इस्लाम की ऐतिहासिक भूमिका – एम.एन.राय : छठी किस्त

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एम.एन. राय (21 मार्च 1887 - 25 जनवरी 1954)

(भारत में मुसलमानों की बड़ी आबादी होने के बावजूद अन्य धर्मावलंबियों में इस्लाम के प्रति घोर अपरिचय का आलम है। दुष्प्रचार और सांप्रदायिक ध्रुवीकरण की राजनीति के फलस्वरूप यह स्थिति बैरभाव में भी बदल जाती है। ऐसे में इस्लाम के बारे में ठीक से यानी तथ्यों और ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य समेत तथा मानवीय तकाजे से जानना समझना आज कहीं ज्यादा जरूरी है। इसी के मद्देनजर हम रेडिकल ह्यूमनिस्ट विचारक एम.एन. राय की किताब “इस्लाम की ऐतिहासिक भूमिका” को किस्तों में प्रस्तुत कर रहे हैं। आशा है, यह पाठकों को सार्थक जान पड़ेगा।)

इस्लाम की सामाजिक और ऐतिहासिक पृष्ठभूमि

स्लाम- शांति के धर्म– की रचना हजरत मुहम्मद ने उसी अर्थ में की जिसमें अन्य धर्मों के संस्थापकों को उनका जन्मदाता कहा जाता है। कोई भी धर्म किसी एक व्यक्ति की रचना नहीं होती और न उसका उदय एकाएक होता है और न किसी दार्शनिक को वह ज्ञान प्रकट होता है। इस्लाम भी अन्य धर्मों की भांति अपने युग की परिस्थितियों और अपने वातावरण से उत्पन्न हुआ था।

यद्यपि अरब देश के किनारे से असीरिया, फारस, मेसिडोनिया और रोम की सेनाएँ एक ओर से दूसरी ओर आती-जाती रहीं, लेकिन बड़े अरब प्रायद्वीप के निवासियों ने अपने देश की प्राकृतिक स्थिति के कारण अपनी स्वतंत्रता को सुरक्षित रखा। अरब प्रायद्वीप की प्रकृति का प्रभाव उनके जीवन पर भी पड़ा। लेकिन उनमें स्वतंत्रता के लिए उत्कट प्रेम था और वे घुमंतू जीवन के आदी हो गए थे। अरब मरुस्थल के निवासी अनेक कबीलों में बँट गए थे जो परस्पर एक-दूसरे से लड़ा करते थे।

मानव-जाति के अन्य समूहों से अलग रहने के कारण अरब लोग अजनबी को शत्रु मानते थे। देश की गरीबी के कारण उनकी इस भावना को और अधिक बल मिला। इन दो बातों की पृष्ठभूमि में अरब के कानून और नैतिकता का विकास हुआ। उनका विश्वास था कि इस्माइल, जिसको समाज से निष्कासित किया गया था, के वंशजों का मरुस्थल में रहना ही, उनका भाग्य है जबकि मानव-जाति के दूसरे समूहों को उर्वर देशों में रहने का अवसर मिला है। इसके परिणामस्वरूप उन लोगों को यह उचित प्रतीत हुआ कि वे अपने देश मरुस्थल पर सैन्य बल से अधिकार करें, जो उनसे छीन लिया गया था।

रोम के इतिहासकार पिलनी ने मुहम्मद के आगमन से 600 वर्ष पूर्व इस बात का पता लगाया था कि अरब लोगों में डाकाजनी और व्यापार, दोनों पेशों को लाभदायक समझा जाता है। इनके अतिरिक्त वे भेड़ और घोड़ों का पालन करते थे। सामाजिक विकास के आरंभिक दौर में डाकाजनी और व्यापार में विभाजन की एक पतली रेखा थी। व्यापार में सस्ते मूल्य पर वस्तु खरीद कर उसे अधिक मूल्य पर बेचने से मुनाफा मिलता था। जो वस्तु खरीदने में जितना कम मूल्य दे सकता था उसे मुनाफा उतना ही अधिक मिलता था। डाकाजनी और चोरी में वस्तु का सबसे कम मूल्य लगता था। अतः जहाँ व्यापार के इस मौलिक सिद्धांत की नैतिकता को स्वीकार कर लिया जाता है और अधिक-से-अधिक मुनाफा कमाना उचित मान लिया जाता है वहाँ व्यापारिक प्रतिस्पर्धा के कारण वस्तुओं का मूल्य कम रखा जाता था। प्रतिस्पर्धा को समाप्त करने का एक तरीका यह है कि अपने प्रतिस्पर्धा के सामान को लूट लिया जाय। इस रणनीति से प्रतिस्पर्धी को बाजार से हटाया जा सकता था और उसकी वस्तुओं को अधिक योग्य व्यापारी के द्वारा बाजार में पहुँचाया जाता था। इसके साथ ही व्यापारिक मार्गों और व्यापार पर एकाधिकार रखने में भी डाकाजनी‌ से मदद मिलती थी।

प्रारंभिक दौर में सभी स्थानों पर व्यापार इन्हीं व्यावहारिक नीतियों के अनुसार किया जाता था, जिनके बारे में सुनकर संभवतः आधुनिक व्यापारी को धक्का लगेगा। फिर भी डाकाजनी ऐसा उपाय था जिससे उसके कट्टर पूर्वजों ने अपने व्यवसाय को जमाया और उसको सम्मानजनक बनाया। व्यापार में ‘ईमानदारी सबसे अच्छी नीति’ का सिद्धांत बाद में अपनाया गया।

डाकाजनी के अतिरिक्त मानव-जाति की वहशी तरुणाई के दिनों में युद्ध करने को राजनीतिक गुण माना जाता था और इन गुणों का आदर किया जाता था। अपने देश की भौगोलिक स्थिति के कारण अरब लोगों में डाकाजनी का प्रचलन हुआ और बाद में उसका विकास व्यापार और युद्ध के क्षेत्र में हुआ। उनकी वीरता और युद्धप्रियता ने काल्पनिक कहानियों का रूप ले लिया है। प्रसिद्ध इतिहास कृति ‘अयम ऊल अरब’ में सरासेनी साम्राज्य के उन्नत समय के युद्धों का वर्णन है। उसमें हजरत मुहम्मद के पहले के 1700 युद्धों का उल्लेख है जो अरब लोगों ने लड़े थे। अतः सरासेनी योद्धाओं का युद्धकौशल उन्हें इस्लाम धर्म से प्राप्त नहीं हुआ था। ‘अल्लाह की फौज’ में शामिल होने से पहले भी वे योद्धा थे। अरब योद्धाओं की विजयों का श्रेय हजरत मुहम्मद की इस्लाम की शिक्षाओं को उतना नहीं है जितना उस देश की तत्कालीन परिस्थितियों को है।

हजरत मुहम्मद के पहले अरब लोगों में जो युद्ध हुए उनमें अधिकांश उन कबीलों के अंतःकलह के कारण हुए और उन्हें बर्बरता से लड़ा गया था, लेकिन उनमें भी सम्मान, शौर्य और अभिजात्य के गुणों पर जोर दिया जाता था। अत्यधिक रक्तपात से भी अरब देश की भूमि को उर्वर नहीं बनाया जा सका था, लेकिन उनका यह प्रभाव पड़ा कि आरंभिक अरब लोगों की डाकाजनी और व्यापार को लोगों ने अच्छा समझना छोड़ दिया। उस समय की, आर्थिक आवश्यकता इस बात की थी कि परंपरागत विनाशकारी युद्धों के घमंड को छोड़ा जाय और परंपरागत सरासेनी योद्धाओं की वीरता को अधिक लाभदायक कार्यों में लगाया जाय। इस आवश्यकता से उत्पन्न विचार ने हजरत मुहम्मद के धर्म का रूप ग्रहण किया।

अरब देश स्वत: बड़ा मरुस्थल है, लेकिन उसके तीन ओर घनी आबादियों के देश हैं, जिनमें प्राचीन सभ्यताओं का विकास हुआ था और जहाँ अनादिकाल से उद्योग और कृषि की समृद्धि थी। अरब के दक्षिण में समुद्र है जिससे होकर भारत से व्यापार होता था। भौगोलिक स्थिति के कारण अरब में व्यापारिक कारवाँ मार्ग थे, जिनसे भारत, फारस, असीरिया, सीरिया, फिलस्तीन, मिस्र और अबीसीनिया के लिए व्यापार होता था। आरंभ में अरब प्रायद्वीप के दक्षिणी और उत्तरी भाग में अफ्रीका और एशिया के व्यापारिक मार्ग मिलते थे। उन रास्तों से अरब के रेतीले मरुस्थल के भीतरी भागों को जानने का प्रयास नहीं किया गया। लेकिन बेजेण्टाइन साम्राज्य के निरंकुश करों की वसूली और स्थानीय अधिकारियों की लूट-खसोट के कारण व्यापारियों ने अधिक भयंकर, लेकिन अपने घरों में उदार व्यवहार करने वाले बद्दुओं के क्षेत्र से गुजरना पसंद किया।

आरंभ में लोग अपने विशेष कानूनों और नैतिकता के अनुसार शुल्क वसूल करते थे। लेकिन समय बीतने पर उन्हें मालूम हुआ कि डाकाजनी से अधिक लाभप्रद व्यापार करना है। सभी अरब कबीलों में कुर्रेश कबीले के लोगों ने उपद्रवी व्यवहार छोड़कर शांतिपूर्ण और लाभदायक पेशे को अपनाया। वे लोग ज्यादातर लालसागर के तटवर्ती क्षेत्र में रहते थे और अबीसीनीया के साथ होनेवाले व्यापार पर उनका अधिकार हो गया। उसके बाद एशियाई व्यापार मार्गों पर उनका अधिकार हो गया। ईसा की आरंभिक शताब्दियों में कुर्रेश कबीले की राजधानी मक्का में थी और वहाँ दक्षिण से उत्तर और पूर्व से पश्चिम वाले व्यापार मार्ग मिलते थे। अरब सागर के तट पर यमन में कुर्रेश कबीले के लोग आनेवाली वस्तुओं को अपने कारवाँओं में लेते थे और अदन में अबीसीनिया से आनेवाली अफ्रीकी बहुमूल्य वस्तुओं को प्राप्त करते थे। उत्तर की ओर की यात्रा में उनके कारवाँ दमिश्क की गुलजार मंडियों में रुकते थे। वहाँ से वे अनाज और उत्पादित वस्तुएँ लेते थे और उनके बदले में इत्र, मोती, जवाहिरात और हाथी-दाँत आदि वस्तुओं को बेचते थे। उनके व्यापार के लाभ से मक्का के रास्तों में समृद्धि दिखायी देती थी। बाद में जब पूर्व और पश्चिम का व्यापार भी मक्का होकर गुजरने लगा तो कुर्रेश कबीलों की समृद्धि बढ़ गयी और उससे उनकी महत्त्वाकांक्षाओं में वृद्धि हुई।

लेकिन अरब लोगों के दूसरे कबीले उनकी स्वतंत्रता और समृद्धि से ईर्ष्यालु हो गए। वे अपनी परंपराओं के अनुसार ही कानूनों और नैतिकता का व्यवहार करते थे और इस बात की चिंता नहीं करते थे कि वे कैसे उत्पन्न हुए थे। उनके आक्रमणकारी और सुरक्षात्मक कार्यों ने अभिजात आचरण का रूप ले लिया।

पुराने ढंग की डाकाजनी का, जिसके शिकार अजनबी लोग होते थे, नये राष्ट्रीय व्यवसाय और व्यापार पर घातक प्रभाव पड़ता था। उस दशा में आगे के राजनीतिक विकास के लिए यह अनिवार्य शर्त हो गई कि कबीलों के युद्धों को समाप्त किया जाय। ऐतिहासिक घटनाओं की नियति के रूप में एकता की स्थापना आवश्यक हो गई जिससे ऐतिहासिक लक्ष्य को पाने के लिए आर्थिक शक्तियों को नियमित किया जा सके। इस दृष्टि से कुर्रेश कबीले का इतिहास ने चुनाव किया।

(जारी)

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