गणेश पाइन : अवसाद और करुणा की आभा

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गणेश पाइन (1937 - 2013)
प्रयाग शुक्ल

— प्रयाग शुक्ल —

णेश पाइन (1937 – 2013) का नाता बंगाल की प्रकृति, बंगाल स्कूल की चित्रकला और कोलकाता से बहुत गहरा था। वे कोलकाता से बाहर बहुत कम ही गए। उनकी गिनती निश्चय ही उन कलाकारों में की जा सकती है जो ‘घर’ बैठे दुनिया को अत्यंत गहराई और पैनी नजरों से देखते हैं, गहरी संवेदनशीलता के साथ और इस तरह देखी-जानी-कल्पित चीजों के ‘उत्खनन’से कुछ विलक्षण छवियाँ और बिंब ऊपर ले आते हैं, जिनके माध्यम से देश-दुनिया के बहुतेरे लोग जीवन-मृत्यु के प्रश्नों के कई मर्म पढ़ ले सकते हैं।

उनकी कला के प्रेमी देश में भी हैं और विदेशों में भी। उनकी कला की एक बड़ी खूबी यह भी है कि जिस बंगाल स्कूल की कला को बहुतेरे आधुनिकों द्वारा ‘पनीला’ या अत्यंत रोमांटिक कहकर कई बार नकारा गया, और कहा गया कि भारतीय ‘आधुनिक’ कला आंदोलन में भला उसकी भूमिका क्या हो सकती है, उसी बंगाल स्कूल के कई प्रेरक तत्त्वों (विशेषकर अवनीन्द्रनाथ ठाकुर की कला) और उसी की कुछ तकनीकी विशेषताओं को साथ लेकर वे आगे बढ़े और अपनी ऐसी पोढ़ी चित्रभाषा गढ़ी, जिसकी ‘आधुनिकता’ को भी लेकर किसी के मन में कोई संदेह नहीं है।

गणेश पाइन ने टेंपेरा विधि, जलरंगों, कलम-स्याही से जिन चित्रों-रेखांकनों की रचना की, वे संख्या में भी कम नहीं हैं। कलाविद्, संगीत पारखी मुकुन्द लाठ के यहाँ जयपुर में उनके कोई पच्चीस-तीस काम देखे थे और देर तक ‘पाइन की दुनिया’ की विलक्षणता की बातें फिर मन में घुमड़ती रही थीं। प्रसंगवश याद कर ले सकते हैं कि मुकुन्द जी पाइन के शुरुआती संग्राहकों में रहे हैं, जिन्होंने पाइन-प्रतिभा को जल्दी ही पहचना लिया था। चेस्टर हरवित्ज संग्रह में और देश-विदेश के कई अन्य संग्रहों और संग्रहालयों में उनके काम हैं। और यह विपुल संख्या तब तैयार हुई है, जब पाइन को किसी चीज में, किसी तरह की जल्दी नहीं रहती थी।

एक बार उन्होंने अपने एक मूर्तिशिल्पी मित्र से कहा था : ‘मैं पिछली तीन-चार रातों से एक  ‘इमेज’ का पीछा कर हूँ, पर वह पकड़ में ही नहीं आती।’

गणेश पाइन के जीवनीकार शिल्पादित्य सरकार ने अपनी पुस्तक ‘द लाइफ ऐंड टाइम्स ऑफ गणेश पाइन’ में एक मर्मभरी घटना का उल्लेख किया है। मध्य कोलकाता की जिस पुरानी बाड़ी (घर) में पाइन संयुक्त परिवार के बीच रहते थे, वहाँ जगह की तंगी के कारण, एक बार पाइन को अपना ‘स्टूडियो’छत पर बने एक छोटे से कमरे में ले जाना पड़ा था- वे सोते भी वहीं थे। रात में बिल्लियाँ गुर्रातीं, झगड़तीं, चीखतीं, उन्हीं के बीच पाइन मानो अपने ‘स्वप्नदर्शी’ कामों की रचना करते। स्वंय पाइन ने इस अनुभव को ‘भयावह’कहा है।

3/1 ए, कविराज रो के इस मकान में साठ-सत्तर के दशक में मेरा जाना कई बार हुआ है। उसके लाल फर्श और पल्लेदार लकड़ी के खिड़की-दरवाजों की याद है। हमारी बातचीत बांग्ला में होती। जीवनानंद दास (जो उनको भी प्रिय थे) समेत कई बांग्ला कवियों पर हमारी बातें होतीं। जीवन-जगत के कई प्रसंग आते। कला के तो आते ही। आज याद करता हूँ तो यही पाता हूँ कि बातों के साथ मानो उनके भीतर छवियों की निर्मिति का एक सिलसिला अनवरत चला करता था। वे मुक्त-मन बातें करते, एक विचारशील भाव-प्रवणता के साथ। यह सच है कि वे एकांतप्रिय थे, अंतर्मुखी भी, पर जाननेवाले जानते हैं कि उनके हास-परिहास के प्रति भी एक आकर्षण था।

यह अलग बात है कि एक सपनीली पीली, नीली ‘रोशनी’ के साथ अँधेरी छायाएँ और अवसाद की करुणा की आभा (एँ) ही धीर-गंभीर भाव से उनके काम में प्रकट हुईं। कुछ वक्रोक्तियाँ और विद्रूप स्थितियाँ भी उभरीं। अपनी दादी से सुनी हुई लोककथाएँ, पुराणकथाएँ और कोलकाता के मध्यवित्तीय बंगाली परिवारों के यहाँ व्रत-त्योहारों पर होनेवाले अनुष्ठान, गलियों के छोटे-छोटे मंदिर, आकार में छोटी मूर्तियाँ (एक मंदिर उनके कविराज रो वाले घर के निकट ही थी) और बंगाल के खिलौने, हस्तशिल्प- सब कायान्तरित होकर उनके काम में प्रकट हुए।

उनकी रची हुई आकृतियाँ आकार में छोटी हैं। खिलौनों जैसी। (क्या हम इस संदर्भ में जामिनी राय की भी याद कर सकते हैं!) उनमें एक मूर्तिमयता भी है। आकार कई बार विखंडित हैं। क्षय की कई निशानियाँ हैं। धूसरता और जर्जरता वहाँ मौजूद हैं। नावें हैं। कई स्वप्नों को खँडहर हैं।  परित्यक्त चीजें हैं। इमारतों के खंड-दृश्य हैं। धनुर्धर हैं। जोकर हैं। अस्त्र-शस्त्र हैं। कई चीजों के अस्थि-पंजर हैं। कंकाल हैं। कुछ है जो बुझ रहा है। क्षय हो रहा है। कुछ है, जिसकी लौ कंपित है। पर एक उजास भी है। अँधेरे-उजाले का खेल है। वनस्पतियाँ हैं। जीवन की तरी में मृत्यु डोल रही है और मृत्यु की तरी में जीवन ही तो बहा जा रहा है। मंथर-मंद गति से। कभी-कभी स्थिर-सा। अचंचल भी। जो कुछ है वह अपूर्व है।

पाइन एक सच्चे कलाकार थे। कला बाजार से भी उनका ‘सामना’ हुआ ही, पर इस मामले में भाग्यशाली थे कि उन्हें अच्छे संग्राहक मिले। कविराज रो का मकान छूटा तो मानो वह ‘अड्डा’ भी छूटा जो वहाँ जमता था। विवाह के बाद वे दक्षिण कोलकाता के एक ‘पॉश’ इलाके में पहुँचे। वहाँ मेरा जाना एक बार ही हुआ, जब मैं गैलरी स्पास के लिए, ‘ड्राइंग 94’ नाम से एक प्रदर्शनी क्यूरेट कर रहा था। हमने पुराने दिनों की याद की। पाइन ने भी कुछ अफसोस के साथ कहा, “वैसा ‘अड्डा’ अब नहीं जमता”, पर पाइन से अधिक भला और कौन जानता था कि ‘जो बीत जाता है वह बीतता तो है, पर रह भी जाता है।’ बीत कर भी नहीं बीतता।

‘महाभारत’ पर किये हुए उनके रेखांकन याद आते हैं। उनकी डायरी के पृष्ठ और उनमें अंकित रेखा-रूप याद आते हैं। उनके बीसियों चित्र याद आते हैं।, जिन्हें देख कर हम यह नहीं पूछते कि ‘यह क्या है, जो हम देख रहे हैं?’ हम ब उनमें उतर जाते हैं, जहाँ यथार्थ है, स्वप्न है, स्वप्नों और वस्तुओं के खँडहर हैं, क्षय है, पल्लवन है, नीम रोशनी में तिरते हुए कुछ संकेत हैं, जीवन-मृत्यु की निरंतरता है- इस तरह देखी, और दिखाई गयी जैसी चित्र-रूपों में वही संभव कर सकते थे।

(मार्च, 2013)

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