— डॉ सुरेश खैरनार —
गांधी स्मृति राजघाट के द्वारा ‘अंतिम जन’ का सावरकर विशेषांक निकालने का मतलब? महात्मा गांधी की शारीरिक हत्या के बाद उनकी वैचारिक हत्या करने का प्रयास!
महात्मा गांधी की हत्या का षड्यंत्र पूना पैक्ट के बाद से ही शुरू हो गया था और 30 जनवरी 1948 तक चला, जिस दिन हिंदुत्ववादियों के द्वारा उन्हें जान से मार दिया गया! अब वैचारिक स्तर पर उनकी हत्या का षड्यंत्र चल रहा है।
‘पांचजन्य’, ‘आर्गनाइजर’ या कोई भी हिंदुत्ववादियों की तरफ से चलायी जा रही पत्र-पत्रिका सावरकर पर विशेषांक निकाले हमें कोई आपत्ति नहीं है लेकिन राजघाट स्मृति की तरफ से चलायी जा रही पत्रिका ‘अंतिम जन’ में सावरकर के कशीदे पढ़े जाएं, उनकी महिमा में लेख छापे जाएं, तो यह सब करनेवाले लोगों की मानसिकता का एकमात्र उद्देश्य महात्मा गांधी की शारीरिक हत्या करने के बाद वैचारिक रूप से बचे हुए गांधी की हत्या करना है!
महात्मा गांधी और सावरकर की तुलना कौन-सी बातों पर हो सकती है? सावरकर ने अपने जीवनकाल में ‘स्ट्रेटेजी’ के नाम पर चार बार माफी मांगने के लिए विक्टोरिया महारानी के नाम पत्र लिखे ! (माफीनामे का पहला पत्र अंडमान में 4 जुलाई 1911 को जाने के तुरंत बाद 30 – 8-1911 का, मतलब छप्पनवें दिन, माफीनामे का दूसरा पत्र 4-4-1913, माफीनामे का तीसरा पत्र 1917, और माफीनामे का चौथा पत्र 30 – 3-1920 को लिखा है !)
हालांकि जब सावरकर अंडमान जेल में बंद किए गए थे (4 जुलाई 1911) उसके पहले से ही वहां पर, अन्य राजनीतिक बंदी 148 की संख्या में थे ! और सावरकर को जो भोगना पड़ा उससे कम यातनाएं उन कैदियों ने नहीं भोगी थीं। सावरकर 149वें थे ! और वह एकमात्र कैदी थे, जिन्होंने अपनी यातनाओं के बारे में लिखा है, और अपनी दया याचिकाओं को भी ! और आश्चर्य की बात है कि, रक्षामंत्री राजनाथ सिंह के मुताबिक, अंगरेजी हुकूमत से माफी मांगने का पत्र लिखने की सलाह सावरकर को गांधीजी ने दी थी !
गांधी भारत में दक्षिण अफ्रीका से 1915 में आए! और सावरकर के छोटे भाई डॉ नारायण सावरकर ने 1920 में गांधीजी से मुलाकात कर, उन्हें अंडमान की जेल में बंद अपने भाई की स्थिति से अवगत कराया। फिर गांधीजी ने तुरंत बाद ही पत्र लिखा जो उन्होंने ‘यंग इंडिया’ में प्रकाशित भी किया ! लेकिन हमारे देश के रक्षामंत्री के पद पर बैठे राजनाथ सिंह कहते हैं कि “सावरकर को माफी मांगने की सलाह गांधीजी ने दी थी !” और अभी तक राजनाथ सिंह ने अपनी बात वापस नहीं ली है, तो इसे संघ परिवार के गांधी विरोधी प्रचार का ही हिस्सा मानना होगा।
अंडमान की जेल से लिखी गयीं सावरकर की चारों दया याचिकाएं 1911,1913, 1917 और 30-3-1920 की हैं। और सबसे हैरानी की बात यह कि चारों पत्रों में अंग्रेज शासकों को सावरकर ने आश्वासन दिया है कि “मैं आजादी के लिए आंदोलन कर रहे युवा लोगों को समझाऊंगा कि अंग्रेजी हुकूमत कितनी अच्छी है! और अंग्रेजी फौज में भर्ती करने के लिए विशेष रूप से काम करूंगा!” और किया भी !
जो लोग यह कहानी गढ़ते रहते हैं कि नेताजी सुभाषचंद्र बोस के साथ गांधी-नेहरू ने कैसे अन्याय किया, उनसे मैं पूछना चाहता हूं कि बैरिस्टर विनायक दामोदर सावरकर ने, अंग्रेजों की फौज में भर्ती करने का काम नेताजी सुभाष चंद्र बोस को मददगार साबित होने के लिए किया था या उनकी आजाद हिंद फौज से निपटने के लिए
महात्मा गांधी सत्य को ही ईश्वर माननेवाले लोगों में से एक थे। और बैरिस्टर विनायक दामोदर सावरकर ने अंडमान की जेल से बाहर आने के लिए 4 दया याचिकाओं में एक-से-बढ़कर-एक झूठी बातें लिखी हैं, भले ही सावरकर-भक्त उसे स्ट्रैटेजी कहें! लेकिन 1921 से लेकर अंडमान से रत्नागिरी की गृहबंदी (नजरबंदी) में और 1937 में उससे भी मुक्त होने के बाद 29 साल तक सावरकर ने क्या किया? 1966 तक सावरकर (28 मई 1883 जन्म और मृत्यु 26 फरवरी 1966) लगभग 83 साल तक जिये हैं ! 15 अगस्त 1947 के समय सावरकर की उम्र गिनकर चौंसठ साल की थी ! 10 मई 1937 को वह गृहबंदी से छूट गये थे, मतलब चौवन साल की उम्र में ! आजादी के दस साल पहले !
हाल ही में एक किताब आयी है कि Veer Savarkar THE MAN WHO COULD HAVE PREVENTED PARTITION ! मेरा सवाल है कि WHY NOT SHOULD? किसने उन्हें रोका था? अभिनव भारत के स्वयंसेवक तथा राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की स्थापना के बीस साल से अधिक समय होने के बावजूद इन दोनों संगठनों ने मिलकर और हिंदुत्व की राजनीति के लिए स्थापित हिंदू महासभा नाम के राजनीतिक दल ने क्या किया? वे तो बंटवारे के लिए मुस्लिम लीग के 1940 के लाहौर प्रस्ताव के बाद भी सिंध और बंगाल में लीग के साथ मिलीजुली सरकार चला रहे थे? तो स्थिति यह है – उलटा चोर कोतवाल को डांटे!
मोहम्मद अली जिन्ना के साथ हिंदू महासभा के सत्ता में भागीदारी करने की पहेली अगर कोई हिंदुत्ववादियों में से समझा सके तो बड़ी कृपा होगी ! क्या सावरकर की गृहबंदी से मुक्ति किसी शर्त पर की गई थी? क्योंकि भारत छोड़ो आंदोलन में शामिल होने की बात तो बहुत दूर, उलटे मुस्लिम लीग के नेतृत्व में, बंगाल प्रांत में फजलुल रहमान की सरकार में शामिल हिंदू महासभा के प्रतिनिधि डॉ. श्यामाप्रसाद मुखर्जी ने वायसराय को दस मुद्दों की चिठ्ठी लिखकर बताया था कि “भारत छोड़ो आंदोलन वाले लोगों से कैसे-कैसे निपटा जा सकता है!”
यह सब कौन सी भारत माता की सेवा के लिए किया गया था? हिंदुत्ववादियों की तरफ से महात्मा गांधी के खिलाफ चलायी जा रही बदनामी की मुहिम में शामिल लोगों के दिल और दिमाग को क्या हो गया है?
जिस बंटवारे के लिए गांधी को जिम्मेदार मानते हुए हत्या कर दी गई उस बंटवारे के खिलाफ हिंदुत्ववादियों में से एक भी माई का लाल नहीं है जिसने हाथों में शस्त्र उठाकर विरोध किया हो ! उलटा निहत्थे अस्सी साल के बूढ़े की गोली मारकर हत्या कर दी ! इसमें कौन-सी बहादुरी है? गांधी को मारने के लिए शस्त्र मिला लेकिन देश की आजादी के लिए और बंटवारे के खिलाफ लड़ाई लड़ने के लिए नहीं ! और आज गांधी की हत्या करनेवाले का महिमामंडन करने का प्रयास बदस्तूर जारी है ! उसके मंदिर बनाने की कोशिश कर रहे हैं ! और संसद सदस्य प्रज्ञा सिंह ठाकुर और किसी महंत ने कहा कि असली महात्मा, गांधी नहीं, नाथूराम गोडसे है ! और ‘अंतिम जन’ का सावरकर विशेषांक भी उसी कड़ी का पार्ट है ! क्या गांधी की हत्या के बाद उनकी बची हुई विरासत को खत्म करने की साजिश तो नहीं चल रही है?
1909 से ही गांधी और सावरकर के मतभेद प्रकट हो चुके थे। हिंद स्वराज्य किताब लिखे जाने की एक वजह 1906 में ही सावरकर और गांधीजी की लंदन यात्रा के दौरान हुई चर्चाएं थीं, जिनके जवाब में, 1909 में लंदन से दक्षिण अफ्रीका वापसी के दौरान जहाज पर गांधीजी ने यह किताब लिखी थी। और इसका शीर्षक हिंद स्वराज रखा था जिसे सावरकर ने मजाकिया अंदाज में ‘मारो काटो का पंथ’ कहा था। और आज संपूर्ण विश्व गांधीजी की उस किताब में दिए गए सूत्रों पर गंभीरता से चिंतन-मनन कर रहा है !
सावरकर ने अपने इंग्लैंड प्रवास के समय से ही हिंदू और मुसलमान दो राष्ट्र का सिद्धांत गढ़ने की शुरुआत कर दी थी (1906) ! यह बात उनके छोटे भाई डॉ. नारायण दामोदर सावरकर ने सावरकर की ‘हिंदुत्व’ नाम की किताब का मराठी अनुवाद करने के बाद अपनी भूमिका में लिखी है।
सावरकर के इंग्लैंड में पढ़ाई के लिए जाने के साल 1906 से 1911 में अंडमान जेल जाने के पहले का कुल पांच सालों का कालखंड छोड़ दें तो, सावरकर के अंडमान जेल के अंदर के दस साल के बाद, 1966 तक वह हिंदुत्ववादी प्रचार-प्रसार करने के अलावा कौन-सी गतिविधियों में शामिल थे? और अब हिंदुत्ववादियों के वर्तमान शासन में गांधीजी के विचारों को खत्म करने की साजिश का ही भाग है ‘अंतिम जन’ का सावरकर विशेषांक!
सावरकर के लिखे माफीनामे की कुछ झलकियां
“अंत में, हुजूर, मैं आपको फिर से याद दिलाना चाहता हूं कि आप दयालुता दिखाते हुए सजा माफी की मेरी 1911 में भेजी गई याचिका पर पुनर्विचार करें, और इसे भारत सरकार को फारवर्ड करने की अनुशंसा करें।”
“भारतीय राजनीति के ताजा घटनाक्रमों और सबको साथ लेकर चलने की सरकार की नीतियों ने संविधानवादी रास्ते को फिर से खोल दिया है। अब भारत और मानवता की भलाई चाहने वाला कोई भी व्यक्ति, अंधा होकर उन कांटों से भरी राह पर नहीं चलेगा, जैसा कि 1906 – 07 की नाउम्मीदी और उत्तेजना से भरे वातावरण ने हमें शांति और तरक्की के रास्ते से भटका दिया था।”
“इसलिए अगर सरकार अपनी असीम भलमनसाहत और दयालुता में मुझे रिहा करती है, तो मैं आपको यकीन दिलाता हूँ कि मैं संविधानवादी विकास का सबसे कट्टर समर्थक रहूंगा और अंग्रेजी सरकार के प्रति वफादार रहूंगा, जो कि विकास की सबसे पहली शर्त है।”
“जब तक हम जेल में हैं, तब तक महामहिम के सैकड़ों-हजारों वफादार प्रजा के घरों में असली हर्ष और सुख नहीं आ सकता, क्योंकि खून के रिश्ते से बड़ा कोई रिश्ता नहीं होता। अगर हमें रिहा कर दिया जाता है, तो लोग खुशी और कृतज्ञता के साथ सरकार के पक्ष में, जो सजा देने और बदला लेने से ज्यादा माफ करना और सुधारना जानती है, नारे लगाएंगे।”
“इससे भी बढ़कर संविधानवादी रास्ते में मेरा धर्म-परिवर्तन भारत और भारत से बाहर रह रहे उन सभी भटके हुए नौजवानों को सही रास्ते पर लाएगा, जो कभी मुझे अपने पथ-प्रदर्शक के तौर पर देखते थे। मैं भारत सरकार जैसा चाहे उस रूप में सेवा करने के लिए तैयार हूँ, क्योंकि जैसे मेरा यह रूपांतरण अंतरात्मा की पुकार है, उसी तरह से मेरा भविष्य का व्यवहार भी होगा। मुझे जेल में रखने से आपको होनेवाला फायदा मुझे जेल से रिहा करने से होनेवाले फायदे की तुलना में कुछ भी नहीं है।”
“जो ताकतवर है, वही दयालु हो सकता है और एक होनहार पुत्र सरकार के दरवाजे के अलावा और कहां लौट सकता है। आशा है हूजूर मेरी याचनाओं पर दयालुता से विचार करेंगे।”
वी.डी. सावरकर (स्रोत : आर. सी. मजूमदार, पीनल सेटलमेंट इन द अंडमान्स, प्रकाशन विभाग, भारत सरकार, 1975)
यह याचिका 1913 में सावरकर द्वारा ब्रिटिश सरकार को भेजी गई थी ! सावरकर इन्हीं याचनाओं पर 1921 में जेल से रिहा किये गये थे ! और 1936 तक महाराष्ट्र के रत्नागिरी में गृहबंदी (नजरबंदी) में रहकर अंग्रेज सरकार से पेंशन प्राप्त कर रहे थे! और इसी दौरान उन्होंने अंग्रेजी सेना में भारतीय लोगों की भर्ती का काम किया !
और इसी समय रत्नागिरी के पोस्ट आफिस में नाथूराम गोडसे के पिता का तबादला हुआ था ! तो नाथूराम उस समय सातवीं कक्षा की पढ़ाई छोड़कर रोज सुबह सावरकर के घर जाकर, रात को सोने के पहले अपने घर वापस आता था ! और उसी नाथूराम को भरी अदालत में शपथ के साथ सावरकर कहते हैं कि “मैं इसे नहीं पहचानता!”
अब इस तरह के सावरकर के ऊपर महात्मा गांधी की स्मृति संजोए रखने के लिए बनी संस्था के मुखपत्र ‘अंतिम जन’ का विशेषांक प्रकाशित करनेवाले लोगों की क्या मंशा हो सकती है?
बैरिस्टर विनायक दामोदर सावरकर ने ‘हिंदुत्व’ नाम की किताब लिख कर दो राष्ट्र का सिद्धांत पेश किया और उसी आधार पर राष्ट्र का विभाजन भी हुआ ! लिहाजा विभाजन के लिए जितने जिम्मेदार बैरिस्टर मोहम्मद अली जिन्ना हैं उतने ही जिम्मेदार बैरिस्टर विनायक दामोदर सावरकर भी हैं! जबकि तीसरे बैरिस्टर मोहनदास करमचंद गांधी बंटवारे को अंत अंत तक रोकने की कोशिश करते रहे।
अब मेरा पाठकों से सवाल है कि तीनों बैरिस्टरों में कौन सही था और कौन गलत? गांधी स्मृति समिति को शर्म आनी चाहिए कि, वह महात्मा गांधी की स्मृति में शुरू की गई समिति की पत्रिका का सावरकर विशेषांक निकालते हैं ! महात्मा गांधी का इससे बड़ा अपमान और क्या हो सकता है? इस गलती के लिए मैं स्मृति समिति के अध्यक्ष से लेकर सभी पदाधिकारियों से माफी मांगने की मांग करता हूँ !