— योगेन्द्र यादव —
इंडिया टुडे के नवीनतम, देशव्यापी जनमत सर्वेक्षण से सरकार और विपक्ष के लिए तीन संदेश निकलते हैं : अर्थव्यवस्था, अर्थव्यवस्था और अर्थव्यवस्था ! सत्ताधारी दल के लिए ये संदेश चेतावनी की घंटी है जिसकी गूंज अमृतकाल की परिक्रमा में किये जा रहे कीर्तन से कहीं ज्यादा है। विपक्ष के लिए यह एक मुंहमांगी मुराद की तरह है और उसे पता होना चाहिए कि इसका फायदा कैसे उठाना है।
लेकिन, जरूरी नहीं कि हर कोई इस सर्वेक्षण का पाठ इसी तर्ज पर करे। ओपीनियन पोल से हम ये उम्मीद लगाये बैठे होते हैं कि उससे चुनावों के नतीजे के बारे में साफ-साफ पता चल जाएगा। मेरा हमेशा से मानना रहा है कि दो चुनावों के बीच के समय में अगर सीटों के बारे में कोई भविष्यवाणी की जा रही है तो उसे शब्दशः ठीक ना मान लिया जाए, वोटशेयर के बारे में लगाये गये पूर्वानुमान कहीं ज्यादा उपयोगी होते हैं हालांकि यह भी बहुत मददगार नहीं होता और जनमत सर्वेक्षण में असली बात ये देखने की होती है कि उससे क्या रुझान निकलकर सामने आ रहे हैं।
यहां पाठकों की सुविधा के लिए यह बताते चलें कि इंडिया टुडे का मूड ऑफ द नेशन सर्वे लंबे समय से जनता-जनार्दन की मति-गति को भांपने का भरोसेमंद तरीका रहा है और सर्वे के नवीनतम दौर की गणना के आधार पर ये निकलकर आया है कि अगर साल 2022 के 15 से 31 जुलाई के बीच लोकसभा के चुनाव हो जाते तो बीजेपी को 283 सीटें मिलतीं (यानी साल 2019 में पार्टी को हासिल 303 सीटों से कुछ कम) और एनडीए को 307 सीटें आतीं (यानी पिछली बार की 353 सीटों के आंकड़े से एनडीए बहुत पीछे रह जाता)।
कुछ कमी आकलन के तरीके में भी है
लेकिन इन आंकड़ों को लेकर बहुत ज्यादा सिर खपाने की जरूरत नहीं। इसकी कई वजहें हैं। पहली बात तो यही कि सीटों को लेकर अगर भविष्यवाणी 20 महीने पहले की जा रही है तो उसे बहुत गंभीरता से नहीं लेना चाहिए। दूसरी बात, यह सर्वेक्षण बिहार के सियासी घटनाक्रम के बाद हुआ, हालांकि सर्वेक्षण करनेवालों ने राज्य में एक तुरंता सर्वे (स्नैप पोल) करवाकर बिहार की घटना के असर को भांपने की भरपूर कोशिश की (सर्वेक्षणकर्ताओं का आकलन है कि नीतीश कुमार के पाला बदलने से बीजेपी को 8 सीटों का घाटा होगा जबकि एनडीए को 21 सीटों का)।
सर्वेक्षण से अपने असंतोष का मैं दूसरा कारण भी यहां दर्ज कर ही दूं। इस साल के जनवरी से मूड ऑफ द नेशन सर्वे के अंतर्गत लोगों के घर पहुंचकर उनका आमने-सामने का साक्षात्कार लेना बंद कर दिया गया। पिछले छह दशक से सर्वे रिसर्च का यह एक ठोंका-आजमाया तरीका था और सेंटर फॉर दि स्टडी ऑफ डेवलपिंग सोसायटिज (सीएसडीएस) जैसे भरोसेमंद संस्थान अब भी इसी तरीके का इस्तेमाल करते हैं।
लेकिन, मूड ऑफ दि नेशन सर्वे करनेवाली नई एजेंसी सी-वोटर ने पूरे सर्वेक्षण में टेलीफोनिक इंटरव्यू का तरीका अपनाया। अब, ये बात ठीक है कि टेलीफोनिक इंटरव्यू करना सस्ता पड़ता है और इस नाते इंटरव्यू का यह तरीका पूरी दुनिया में पसंद किया जाता है। यह बात भी ठीक है कि मोबाइल फोन की मौजूदगी अब भारत में बहुत ज्यादा है लेकिन अब भी ये नहीं कहा जा सकता कि सबके हाथ में मोबाइल फोन आ चुका है। आप चाहे कितना भी महीन गणित करके संतुलन साधने की कोशिश कर लें लेकिन टेलीफोन के सहारे साक्षात्कार लेने का तरीका नागरिक को सर्वेक्षण की सबसे आखिरी कड़ी मानकर चलता है और ऐसे में सवालों के जो जवाब मिलने हैं उनमें कुछ ना कुछ आड़ा-तिरछा तो होगा ही।
अफसोस की एक बात यह भी है कि जिस इंडिया टुडे पत्रिका ने भारत में गुणवत्तापूर्ण ओपीनियन पोल की दिशा में किसी अग्रदूत सी भूमिका निभायी उसी ने सर्वेक्षण की पद्धति में किये गये इस बड़े बदलाव को कूट-भाषा में बताकर छिपाने की कोशिश की है (कहा गया है कि ‘यह सर्वेक्षण तमाम वर्गों के वयस्क उत्तरदाताओं के सीएटीआई इंटरव्यू पर आधारित है।’ क्या आपने गौर किया कि इस वाक्य में सीएटीआई का मतलब है, कंप्यूटर असिस्टेट टेलीफोनिक इंटरव्यू? क्या आप इस वाक्य से यह जान पाये कि सर्वेक्षण-कर्ता उत्तरदाताओं के घर तक नहीं पहुंचे?)।
सर्वेक्षण के लिए उत्तरदाताओं के जिस समूह को नमूने के तौर पर टेलीफोनिक इंटरव्यू के लिए चुना गया उनमें किन जाति और वर्गों के लोग शामिल हैं, स्त्रियों और पुरुषों की संख्या कितनी है—इस बारे में भी कोई जानकारी नहीं दी गई है। सर्वेक्षण में विभिन्न वर्गों से हासिल मुख्य उत्तरों को अलग-अलग श्रेणीवार नहीं दिखाया गया जबकि ऐसा करना बहुत जरूरी था (जैसे ये बताना कि आर्थिक संकट का अनुभव विभिन्न आर्थिक-वर्गों और स्त्रियों और पुरुषों के बीच वर्गवार कैसा है या यह कि विभिन्न धार्मिक समूहों के लोग कोटिवार सांप्रदायिकता के माहौल से जुड़े अपने अनुभवों के बारे में क्या बताते हैं)।
असल मामला अर्थव्यवस्था का है
इन कमियों के बावजूद सर्वेक्षण से हमें ढेर सारी जानकारी मिलती है, खासकर लोगों के मुख्य रुझान के बारे में। सबसे मुखर रूप से निकलकर आनेवाला संदेश यही है कि असल बात अर्थव्यवस्था की है। फिलहाल भारत को कौन सी सबसे बड़ी चुनौती का सामना करना पड़ रहा है? सर्वेक्षण से इस सवाल के तीन मुख्य उत्तर उभरकर सामने आते हैं। महंगाई (27 फीसद), बेरोजगारी (25 फीसद) और गरीबी (7 फीसद)। आर्थिक कठिनाइयों की बात लोगों के मन में सबसे ऊपर है और, अगर आप अर्थव्यवस्था की दशा-दिशा का पता देनेवाले आधिकारिक तथा अन्य आंकड़ों पर गौर करें तो स्पष्ट हो जाएगा कि लोगों के मन में ऐसी चिन्ता बेवजह नहीं है।
जैसा कि अक्सर देखने में आता है, महंगाई का मुद्दा इस बार भी सबसे ऊपर है। यों मुद्रास्फीति ज्यादा नहीं होती तो भी महंगाई का मुद्दा सबसे अव्वल होता है, भले ही उसका स्तर इतना ज्यादा ना होता हो। बेरोजगारी के मोर्चे पर आंकड़े जैसी विकट स्थिति का संकेत कर रहे हैं उसे देखते हुए आश्चर्य नहीं कि सर्वेक्षण में 56 प्रतिशत उत्तरदाताओं ने बेरोजगारी की हालत को `बहुत ज्यादा गंभीर` करार दिया है जबकि केवल 9 प्रतिशत का मानना है कि बेरोजगारी की हालत गंभीर नहीं है।
हालांकि मुझे ये देखकर आश्चर्य हुआ कि लोग मौजूदा आर्थिक स्थिति के अपने आकलन को आनेवाले दिनों के लिए भी सही मानकर चल रहे हैं। बीते दशकों में हुए सर्वेक्षणों के आधार पर कहा जा सकता है कि भारतीय नागरिक भावी आर्थिक दशा को लेकर आशावादी होते हैं भले ही उनकी मौजूदा हालत कितनी भी गयी-गुजरी हो। इस कारण, मुझे ये देखकर धक्का लगा कि सर्वेक्षण में 34 प्रतिशत उत्तरदाता मानकर चल रहे हैं कि अगले छह माह में देश की आर्थिक दशा और भी ज्यादा बुरी होगी जबकि 31 प्रतिशत को उम्मीद है कि अगले छह माह में आर्थिक दशा बेहतर होगी। छह माह पहले की तुलना में यह स्थिति एकदम उलट है। कोविड की दूसरी लहर के बाद के समय के अतिरिक्त मुझे ऐसा कोई और वक्त याद नहीं जब लोगों में देश की आर्थिक स्थिति को लेकर निराशा का भाव इस कदर ज्यादा रहा हो।
सर्वेक्षण आधारित रिसर्च से जुड़े होने के नाते मुझे इस बात का भरोसा रहता है कि लोग चाहे देश की आर्थिक दशा के बारे में ठीक-ठीक अनुमान ना लगा पायें लेकिन अपने घर की आर्थिक दशा के बारे में उनका अनुमान सटीक होता है। किसी के कहे में आकर देश की आर्थिक दशा के बेहतर या बदतर होने के बारे में आपके मन में गलत धारणा बन सकती है लेकिन बात अपने घर की आर्थिक स्थिति के बारे में हो तो अपने आप को धोखे में रखना मुश्किल है। बीते छह सालों से सर्वेक्षण में इंडिया टुडे यह सीधा सवाल पूछता आ रहा है कि : ‘साल 2014 में नरेन्द्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद से आपकी आर्थिक दशा में क्या बदलाव आया है?’ गौर कीजिए कि सवाल में नरेन्द्र मोदी का नाम लिया गया है और उनकी निरंतर जारी लोकप्रियता के कारण सवाल की ऐसी बनावट जवाब को सकारात्मक दिशा में ले जा सकती है।
इसके बावजूद, सर्वेक्षण में 36 प्रतिशत उत्तरदाताओं का कहना है कि उनकी आर्थिक स्थिति बदतर हुई है जबकि 28 प्रतिशत का कहना है कि साल 2014 से उनकी आर्थिक स्थिति बेहतर हुई है। आनेवाले दिनों को लेकर भी लोगों में यही मान्यता है : ज्यादातर उत्तरदाताओं का कहना है कि आनेवाले दिनों में उनकी आर्थिक हालत और भी खराब होगी जबकि आनेवाले दिनों में आर्थिक दशा के बेहतर होने की उम्मीद रखने वालों की संख्या कम है। किसी भी सरकार के लिए ऐसे आंकड़े बुरी खबर की तरह हैं, आंकड़ों से ऐसा रुझान दिखे तो समझना चाहिए कि अगले चुनाव में मतदाता सरकार बदलने जा रहे हैं।
अर्थव्यवस्था से राजनीति का रिश्ता
सारा कुछ इस बात पर निर्भर करता है कि लोग अपनी खराब आर्थिक दशा के लिए सरकार को दोष दे रहे हैं या नहीं। इस मोर्चे पर भी मोदी सरकार के लिए खबर अच्छी नहीं है। सरकारी की आर्थिक नीतियों की सकारात्मक(पॉजिटिव) रेटिंग अब 48 प्रतिशत है जो पिछले छह साल की तुलना में सबसे कम है। आर्थिक नीतियों की नकारात्मक (निगेटिव) रेटिंग 29 प्रतिशत पर पहुंच गई है, जो अबतक का सबसे ज्यादा है। उत्तरदाताओं से यह पूछने पर कि ‘एनडीए सरकार की सबसे बड़ी नाकामी क्या है’ सर्वेक्षण में जो तीन मुख्य जवाब मिले वे सब अर्थव्यवस्था से संबंधित हैं, यानी महंगाई, बेरोजगारी, आर्थिक वृद्धि।
बेशक, अब भी आर्थिक नीतियों को सकारात्मक बतानेवालों की संख्या, नीतियों को नकारात्मक बतानेवालों की तुलना में ज्यादा है और अन्य बातों को ध्यान में रखें तो कुल मिलाकर सरकार को लेकर अब भी लोगों के मन में सकारात्मक धारणा बनी हुई है क्योंकि कश्मीर, राम मंदिर, भ्रष्टाचार और (अचरज की बात कि) कोविड को लेकर सरकार ने जो पहलकदमी की उसे लोगों का समर्थन हासिल है। लेकिन महंगाई और बेरोजगारी के काबू में आने के संकेत नहीं हैं सो, सरकार के लिए अब भी बहुत कुछ चिन्ता की बात है।
क्या यह मोदी सरकार के अंत की शुरुआत है? ऐसा सोचना जल्दबाजी और बैठे-ठाले का फैसला माना जाएगा। प्रधानमंत्री की अपनी लोकप्रियता अब भी ऊंचाइयों पर बरकरार है भले ही उनके कामकाज को ‘खराब’ या फिर ‘बहुत खराब’ माननेवाले लोगों की संख्या पहले की तुलना में नई उंचाइयां छू रही है। फिर भी, अभी तक विपक्ष की ओर से ऐसा कोई नेता उभरकर सामने नहीं आया है जो प्रधानमंत्री की लोकप्रियता के कहीं आसपास भी दिखता हो। यों लोकतंत्र की दशा को लेकर लोगों में एक बेचैनी दिख रही है—लोकतंत्र को खतरे में बतानेवालों की तादाद ज्यादा है बनिस्बत उन लोगों के जो नहीं मानते कि भारत में लोकतंत्र खतरे में है—तो भी लोकतांत्रिक संस्थाओं की बर्बादी या फिर अभिव्यक्ति की आजादी पर कसी जा रही नकेल को लेकर लोगों में कोई प्रत्यक्ष आक्रोश नहीं दिखायी दे रहा। शायद भारत के लोग उदारवादी लोकतंत्र की बारीकियों के बजाय शासकों के घमंड और प्रतिशोध-भाव की ज्यादा फिक्र करते हैं।
जैसा कि इस कॉलम में पिछले हफ्ते कहा गया था, अभी से इस बात को मान लेने की कोई वजह नहीं है कि 2024 की चुनावी बाजी सत्ताधारी पार्टी ने जीत ली है। ऐसा बड़बोलापन और मीडिया में चलनेवाली शोशेबाजी सिर्फ दिमाग को भटकाने का खेल है जिसमें बीजेपी को महारत हासिल है। हमें यह भी नहीं मानना चाहिए कि बीजेपी हार की ओर बढ़ चली है। बिहार के राजनीतिक उथल-पुथल के बाद उभरता चुनावी परिदृश्य तथा सर्वेक्षण से निकलते आर्थिक संकट का पता देते आंकड़े इस बात का संकेत कर रहे हैं कि चुनावी मुकाबले का मैदान अब भी खुला हुआ है। अब दारोमदार विपक्ष पर है।
(द प्रिंट से साभार)