— डॉ सुरेश खैरनार —
तीन साल पहले 370 हटाकर राज्य का दर्जा समाप्त कर उसे केंद्रशासित प्रदेश में बदलकर रख दिया! जबकि भारत में कश्मीर के विलय की शर्तों में एक शर्त यह भी थी कि जब तक कश्मीर की विधानसभा कोई कानून या बदलाव सर्वसम्मति से पास नहीं करती तब तक कोई बदलाव माना नहीं जा सकता है! और कश्मीर की विधानसभा पांच अगस्त 2019 के बहुत ही पहले से ही भंग है। ऐसी स्थिति में सिर्फ भारत के मंत्रिमंडल ने एक निर्णय लिया! उसे कश्मीर में लागू करने की प्रक्रिया ही संविधान के विपरीत है, और अनुच्छेद 370 हटाने के खिलाफ अस्सी से भी ज्यादा याचिकाएँ सर्वोच्च न्यायालय में लंबित हैं।
अमूमन केंद्रशासित प्रदेशों को राज्य का दर्जा देने की परंपरा रही है। लेकिन कश्मीर के लिए निर्णय उलटा क्यों? और तीन साल में लोकतांत्रिक प्रक्रिया क्यों नहीं शुरू हो पा रही है? इसके कारण क्या हैं? जबकि गृह मंत्रालय समय-समय पर बताता रहता है कि अब कश्मीर में स्थिति काफी अच्छी है, आतंकवाद लगभग खत्म हो गया है! पर जिस तरह से मई में चार लोगों की हत्याएं हुई हैं और उसके बाद पाँच हजार कश्मीरी हिन्दू जो प्रधानमंत्री पैकेज में सरकारी कर्मचारी के तौर पर बहाल हुए हैं, अब माँग कर रहे हैं कि हमें सुरक्षित जगह पर पोस्टिंग चाहिए! पाँच अगस्त को उनका भी धरना प्रदर्शन शुरू हुआ!
दो दिन पहले, मैंने यू ट्यूब पर शिकारा नाम की फिल्म देखी। हाँ फुलफ्लेज फिल्म। बिल्कुल ‘कश्मीर फाइल्स’ की तरह! लेकिन इन दोनों फिल्मों में कश्मीर के इतिहास और वर्तमान को तोड़-मरोड़कर पेश किया गया है। इसलिए मैं बलराज पुरी, एजी नूरानी, एएस दुलत, नंदिता हक्सर, सुमन्त बोस, अशोक सेकसरिया, जवाहर कौल, शंकर सिंह, अशोक कुमार पांडेय आदि की किताबें-लेख खँगालने के बाद यह सब लिख रहा हूँ।
इन फिल्मों की शुरुआत वर्तमान प्रधानमंत्री के महिमामंडन से होती है। कश्मीर के घटनाक्रम को तोड़-मरोड़कर रखा गया है। उदाहरण के लिए दर्शाया गया है कि “आर्टिकल 370, शेख अब्दुल्ला के कहने पर नेहरूजी ने बनाया” जो कि सरासर गलत है! और सबसे हैरानी की बात यह कि इस फिल्म में मनुस्मृति लागू करने की माँग का पोस्टर अनुपम खेर के हाथ में है! इसलिए मैं पुनः 500 सालों के सिलसिलेवार घटनाक्रम रखने की कोशिश कर रहा हूँ।
1586 में सम्राट अकबर ने कश्मीर को मुगल साम्राज्य का हिस्सा बनाया था। उसके बाद सिख राजा रणजीत सिंह का राज था। लेकिन 1846 के एंग्लो-सिख युद्ध में अंग्रेजों ने जीत मिली थी, क्योंकि उस युद्ध में रणजीत सिंह के एक सरदार गुलाब सिंह ने उलटे अंग्रेजों की मदद की थी। अंग्रेजों को पहाड़ियों वाला ऊबड़-खाबड़ प्रदेश होने के कारण, कश्मीर पर राज करना अव्यावहारिक लगा! तो उन्होंने गुलाब सिंह, जो डोगरा सरदार थे, को 75 लाख रुपये में यह भूभाग दे दिया। और इस कारण वह अपने आप को महाराजा कहलाने लगे!
जब 1947 में भारत स्वतंत्र हो रहा था उस समय छह सौ के आसपास के देशी रियासतों में से कुछ रियासतों जूनागढ़, हैदराबाद के नवाब और कश्मीर के हिंदू राजा भारत में शामिल होने में आनाकानी कर रहे थे! और बैरिस्टर विनायक दामोदर सावरकर उनका समर्थन करनेवाले लोगों में एक थे! जूनागढ़ और हैदराबाद में अधिकांश जनता हिन्दू थी, और नवाब साहब मुसलमान। इसलिए इन दोनों रियासतों की जनता खुद भारत में शामिल होने के लिए, आंदोलन कर रही थी। लिहाजा, देर से ही सही, ये दोनों रियासतें भारत में शामिल हो गयी थीं। दूसरी ओर जम्मू-कश्मीर की अधिकांश आबादी मुसलिम, और राजा साहब हिन्दू। और शेख अब्दुल्ला की मुस्लिम कान्फ्रेंस, जिसका नाम 1935 से नेशनल कांफ्रेंस हो गया था, उसमें कश्मीर के सभी जाति-धर्म के लोग थे। वह राजाशाही के खिलाफ थी। और धर्म के आधार पर बँटवारे के भी खिलाफ थी। बँटवारे की प्रक्रिया में कश्मीर का कहीं भी नाम नहीं था! नब्बे प्रतिशत से ज्यादा मुस्लिम आबादी होने के बावजूद 1946 – 47 के बँटवारे में, कश्मीर का शुरू से ही शामिल न होना किस बात का परिचायक है?
जनतांत्रिक समाजवादी पार्टी की तरह ही, ‘जो जोतेग उसकी जमीन’ जैसे आंदोलन के लिए नेशनल कॉनफरेन्स जानी जाती है। और आजादी के बाद उन्होंने, भारत के अन्य प्रदेशों की तुलना में, जोतनेवाले लोगों को जमीन का मालिकाना हक दिलाने का काम अधिक किया है। और सबसे महत्त्वपूर्ण बात कश्मीर तब भी 90 फीसदी मुस्लिम बहुल प्रदेश होने के बावजूद वहाँ के सबसे प्रभावशाली राजनीतिक दल नेशनल कॉनफरेन्स को, बगल में ही मुस्लिम बहुल पाकिस्तान बन रहा है इसका कोई आकर्षण नहीं हुआ। शेख अब्दुल्ला धर्मनिरपेक्ष भूमिका के कारण पाकिस्तान में जाने के बजाय भारत के साथ रहने के पक्ष में थे। उलटे महाराजा हिंदू होने के बावजूद पाकिस्तान के साथ सौदेबाजी कर रहे थे, क्योंकि जिन्ना राजा का उनका दर्जा कायम रखने और कश्मीर को स्वायत्त रखने का झूठमूठ का आश्वासन दे रहे थे। उधर पश्चिमी सीमा प्रदेश की तरफ से कबायलियों के भेस में पाकिस्तानी सेना को कश्मीर पर कब्जा करने के लिए भेज दिया था।
हैदराबाद (भारत वाले) में पुलिस कार्रवाई करने के बाद वह भारत में शामिल हो गया। और जूनागढ़ भी। लेकिन कश्मीर के महाराजा हरिसिंह स्वतंत्र रहना चाहते थे! हालांकि 1944 में जिन्ना छह हफ्ते श्रीनगर में तंबू गाड़कर बैठे थे लेकिन खाली हाथ लौट गये। उन्हें कामयाबी नहीं मिली। हरिसिंह के प्रधान-मंत्री कश्मीरी पंडित रामचंद्र काक, भारत विरोधी थे! और उनके बाद मेहरचंद महाजन भी उन्हीं के जैसे थे! और ये दोनों बैरिस्टर मोहम्मद अली जिन्ना के साथ मिले हुए थे! महाराजा को खुद को भी भारत में शामिल होने में रुचि नहीं थी। वह भी जिन्ना की मीठी-मीठी बातों में उलझ गए थे।
1846 में अंग्रेजों से 75 लाख रुपये में खरीदने के बाद, 1947 तक यानी 101 सालों में 90 फीसदी मुसलमान आबादी वाले कश्मीर के 28 दिवानों में डोगरा महाराजा ने, एक भी मुसलमान या, गैर-डोगरा दिवान नियुक्त नहीं किया था! वही हाल अन्य सरकारी महकमों में भी था।
कश्मीर में इस्लाम बादशाहों के द्वारा नहीं फैला। 12वीं सदी में सूफी संतों के कारण, और वह भी जाति व्यवस्था के कारण फैला है। हालांकि यह बात पूरे भारतीय उपमहाद्वीप के इस्लाम फैलने पर लागू होती है। उसका सबसे ताजा उदाहरण डॉ बाबासाहब आम्बेडकर के येवला की सभा में 1936 के अक्तूबर में की गई घोषणा है कि “मैं हिन्दू के रूप में पैदा जरूर हुआ हूँ लेकिन मैं हिन्दू के रूप में मरूँगा नहीं!” और 20 साल बाद उन्होंने अपने लाखों अनुयायियों के साथ, 14 अक्तूबर दशहरे के दिन, 1956 में नागपुर के दीक्षाभूमि के मैदान पर बौद्ध धर्म की दीक्षा ली! इसका कारण क्या है? और सातवीं शताब्दी में केरल के कालिकत के किनारे स्थित भारत की पहली मस्जिद कुट्टीकुरा और उसी तरह भारत के पहले चर्च का निर्माण, उन दोनों धर्म के निर्माण होने के आसपास की यह गतिविधि है! जबकि कोई बादशाह पैदा नहीं हुआ था और न ही कोई क्रिश्चियन साम्राज्य! उस समय भारत में एक हाथ में तलवार और दूसरे हाथ में कुरान या बाइबल लेकर कोई नहीं आया था! भारतीय जातिव्यवस्था से तंग आकर लोगों ने खुद होकर इस्लाम या क्रिश्चियन धर्म को अपनाया है। और यही बात स्वामी विवेकानंद ने अपने दक्षिण भारत के प्रवास के दौरान कही है!
(जारी)