का संचालन जनता के द्वारा चुने हुए संसद के प्रतिनिधियों के बहुमत से बनी मंत्रिपरिषद के हाथों होता है जिसका मुखिया प्रधानमंत्री होता है अर्थात राष्ट्रपति राज्य का संवैधानिक प्रमुख किंतु नाममात्र का होता है। अतः किसी के राष्ट्रपति बनने से राष्ट्रपति की शक्तियों में कोई गुणात्मक परिवर्तन नहीं हो सकता। फिर भारतीय संसदीय लोकतंत्र में राष्ट्रपति होने का मायने क्या है और उसका राजनैतिक महत्त्व क्या है?
भारत में संघ स्तर पर राष्ट्रपति शासन नहीं
भारत में राज्यों से अलग संघ स्तर पर राष्ट्रपति शासन का कोई संवैधानिक प्रावधान नहीं अर्थात शासन प्रमुख के रूप में प्रधानमंत्री का पद कभी रिक्त नहीं रह सकता चाहे कार्यकारी प्रधानमंत्री ही क्यों न हो। भारत के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू की 1964 में 27 मई को मृत्यु के बाद तत्कालीन राष्ट्रपति डॉ सर्वपल्ली राधाकृष्णन ने तुरंत वरिष्ठतम कैबिनेट मंत्री श्री गुलजारी लाल नंदा को कार्यकारी प्रधानमंत्री की शपथ दिलाई और बाद में कांग्रेस संसदीय दल ने श्री लालबहादुर शास्त्री को दल का नेता चुना जो राष्ट्रपति के द्वारा प्रधानमंत्री नियुक्त किये गए। दूसरे प्रधानमंत्री लालबहादुर शास्त्री की तत्कालीन सोवियत संघ के ताशकंद में 10 जनवरी 1966 को असामयिक मृत्यु के बाद फिर राष्ट्रपति डॉ सर्वपल्ली राधाकृष्णन ने परंपरा के अनुसार श्री गुलजारी लाल नंदा को कार्यकारी प्रधानमंत्री बनाया और कांग्रेस संसदीय दल की नेता चुने जाने के बाद श्रीमती इंदिरा गांधी प्रधानमंत्री बनीं।
इस परंपरा का निर्वाह राष्ट्रपति सरदार ज्ञानी जैल सिंह ने सुरक्षा गार्ड के द्वारा 31अक्तूबर, 1984 को प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी की हत्या के पश्चात नहीं किया और वरिष्ठतम कैबिनेट मंत्री को कार्यकारी प्रधानमंत्री न बनाकर सीधे उसी दिन आनन फानन में बुलाये गए कांग्रेस संसदीय दल के द्वारा इंदिरा गांधी के बड़े पुत्र श्री राजीव गांधी को नेता चुने जाने के बाद प्रधानमंत्री नियुक्त कर दिया। राष्ट्रपति सरदार ज्ञानी जैल सिंह ने संवैधानिक परंपरा को महत्त्व देने के बजाय अपने पूर्व दल और पूर्व नेता के प्रति भक्ति निभाई जो राष्ट्रपति के पद की गरिमा के अनुरूप नहीं था।
आपातकाल की घोषणा और राष्ट्रपति
श्रीमती इंदिरा गांधी ने जब 25 जून 1975 की आधी रात को देश में आंतरिक गड़बड़ी की संभावना के कारण, संविधान के अनुच्छेद 352 के द्वारा पूरे देश में आपातकाल की घोषणा का सुझाव तत्कालीन राष्ट्रपति श्री फखरुद्दीन अली अहमद को भेजा तो राष्ट्रपति ने बिना कैबिनेट की मीटिंग के द्वारा लिए गए फैसले को रात में ही स्वीकृति दे दी। राज्य प्रमुख के नाते राष्ट्रपति को प्रधानमंत्री के उस लोकतंत्र विरोधी सुझाव को आनन फानन में स्वीकृति देने के बजाय मंत्रिमंडल के विचार के लिए वापस भेजना चाहिए था किंतु संविधान की नैतिकता का ध्यान न रखकर राष्ट्रपति ने अपने पूर्व दल तथा नेता के प्रति भक्ति दिखाना उचित समझा।
राष्ट्रपति की संवैधानिक शक्तियाँ
भारत के संविधान में राष्ट्रपति राज्य का प्रमुख है, प्रथम नागरिक है, तीनों सेनाओं का मुख्य सेनापति है, प्रधानमंत्री की नियुक्ति, मंत्रियों की नियुक्ति तथा उनके बीच विभागों का बंटवारा, मंत्रियों को हटाना, राज्यों के राज्यपालों की नियुक्ति, सर्वोच्च न्यायालय तथा उच्च न्यायालयों के मुख्य न्यायाधीश तथा न्यायाधीशों की नियुक्ति, चुनाव आयोग के आयुक्तों की नियुक्ति, सीएजी की नियुक्ति, विदेशों में राजदूतों तथा उच्चायुक्तों की नियुक्तियाँ, देश या देश के किसी हिस्से में आपातकाल की घोषणा या राज्यों में राष्ट्रपति शासन लगाना जैसे व्यापक अधिकार और शक्तियाँ उसके पास हैं किंतु संविधान के अनुच्छेद 74 में यह उल्लिखित है कि राष्ट्रपति की सहायता तथा सलाह देने के लिए एक मंत्रिपरिषद होगी और उसके प्रमुख प्रधानमंत्री होंगे। इस एक प्रावधान के कारण भारतीय संवैधानिक व्यवस्था में राष्ट्रपति की स्थिति सामान्यतः औपचारिक प्रमुख बनकर रह जाती है।
योग्य सलाहकार या रबर स्टांप
भारत में राष्ट्रपति का पद प्रारंभ से सर्वोच्च संवैधानिक पद होते हुए भी राजनीतिक अधिक हो गया। केंद्र और अधिक राज्यों में सत्तारूढ़ दल के द्वारा ही यह तय किया जाता रहा है कि राष्ट्रपति के पद पर कौन बैठेगा। प्रथम राष्ट्रपति डॉ राजेंद्र प्रसाद से लेकर आज के चुनाव में राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार तक, कुछ अपवादों को छोड़कर, केंद्र में सत्तारूढ़ दल के सदस्य रहे हैं। इसमें दूसरे राष्ट्रपति डॉ सर्वपल्ली राधाकृष्णन और ग्यारहवें राष्ट्रपति डॉ ए.पी.जे. अब्दुल कलाम राजनीतिक दल के व्यक्ति नहीं थे। राजनीतिक दलों के राष्ट्रपति होने के कारण कहीं न कहीं राष्ट्रपति के कर्तव्य निर्वहन में राजनीतिक दलीय प्रतिबद्धता आड़े आ जाती है। यह संवैधानिक सत्य है कि भारत के संसदीय लोकतंत्र में राष्ट्रपति को राज्य प्रमुख बनाया गया है और शासन की जिम्मेदारी संसदीय लोकतंत्र के सिद्धान्तों के अनुरूप संसद के प्रति सामूहिक रूप से उत्तरदायी मंत्रिपरिषद को दी गयी है जिसके प्रमुख प्रधानमंत्री होते हैं।
प्रधानमंत्री की नियुक्ति संविधान के अनुच्छेद 75 के तहत राष्ट्रपति के द्वारा की जाती है किंतु प्रधानमंत्री की नियुक्ति में राष्ट्रपति को संसद के लोकप्रिय सदन लोकसभा में बहुमत को ही आधार बनाना पड़ता है अर्थात यदि जिस दल को बहुमत प्राप्त है उस दल के नेता को प्रधानमंत्री नियुक्त करना राष्ट्रपति की संवैधानिक जिम्मेदारी है अन्यथा यह संविधान का उल्लंघन होगा। किंतु यदि किसी एक दल को लोकसभा में बहुमत नहीं है तो राष्ट्रपति को प्रधानमंत्री की नियुक्ति में विवेकसम्मत शक्ति प्राप्त है अर्थात वह लोकसभा के सबसे बड़े दल के नेता को प्रधानमंत्री पद पर नियुक्त कर सकता है और प्रधानमंत्री को लोकसभा में बहुमत साबित करने के लिए कुछ समय देता है। 1952 से लेकर 1984 के लोकसभा चुनाव तक एक दल को बहुमत मिलता रहा और सामान्यत: राष्ट्रपति को विवेकाधारित शक्ति के प्रयोग की नौबत नहीं आयी। पहली बार 1989 में नौवीं लोकसभा चुनाव के बाद कांग्रेस सबसे बड़ी पार्टी तो बनी किंतु बहुमत नहीं प्राप्त हुआ और राष्ट्रपति आर वेंकटरमन ने कांग्रेस के संसदीय दल के नेता राजीव गांधी को सरकार बनाने के लिए आमंत्रित किया किंतु राजीव गांधी ने सरकार गठन से इनकार कर दिया। फिर राष्ट्रपति ने जनता दल के नेता विश्वनाथ प्रताप सिंह को प्रधानमंत्री पद पर नियुक्त किया और कई क्षेत्रीय दलों से बने राष्ट्रीय मोर्चा की सरकार को कम्युनिस्ट पार्टियों तथा भाजपा के बाहरी समर्थन से बहुमत प्राप्त था।
राष्ट्रपति श्री के आर नारायणन ने संवैधानिक परंपरा का निर्वाह करके लोकसभा में सबसे बड़े दल या कई दलों के समर्थन से बहुमत का दावा करनेवाले नेता को समर्थकों या समर्थक दलों का समर्थन पत्र मांगने की परिपाटी की शुरुआत की। प्रधानमंत्री की नियुक्ति के बाद प्रधानमंत्री के सुझाव पर ही अन्य मंत्रियों की नियुक्ति राष्ट्रपति करता है और प्रधानमंत्री की सलाह पर ही मंत्रियों के बीच विभागों का बंटवारा करता है और प्रधानमंत्री की सलाह पर मंत्री या मंत्रियों को पद से हटाता है। मंत्रिमंडल के सुझाव पर लोकसभा को भंग करता है। यहाँ यह विचारणीय विषय है कि क्या राष्ट्रपति प्रधानमंत्री या मंत्रिमंडल के निर्णय को मानने के लिए बाध्य है, तो सिर्फ इतना कहा जा सकता है कि राष्ट्रपति को मंत्रिमंडल के निर्णय को पुनर्विचार के लिए भेजने का अधिकार है किंतु पुनर्विचार के बाद मंत्रिमंडल के निर्णय को मानने के लिए वह बाध्य है।
राष्ट्रपति के हस्ताक्षर के बाद ही संसद के द्वारा पारित विधेयक कानून बनता है किंतु राष्ट्रपति के पास संसद के द्वारा भेजे गए विधेयक को भी संसद को पुनर्विचार के लिए भेजने की शक्ति है। इसका महत्त्व ये हो सकता है कि मंत्रिमंडल या संसद के द्वारा राजनैतिक उत्तेजना में लिये गए निर्णयों या विधेयकों को पुनर्विचार के लिए भेजने से मंत्रिमंडल या संसद समय लेकर आवश्यक परिवर्तन कर उसे अधिक तर्कसंगत बना सकती है। राष्ट्रपति के द्वारा मंत्रिमंडल के निर्णय या संसद के विधेयक को स्वीकृति देने की कोई संवैधानिक समय सीमा नहीं है। ऐसी स्थिति में राष्ट्रपति अपने विवेक से समय लेकर गलत निर्णयों या विधेयकों पर पाॅकेट वीटो कर सकता है। श्री राजीव गांधी के प्रधानमंत्रित्व काल में पोस्टल विधेयक पर तत्कालीन राष्ट्रपति ने अपने विवेकसम्मत पॉकेट वीटो का प्रयोग कर उस नागरिक अधिकार विरोधी विधेयक को कानून बनने से रोक लिया था।
त्रिशंकु लोकसभा की स्थिति में राष्ट्रपति के पास विवेक की शक्ति है। सच तो यह है कि सुयोग्य और राजनीतिक सूझ-बूझ वाला राष्ट्रपति प्रधानमंत्री का अच्छा सलाहकार हो सकता है। राज्यों में संवैधानिक संकट के नाम पर संविधान के अनुच्छेद 356 के दुरुपयोग को रोकने में, पुनर्विचार के लिए भेजने की उसकी शक्ति सहायक हो सकती है। किंतु यदि राष्ट्रपति ने दलीय प्रतिबद्धता दिखाई तो वह सरकार का एक अच्छा सलाहकार न होकर रबर स्टांप बनकर रह जाता है।