(भारत में मुसलमानों की बड़ी आबादी होने के बावजूद अन्य धर्मावलंबियों में इस्लाम के प्रति घोर अपरिचय का आलम है। दुष्प्रचार और सांप्रदायिक ध्रुवीकरण की राजनीति के फलस्वरूप यह स्थिति बैरभाव में भी बदल जाती है। ऐसे में इस्लाम के बारे में ठीक से यानी तथ्यों और ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य समेत तथा मानवीय तकाजे से जानना समझना आज कहीं ज्यादा जरूरी है। इसी के मद्देनजर हम रेडिकल ह्यूमनिस्ट विचारक एम.एन. राय की किताब “इस्लाम की ऐतिहासिक भूमिका” को किस्तों में प्रस्तुत कर रहे हैं। आशा है, यह पाठकों को सार्थक जान पड़ेगा।)
कुछ निश्चित परिस्थितियों में व्यापार आध्यात्मिक क्रांति का वाहक बन जाता है। अरब व्यापारियों की महत्त्वाकांक्षा ने हजरत मुहम्मद के एकेश्वरवाद के सिद्धांत का प्रतिपादन किया। इससे अनुप्राणित होकर मरुभूमि के घुमंतू बद्दूओं ने एक विशाल साम्राज्य की स्थापना की, जो इतिहास के बड़े साम्राज्यों की अपेक्षा अधिक संपन्न था। कुरान के नियमों ने सामाजिक संबंधों में क्रांतिकारी परिवर्तन किए। इस क्रांति के परिणामस्वरूप उत्पादन में वृद्धि हुई और उससे व्यापार बढ़ा, जिसने एक विश्वव्यापी दृष्टिकोण और आध्यात्मिक उन्नति का मार्ग प्रशस्त किया। व्यापार से मनुष्य का दृष्टिकोण विस्तृत हो जाता है। दूर के देशों की यात्रा और विभिन्न प्रकार के रीति-रिवाजों को देखने और विभिन्न प्रकार की जातियों के लोगों से मिलने का अवसर मिलता है।
इन कारणों से व्यापारी लोग अपने को देश की परिस्थितियों से उत्पन्न मूढ़ आग्रहों और सीमाओं से मुक्त कर लेते हैं। उनमें सहनशीलता, सहानुभूति और समझदारी की की क्षमता बढ़ती है जिससे वे दूसरे लोगों की आदतों, विचारों और विश्वासों को समझ सकते हैं। देखने और समझदारी से अनजाने समुद्री मार्गों की यात्राओं में उन्हें सहायता मिलती है। इससे नए देशों में जाने के लिए प्रोत्साहन मिलता है और आरामदेह विलासिता की भावना खत्म हो जाती है। आलोचना की शक्ति से उनके ज्ञान का प्रसार होता है। अपने व्यापार के गुणों से व्यापारी अमूर्त विचारों को सोचने की क्षमता प्राप्त करता है। उसे अपनी वस्तुओं में ही दिलचस्पी नहीं होती, उसके मस्तिष्क में लाभ की बात रहती है। उसके लिए इस बात की चिंता नहीं होती कि उसके ऊँटों अथवा जहाजों में ऊन अथवा अनाज लदा है अथवा उनमें मसाले भरे हैं। उसका हित इन वस्तुओं में न होकर उनसे भिन्न मुनाफे अथवा लाभ में निहित होता है। उसका व्यापार लाभ कमाने का माध्यम है जो उसे सामान की खरीद और बिक्री से मिलता है। वह वस्तुओं की प्रशंसा उनमें निहित मूल्यों के आधार पर नहीं करता वरन यह देखता है कि उनसे उसे कितना मुनाफा होगा।
उसमें नई और अद्भुत वस्तुओं के प्रति सहनशीलता होती है। वह उन्हें समझने की कोशिश करता है और ऐसा करने में उसमें कोई दुर्भावना अथवा पूर्वाग्रह नहीं होता। वह वस्तुओं की परख करता है और अमूर्त रूप में उनके संबंध में विचार करता है। व्यापारी में ये सभी गुण उसके पेशे के स्वाभाविक गुणों के रूप में उत्पन्न होते हैं और इन्हीं से उसका दार्शनिक दृष्टिकोण विकसित होता है। विभिन्न प्रकार के लोगों को देखने के बाद, जो विभिन्न प्रकार के मूढ़ आग्रहों को धार्मिक भावना के रूप में अपनाते हैं और विभिन्न प्रकार के रीति-रिवाजों के अनुसार व्यवहार करते हैं और शाश्वत सत्य को अपने दुराग्रहों के कारण नहीं अपनाते, इन सब बातों को देखकर यात्रा करनेवाला व्यापारी, लोगों के अज्ञान पर मुस्कराता है और सभी लोगों के विश्वासों के समान तत्त्वों का सम्मान करता है, जो उनके धार्मिक विश्वासों और उपासना की विविधताओं के आवरण में छिपे रहते हैं।
सरासेनी (अरब) साम्राज्य का व्यापारिक मार्ग, मध्य युग में उन देशों से होकर गुजरता था, जिन्होंने इस्लाम स्वीकार कर लिया था और वे सरासेनी साम्राज्य के अंतर्गत एक हो गए थे। चीन से व्यापार का उत्तरी मार्ग, जो कुस्तुनतुनिया से इटली और पश्चिमी यूरोप को जाता था, वह सीथियाई आक्रमणों के कारण सुरक्षित नहीं रह गया था और बेजेण्टाइन साम्राज्य की वित्तीय नीतियों से उन पर विनाशकारी प्रभाव पड़ता था। अरब लोगों ने सीरिया, मैसोपोटामिया, फारस और ओक्सस नदी के पार के क्षेत्रों को जीत लिया था और चीन के व्यापार मार्ग पर कब्जा कर लिया था। उन्होंने व्यापार मार्ग को अपने साम्राज्य के भीतर उत्तरी अफ्रीका और स्पेन तक शुरू किया, जिससे पश्चिमी यूरोप के बाजारों में उनके मार्गों से सामान पहुँचने लगा। आठवीं से ग्यारहवीं शताब्दी तक भारत और चीन का संपूर्ण व्यापार और दूसरी ओर यूरोप के देशों का व्यापार अरब व्यापारियों द्वारा होता था। हजारों व्यापारी अपने-अपने कारवाँओं के द्वारा चीन और भारत से हर प्रकार का कीमती सामान मोरक्को और स्पेन तक पहुँचाते थे। उन लोगों को कहीं भी, किसी भी पुरानी सभ्यता वाले देश में परेशान नहीं किया जाता था और न उनसे घृणा की जाती थी।
इस संबंध में यूनान ही एक अपवाद था। सरासेनी (अरब) साम्राज्य में तो वे लोग शासक वर्ग के माने जाते थे। इसके परिणामस्वरूप ज्ञान और संस्कृति का विकास और प्रसार हुआ क्योंकि सरासेनी साम्राज्य उन दिनों में अत्यंत समृद्ध था और उसमें दृष्टिकोण की विशालता थी, उसमें सार्वभौमिकता और अविश्वास की भावना भी व्याप्त थी। सैनिक अभिजात नेतृत्व के अधीन और ईर्ष्यापूर्ण मौलवियों के प्रभाव में मानववादी सिद्धांत का रूप विकृत हो गया और अंधविश्वास और कुहासे में छिपे रहस्यवाद का प्रसार होने लगा। संसार के विवेकसंपन्न सिद्धांत की खोज में जो दर्शन उत्पन्न हुआ था वह समाज से उत्पन्न हुआ था और उस समाज में व्यापार के अभिजात वर्ग का शासन था। यूनान के आईनोनियन नगर-राज्यों में दर्शन का जन्म हुआ था।
इस्लाम अनिवार्य रूप से इतिहास से उत्पन्न हुआ दर्शन था, जो मानव-विकास का वाहक था। उसका विकास एक नये सामाजिक संबंधों के सिद्धांत के रूप में हुआ था जिसने अन्त में मानव-मस्तिष्क को क्रांतिकारी बनाया। लेकिन जिस प्रकार उसने पुरानी संस्कृतियों को गुलाम बनाया और उनको पद-दलित किया, उसी प्रकार समय बीतने पर उसका भी पतन हुआ। उसके बाद के सामाजिक विकास के बाद नये आध्यात्मिक नेतृत्व ने उसका स्थान लिया, जो नयी परिस्थितियों में उत्पन्न हुआ था। लेकिन उसने नये सिद्धांतों को विकसित करने में सैद्धांतिक योगदान किया जो बाद की सामाजिक क्रांतियों से उत्पन्न हुए। प्रयोगात्मक विज्ञान और विवेक-सम्मत दर्शन ऐसे तत्त्व थे जिनसे नवीन सिद्धांतों का जन्म हुआ। इस्लाम की संस्कृति को इस बात का श्रेय है कि उसके अंतर्गत नवीन सामाजिक क्रांति को विकसित करनेवाले तत्व विकसित हुए।
पूँजीवादी उत्पादन के ढंग ने यूरोप को मध्ययुगीन बर्बरवाद की अव्यवस्था से मुक्त किया। उसने लंबी अवधि तक ईसाई धर्म के सिद्धांतों के विरुद्ध संघर्ष किया और अंत में उन्हें परास्त किया। कैथोलिक ईसाई संप्रदाय के आध्यात्मिक एकाधिकार को नष्ट करके विवेक-सम्मत दर्शन का विकास हुआ। इस अस्त्र को प्राचीन यूनानी विचारकों ने ढूँढ़ा था और अरब विद्वानों ने उसे अपनाकर आधुनिक सभ्यता के संस्थापकों को सौंपा। अरब विचारकों ने मानव-जाति के पूर्वज विचारकों के विचारों को अधिक समुन्नत करके उन्हें आगे की पीढ़ियों को दिया। इस प्रकार उस ऐतिहासिक संघर्ष ने, जिसे मरुस्थल के घुमंतू लोगों ने इस्लाम के झंडे के नीचे शुरू किया था और जिसने कदम-कदम पर युद्ध कर हजार वर्षों के दौरान तीन महादेशों में उसे फैलाया, यूरोप में अंतिम बार विजय प्राप्त की और उसके प्रभाव ने अठारहवीं शताब्दी में नवजागरण और पूँजीवादी क्रांतियों के नेतृत्व में नए सिद्धांत को जन्म दिया।