माँ: एक अनकही कविता

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Parichay Das

— परिचय दास —

माँ एक स्मृति नहीं, वह स्मृति की मिट्टी है। वह भाषा नहीं, वह भाषा का गर्भ है। माँ कोई नाम नहीं, वह नाम के पहले की पुकार है—जो कभी पूरी नहीं होती , जो कभी थमती नहीं , जो कभी समाप्त नहीं होती। जीवन में जब कोई शब्द नहीं होता, तब भी माँ होती है। जीवन में जब कोई नहीं होता, तब भी माँ होती है। माँ होना किसी संज्ञा या विशेषण का धर्म नहीं है, यह एक अनाम क्रिया है जो स्वयं को चुपचाप करती रहती है।

वह स्त्री जो चुपचाप चूल्हे की आँच में अपने सपनों को सेंकती रही और अपने हिस्से की रोटियाँ बच्चों की थाली में रखती रही—वह केवल माँ नहीं, समय की सबसे सच्ची कविता थी। जो स्त्री यह जानती थी कि बच्चों के पेट की भूख और मन की थकान को अलग-अलग तरीके से मिटाया जाता है, वह संसार की सबसे बौद्धिक जीवित सत्ता थी।

हमने माँ को सिर्फ रिश्ते में देखा, हमने माँ को बस छाया में समझा पर माँ कोई संबंध नहीं, वह अस्तित्व की छाया नहीं, उसका मूल आलोक है। वह उजास है जिसकी वजह से हम अँधेरे से डरते नहीं। वह हमारी पीठ पर रखा हुआ एक अदृश्य हाथ है जो गिरने से पहले ही थाम लेता है और सफलता के सबसे ऊँचे शिखर पर चढ़ जाने के बाद भी हमारी पीठ को सहला देता है।

माँ कोई भूमिका नहीं निभाती, वह भूमिका रचती है। वह किसी उपस्थिति का दावा नहीं करती, वह अनुपस्थिति में सबसे अधिक उपस्थित रहती है। वह हमारे जीवन की नाट्यशाला की वह रोशनी है जो कभी मंच पर नहीं आती पर जिसके बिना कोई दृश्य दिखता नहीं।

कभी सोचा है, माँ आखिर थकती क्यों नहीं? वह थकती है। बहुत थकती है लेकिन उसकी थकान उसका सौंदर्य बन जाती है। उसकी झुर्रियों में वक्त के नक्शे छपते हैं, उसके बालों में चुपचाप रातें चुप जाती हैं और उसकी चप्पलों में घर के सारे रास्ते छुपे होते हैं। माँ वह घड़ी है जो समय से नहीं चलती पर समय को चलाती है।

जब माँ के हाथों में कोई किताब नहीं होती, तब भी वह पढ़ा देती है जीवन का सबसे कठिन पाठ। जब उसके पास शब्द नहीं होते, तब भी उसकी चुप्पी में सबसे गहरी बातचीत होती है। वह संवाद नहीं करती, वह संवाद की ज़मीन तैयार करती है। वह हमारे भीतर वह आर्द्रता भरती है, जिससे हम कठोर होते-होते बच जाते हैं।

माँ के हाथों की वह रोटियाँ अब किसी और स्वाद की नहीं रहीं। माँ के बिना खाना खाना, भूख की हत्या करना है। माँ के बिना घर, ईंट-पत्थर का जोड़ मात्र है। माँ के बिना त्योहार, तारीखों की चालाकी है। माँ के बिना नींद, आँखों की धोखेबाज़ी है। माँ के बिना सुबह, बस उजाले का छलावा है।

माँ की गोद सिर्फ सिर रखने की जगह नहीं होती, वह सिर को सोचने लायक जगह में बदल देती है। वहाँ सिर से विचार निकलते हैं, आँखों से आँसू नहीं, आत्मा बहती है। माँ की गोद में रखे सिर से कविता निकलती है, दर्शन जन्म लेता है, राजनीति छूछी रह जाती है। माँ राजनीति नहीं करती, वह दुनिया की सबसे बड़ी साजिश को भी प्रेम से विफल कर सकती है।

कितनी बार हम माँ से झल्लाए, कितनी बार उसके प्रेम को हल्के में लिया, कितनी बार उसकी बातों को टाल दिया—फिर भी वह हमारे लिए सुबह की पहली चाय में रही, हमारे स्कूल के बस्ते में रही, हमारे जूतों की गाँठ में रही, हमारे गाल पर आईं खरोंचों के ठीक होने तक अपने भीतर एक दर्द को जीवित रखती रही।

माँ एक अदृश्य चिकित्सक होती है—वह दवा नहीं देती पर दवा से अधिक असर करती है। उसकी एक सादी-सी फूँक, बच्चों के पेटदर्द को कहीं दूर भेज देती है। उसकी हथेली में कोई रहस्य है—जो माथे पर रख देने भर से बुखार पिघलने लगता है। उसके स्पर्श में कोई वेद-छंद नहीं, कोई मंत्र नहीं—पर एक अनकहा जादू होता है।

माँ जब हँसती है तो घर खिल उठता है और जब माँ रोती है तो दुनिया का सबसे मजबूत आदमी भी अपने भीतर टूटने लगता है। माँ की मुस्कान किसी भगवान की मूर्ति से अधिक प्रभावशाली होती है। माँ का मौन किसी उपदेश से अधिक तीव्र होता है। माँ की साँसों में एक पूरा मौसम बसता है—जिसे केवल वह संतान महसूस कर सकती है जो अब बहुत दूर चला गया है।

माँ की अनुपस्थिति धीरे-धीरे जीवन का सबसे कठिन पाठ बन जाती है। जब माँ नहीं होती तो समय अपनी गति खो देता है और जीवन अपनी दिशा। उसके न होने से सबसे पहले रसोई की दीवारें मौन हो जाती हैं। फिर आँगन की तुलसी सूखने लगती है। फिर नींद की गंध बदल जाती है और फिर एक दिन अचानक आईना भी अपनी शक्ल बदल देता है।

माँ के जाने के बाद हर चीज़ जैसे अनाथ हो जाती है—कपड़े, जो वह तह करती थी; बालों की चोटी, जो वह कसकर बाँधती थी; रजाई जो वह सर्द रातों में खींच दिया करती थी; सब-कुछ जैसे कोई भाषा भूल जाए। माँ के चले जाने के बाद कोई शब्द शेष नहीं रह जाता, केवल विराम बचता है—अपूर्ण, ठहरा हुआ, दीर्घ।

माँ कभी पूरी तरह नहीं जाती। वह कभी पीछे नहीं छोड़ती अपने को। वह बचे रह जाती है हमारे हर निर्णय में, हर डर में, हर अनकहे में। माँ के होने का कोई अंतिम संस्कार नहीं होता, उसका स्मरण ही उसका पुनर्जन्म है।

माँ एक मिट्टी है—जो हमारी आत्मा में बार-बार बोई जाती है और हर बार किसी नई करुणा के रूप में अंकुरित होती है। वह हर दुख को ऐसे पी जाती है, जैसे पेड़ आँधी को पी जाते हैं। वह कभी अपने आँसू नहीं दिखाती पर बच्चों की आँखों से टपकते आँसू की आवाज़ भी सुन लेती है। माँ के पास कोई यंत्र नहीं पर वह सबसे सटीक पूर्वानुमान करती है—कि अब तुम्हें बुखार चढ़ने वाला है या अब तुम्हें कोई चोट लगेगी या अब तुम्हारे भीतर कोई पीड़ा पल रही है।

माँ की छवि को शब्दों में बाँधना ठीक वैसा है, जैसे किसी नदी को किसी बोतल में भरने की कोशिश करना। माँ बहती है—हृदय में, स्मृति में, आँखों में, समय में, मृत्यु में भी। उसकी उपस्थिति किसी स्पर्श की मोहताज़ नहीं होती। वह चिट्ठियों में नहीं लिखती, वह चुपचाप हमारे भीतर लिखी जाती है।

माँ एक कविता है जो केवल तब पूरी होती है जब उसका पाठ करने वाला रो पड़ता है।

।। माँ माधुरी देवी की स्मृति में सभी माँ को ।।

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