स्वतंत्रता : सुविधा नहीं दायित्व

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— नन्दकिशोर आचार्य —

जिस समाज में किसी भी प्रकार का शोषण-उत्पीड़न है वह समाज न केवल राजनैतिक-सामाजिक स्तर पर स्वतंत्र नहीं है बल्कि अनैतिक समाज है– क्योंकि वह स्वतंत्रता को एक समग्र मूल्य नहीं मानता, अतः उसके प्रति किसी प्रकार का नैतिक दायित्व भी नहीं स्वीकार करता।

स्वतंत्रता का क्या अर्थ है? इसी के साथ जुड़ा है स्वतंत्रता किस से का सवाल भी।  ‘फ्रीडम और  ‘फ्रीडम फ्रॉम को एक दूसरे से अलग करके नहीं देखा जा सकता, बल्कि  ‘फ्रीडम फॉर भी इसी सवाल का एक पहलू है, क्योंकि स्वतंत्रता कोई निष्प्रयोजन धारणा नहीं है।

दरअस्ल, स्वतंत्र हो सकने में ही हमारे मनुष्य हो सकने की सारी संभावनाएँ निहित हैं, क्योंकि स्वतंत्र हुए बिना सर्जनशील होना संभव नहीं और मनुष्य होने का अनिवार्य लक्षण सर्जनशील होना है– यही वह प्रवृत्ति है जो मनुष्य को अन्य प्राणियों से अलग करती है।

इसका मतलब हुआ कि स्वतंत्रता एक ऐसी गतिशील स्थिति है जो मनुष्य में निहित सर्जनात्मकता को प्रेरित करती है और इसीलिए वे सभी प्रवृत्तियाँ तथा स्थितियाँ स्वतंत्रता-विरोधी अतः मानव-विरोधी हैं जो मानवीय सर्जनात्मकता की अभिव्यक्ति के रास्ते में बाधाएँ पैदा करती हैं। उनके विरुद्ध किया गया हर संघर्ष इसीलिए स्वतंत्रता के लिए किया जानेवाला संघर्ष है। इस धारणा को आधार बनाकर ही इसके राजनीतिक-आर्थिक-सामाजिक प्रतिफलन को समझा जाना चाहिए क्योंकि वही इसका व्यावहारिक रूप है।

राजनैतिक–सामाजिक स्तर पर लोकतंत्र तथा आर्थिक स्तर पर समाजवाद के लिए किया जानेवाला हर संघर्ष इसीलिए स्वतंत्रता के लिए किया जानेवाला संघर्ष है। राजनैतिक दमन, सामाजिक उत्पीड़न तथा आर्थिक शोषण मूल रूप में एक ही स्वतंत्रता विरोधी प्रवृत्ति के अलग दीखने वाले रूप हैं पर बुनियाद एक ही है– स्वतंत्रता विरोध अर्थात् मानव विरोध।

लेकिन इन प्रवृत्तियों के खिलाफ किए जानेवाले संघर्ष में इस बात का खतरा भी निरंतर बना रहता है कि लोकतांत्रिक या समाजवादी व्यवस्था को ही स्वतंत्रता मान लिया जाय– तभी यह होता है कि वोट देने के अधिकार या रोटी-कपड़े के अधिकार को ही अंतिम कसौटी मान लिया जाय और यह नहीं देखा जाय कि जिस परम उद्देश्य स्वतंत्रता– अर्थात् स्वतंत्र सर्जनशील मानवीय चेतना के लिए संघर्ष किया गया था, उसी का दमन वोट के अधिकार या रोटी-कपड़ा देने के लिए किया जा रहा है।

इसीलिए यह देखते रहना निरंतर आवश्यक है कि कहीं लोकतंत्र या समाजवाद के नाम पर स्थापित की गयी व्यवस्था ने स्वयं को उस मूल्य से अधिक महत्त्वपूर्ण तो नहीं बना लिया है जिसके लिए उसे विकसित किया गया था– क्योंकि अक्सर यह देखा गया है कि संगठन और व्यवस्थाएँ बहुत शीघ्र अपने मूल्यगत उद्देश्यों को भूलकर अपना अस्तित्व बनाये रखने को ही– चाहे कभी भली नीयत से भी– प्रमुख उद्देश्य समझ लेती हैं तथा येनकेनप्रकारेण अपने औपचारिक स्वरूप को बनाये रखने के लिए उन मूल्यों के विरोध में ही काम करने लग जाती हैं, जिनके लिए उनका जन्म हुआ था। राजनैतिक दलों और विभिन्न सरकारों का इतिहास इस कथन की पुष्टि करता है।

इसीलिए न तो पूँजीवादी–सामन्तवादी समाजों को स्वतंत्र कहा जा सकता है और न समाजवादी कहे जानेवाले सर्वाधिकारवादी समाजों को ही, क्योंकि पहले प्रकार के लिए स्वतंत्रता कोई मूल्य नहीं, कुछ लोगों की सुविधा बन जाती है और शायद इसी की प्रतिक्रियास्वरूप दूसरे प्रकार के लिए एक प्रतिक्रियावादी धारणा और विलासिता।

यह आश्चर्यजनक है कि सामाजिक-आर्थिक संदर्भों में जिन दो भारतीयों ने हमारे युग में स्वतंत्रता की धारणा को इस परिप्रेक्ष्य में सर्वाधिक सही रूप में देखा, उन दोनों में आपस में कोई तालमेल नहीं हो सका, बल्कि एक दूसरे को काफी गलत भी समझा गया– उसके कारणों पर चर्चा फिर कभी। महात्मा गाँधी की अहिंसा और विकेंद्रीकरण तथा एम.एन.राय का बुनियादी लोकतंत्र एक दूसरे से जुड़े हैं– चाहे राय भौतिकवादी रहे हों और गांधी अध्यात्मवादी। लेकिन राय मनुष्य की सर्जनात्मक संभावनाओं में आध्यात्मिकता को भी एक मानते थे तथा गांधी की अहिंसा की धारणा में यह स्पष्ट था कि मनुष्य को उस सारे शोषण-उत्पीड़न से मुक्त किया जाय जो उसकी संभावनाओं को कुण्ठित करता है। स्वतंत्रता का संघर्ष इसीलिए गांधी के लिए एक आध्यात्मिक साधना थी।

हमारे यहाँ अहिंसा को बहुत एकांगी अर्थ में लिया जा रहा है– शायद इसीलिए कि यही अर्थ उन लोगों के अनुकूल पड़ता है जो शासनतंत्र, अर्थव्यवस्था तथा समाज पर हावी होते रहे हैं। यह वर्ग हिंसा को सिर्फ दैहिक अर्थों में ही ग्रहण करता है जो कि उसकी स्थूलतम अभिव्यक्ति है। बुनियादी अर्थ में तो वह हर भावना और चेष्टा हिंसा है जो मनुष्य मात्र अर्थात् प्रत्येक व्यक्ति सहित पूरी मानवता की सर्जनात्मक संभावनाओं की अभिव्यक्ति व पल्लवन का दमन करती है। सर्जनात्मकता का दमन हिंसा की सूक्ष्मतर और इसीलिए गुरुतर अभिव्यक्ति है।

इसीलिए हम ऐसे किसी भी कर्म को नैतिक स्तर पर उचित नहीं कह सकते जो स्वतंत्रता को कुठित करता हो चाहे वह किसी के द्वारा स्वेच्छा से ही क्यों न किया गया हो, क्योंकि इस प्रकार का कोई भी कर्म या निर्णय मूल्यगत स्तर पर स्वतंत्रताविरोधी है। इसी प्रकार किसी भी समाज में– चाहे उसने लोकतंत्र का औपचारिक रूप बना रखा हो– किसी प्रकार के शोषण और पूरी मानवता के साधनों और श्रम को किसी एक व्यक्ति, व्यक्ति समूह, वर्ग, जाति या देश द्वारा दोहन व उसके फलों को अपने उत्तराधिकारियों के लिए सुरक्षित कर देने की चेष्टा भी स्वतंत्रताविरोधी व अलोकतांत्रिक है।

स्वतंत्रता इसीलिए सुविधा नहीं उत्तरदायित्व है। जब हम उसे एक ऐसे मूल्य के रूप में स्वीकार करते हैं जिससे अन्य मानवीय मूल्य एक पोषण व संरक्षण पाते हैं तो निरंतर यह देखते चलने का उत्तरदायित्व भी हमीं पर आता है कि कहीं हमारा कोई कदम दूसरों की स्वतंत्रता को और इस प्रकार निज की सर्जनशीलता को भी कुंठित करनेवाला तो नहीं है।

पूँजीवादी-सामन्तवादी समाज यदि सही अर्थों में स्वतंत्र समाज नहीं हैं तो इसीलिए कि उस व्यवस्था में सारा जोर अपनी स्वतंत्रता पर केंद्रित है जो स्वतंत्रता का अवमूल्यन कर उसे व्यक्तिगत सुविधा के स्तर पर गिरा देता है। इसी प्रकार समाजवाद के नाम पर राजनैतिक तानाशाही कायम करनेवाले समाजों में भी इस बात की उपेक्षा की जाती है कि समाजवाद भी स्वतंत्रता की चरम धारणा की ही सामाजिक-आर्थिक अभिव्यक्ति है और इसीलिए किसी भी समाजवादी व्यवस्था की एक परख यह है कि वह एक समग्र धारणा के रूप में स्वतंत्रता को पुष्ट करती है या नहीं।

स्वतंत्र होने का अर्थ सर्जनशील होना है, अतः जो व्यवस्था मानवीय सर्जनशीलता को कुंठित करती है वह उतनी ही स्वतंत्रताविरोधी व अनैतिक भी है। गहराई से देखा जाय तो पूँजीवादी-सामंतवादी तथा समाजवादी कही जानेवाली सर्वाधिकारवादी व्यवस्थाएँ दोनों ही स्वतंत्रता का अवमूल्यन कर उसे एक ही स्तर पर ला पटकती हैं– एक उसे कुछ लोगों की वास्तविक सुविधा व अन्य सबके लिए एक औपचारिकता बना देती है तो दूसरी उसे बूर्ज्वा विलासिता समझ कर उसका दमन करती है। दोनों ही उसे मूल्यगत स्तर पर ग्रहण नहीं करतीं, इसीलिए दोनों में उसके लिए दायित्व का बोध नहीं है। इसीलिए जिस समाज में किसी भी प्रकार का शोषण-उत्पीड़न है वह समाज न केवल राजनैतिक-सामाजिक स्तर पर स्वतंत्र नहीं है बल्कि अनैतिक समाज है– क्योंकि वह स्वतंत्रता को एक समग्र मूल्य नहीं मानता, अतः उसके प्रति किसी प्रकार का नैतिक दायित्व भी नहीं स्वीकार करता।

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