आज के भारत में गांधीमार्गी राजनीति की मुश्किलें

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— आनंद कुमार —

ज के भारत में गांधीमार्गी राजनीति की समझ बनाने के लिए हमें कम से कम तीन पड़ताल करनी होगी : (1) गांधी और उनकी राजनीति का संदर्भ; (2) गांधी के बाद, 1948 से 1979 के दरम्यान उनके अनुयायियों में वैविध्य को रेखांकित करना; और (3) ग्लोबीकरण और बहुसंख्यकवाद के आज के जमाने में गांधीमार्गी राजनीति का सिंहावलोकन।

1. गांधी और उनकी राजनीति का संदर्भ

गांधी सदाचारी जीवन और समाज के लिए समर्पित थे, जो उनके दो आदर्शों- सत्य और अहिंसा- पर आधारित हो। उनका उद्यम स्वराज, स्वदेशी और सर्वोदय के लिए था। उनकी पद्धति में चरित्र निर्माण, रचनात्मक कार्यक्रम, असहयोग और सत्याग्रह का विवेकपूर्ण सम्मिलन था। सत्ता पाने की राजनीति के प्रति उनमें तनिक भी आकर्षण नहीं था।

‘आत्म-शक्ति’ या सत्याग्रह पर आधारित एक नयी तरह की राजनीति के प्रवर्तक के रूप में गांधी का अभ्युदय 11 सितंबर 1906 को ट्रांसवाल (दक्षिण अफ्रीका) में हुआ। उनके नेतृत्व में 1917 (चंपारण सत्याग्रह) से लेकर 1946 (भारत छोड़ो आंदोलन) तक चले अनवरत स्वाधीनता संघर्ष के बाद विदेशी हुकूमत से देश को आजादी मिलने के थोड़े ही दिनों के भीतर एक हत्यारे ने 30 जनवरी 1948 को उनकी प्रेरक जीवन यात्रा का अंत कर दिया। गांधी भारतीय जैन दार्शनिक श्रीमद् राजचंद्र (1867-1901), रूसी साहित्यकार एवं स्वप्नद्रष्टा लियो टाल्सटाय (1828-1910), अमरीकी प्रकृतिवादी हेनरी डेविड थोरो (1817-1862) और ब्रिटिश चिंतक जॉन रस्किन (1819-1900) से अलग अलग रूप में प्रभावित थे। यों तो वह एक निरंतर विकासोन्मुख राजनेता थे पर उन्होंने अपने बुनियादी मूल्य और विचार ‘हिन्द स्वराज’ में पेश किए जिसे ‘इक्कीसवीं सदी के लिए एक घोषणापत्र’ की तरह देखा जाता है।

गांधी विचारधारात्मक अर्थ में लोकप्रिय राजनेता नहीं थे। चाहे हिन्दू राष्ट्रवादी हों या मुस्लिम राष्ट्रवादी, चाहे रूढ़िवादी पंडे-पुरोहित हों या दलित नेता, चाहे राजे-रजवाड़े हों या आमूल परिवर्तनवादी (रैडिकल), चाहे पूंजीवादी हों या साम्यवादी, चाहे लिबरल हों या उग्रपंथी, बराबर गांधी की आलोचना करते रहते थे। लेकिन गांधी का असर बढ़ता गया और उनकी हत्या के बाद आधुनिक दुनिया के अधिकांश हिस्से में उनसे प्रभावित नयी लहरें पैदा हुईं। भारत में विनोबा और जेपी के नेतृत्व में चला सर्वोदय आंदोलन, मार्टिन लूथर किंग जूनियर के नेतृत्व में अमरीका में चला नागरिक अधिकार आंदोलन, दक्षिण अफ्रीका में नेल्सन मंडेला के नेतृत्व में चला रंगभेद विरोधी आंदोलन, पाकिस्तान में ख़ान अब्दुल गफ़्फार ख़ान के नेतृत्व में चला तानाशाही विरोधी आंदोलन, यूरोप में चला हरित आंदोलन (ग्रीन मूवमेंट), दलाई लामा के नेतृत्व में हुआ तिब्बती प्रतिरोध और शांति तथा न्याय के लिए लातिनी अमरीका में चले आंदोलन इसके कुछ शानदार उदाहरण हैं। यह उल्लेखनीय है कि संयुक्त राष्ट्र 2007 से गांधी जयंती (2 अक्टूबर) को अंतरराष्ट्रीय अहिंसा दिवस के रूप में मना रहा है।

2. गांधी के बाद शुरुआती दशकों में प्रमुख भिन्नताएं

गांधी के बाद के शुरुआती दशकों में गांधी की राह चलनेवालों में तीन स्पष्ट रुझान दीखते हैं। रूढ़िभंजक गांधीनिष्ठ समाजवादी डॉ राममनोहर लोहिया ने इसे इस प्रकार व्यक्त किया है – (क) सरकारी गांधीमार्गी (नेहरू, पटेल, राजेन्द्र प्रसाद और अन्य सत्तारूढ़ नेताओं के नेतृत्व में); (ख) मठी गांधीमार्गी (विनोबा भावे से प्रेरित रचनात्मक कार्य में लगी संस्थाएं); और (ग) कुजात गांधीमार्गी (जिनका प्रतिनिधित्व साने गुरुजी, कृपलानी और लोहिया जैसे विपक्ष के राजनेता करते थे)।

1970 के दशक में इस वर्गीकरण की जगह दो ध्रुवीय विभाजन ने ले ली- (1) जन आंदोलन के समर्थक गांधीमार्गी; और (2) आंदोलन विरोधी सर्वोदयी। आंदोलनपक्षी गांधीमार्गियों ने सार्वजनिक जीवन में बढ़ते भ्रष्टाचार के खिलाफ जयप्रकाश नारायण की पहल का समर्थन किया जिन्होंने ‘संपूर्ण क्रांति’ का आह्वान किया था। उससे पहले गुजरात में नव निर्माण आंदोलन हो चुका था जिसका उप प्रधानमंत्री रह चुके मोरारजी देसाई जैसे सरकारी गांधीमार्गियों ने समर्थन किया था। इमरजेंसी (जून 1975 – मार्च 1977) के दौरान जेपी और देसाई समेत बहुत सारे नेता जेलों में बंद कर दिए गए। बाद में उन्होंने ‘तानाशाही को पराजित करने और लोकतंत्र की बहाली’ के लिए खुलकर अभियान चलाया और विपक्षी नेताओं को सहयोग दिया। उन दिनों एक शब्द-युग्म बहुत लोकप्रिय हुआ था- गांधीवादी समाजवाद।

‘आंदोलन विरोधी गांधीमार्गियों’ ने इसे आध्यात्मिक राह से भटकने और गांधीमार्गी विरासत का ‘राजनीतिकरण’ करार दिया। यही नहीं, उन्होंने ‘फासिस्ट विरोधी सम्मेलनों’ के आयोजन में कम्युनिस्ट पार्टी का साथ दिया। उन्होंने सत्तारूढ़ कांग्रेस पार्टी और उसके तानाशाही शासन का समर्थन किया। उन्होंने गांधीमार्गी कार्यकर्ताओं के बीच फूट डालने की कोशिश की।

1970 के दशक की उथल पुथल का एक नतीजा यह हुआ कि छात्र युवा संघर्ष वाहिनी जैसे नए संगठनों के जरिए गांधीमार्गी आंदोलन में युवा शरीक हुए। स्त्रियां भी कई आंदोलनों का चेहरा बन रही थीं, जैसे वन रक्षा का आंदोलन (चिपको आंदोलन), नदियों को बचाने का आंदोलन (नर्मदा बचाओ आंदोलन), और शराब माफिया का विरोध। फिर बहुत सारे गांधीमार्गी ‘सिटिजंस फॉर डेमोक्रेसी’ (सीएफडी) और ‘पीपुल्स यूनियन फॉर सिविल लिबर्टीज’ (पीयूसीएल) जैसे संगठनों के जरिए नागरिक आजादी तथा लोकतांत्रिक अधिकारों की रक्षा और सुदृढ़ीकरण में लगे थे।

3. दिशा परिवर्तन का दौर और गांधीमार्गियों की प्रतिक्रिया

भारत ने 1992 में निर्णायक तरीके से बाजार केंद्रित आर्थिक सुधारों की राह पकड़ ली। इसे कल्याणकारी राज्य से उदारीकरण, निजीकरण, ग्लोबीकरण की तरफ एक बड़े बदलाव के तौर पर देखा गया। इसके चलते हमारे नवोदित लोकतंत्र ने जनकल्याणकारी भूमिका से कदम पीछे खींचने शुरू किए और वह बाजार तथा व्यापारीकरण के लिए रास्ते बनाने में जुट गया। यह हैरत की बात नहीं कि ग्रामोद्योगों पर प्रतिकूल प्रभाव, पर्यावरणीय तबाही, उपभोक्तावाद और भ्रष्टाचार का हवाला देते हुए गांधीमार्गियों ने नीतियों में हुए उपर्युक्त बदलाव का कई मोर्चों पर विरोध किया।

गांधी की राह चलनेवालों की कार्यशैली में यह एक नया मोड़ था। उन्होंने ग्रामीण तथा आदिवासी इलाकों में बहुराष्ट्रीय निगमों के प्रवेश के खिलाफ स्थानीय समुदायों से हाथ मिलाया। ‘जन आंदोलनों का राष्ट्रीय समन्वय’ (नेशनल एलायंस ऑफ पीपुल्स मूवमेंट – एनएपीएम) और ‘वर्ल्ड सोशल फोरम’ दो बड़े मंच थे जहां गांधीमार्गियों और स्थानीय समुदायों के प्रतिनिधियों, श्रमिक संघों और किसान संगठनों के बीच नए गठजोड़ बने। उन्होंने आर्थिक नीतियों के दिशा परिवर्तन की कड़ी आलोचना की, क्योंकि यह स्वदेशी तथा स्वावलंबन जैसे गांधीमार्गी लक्ष्यों के सर्वथा विपरीत था। उनके प्रतिरोध की अनदेखी नहीं की जा सकती थी। नतीजतन 2004 से 2014 के बीच ग्रामीण रोजगार गारंटी, वनाधिकार, शिक्षा का अधिकार और सूचना का अधिकार जैसे हकदारी के कई कानून बनाए गए।

2014 में सत्ता हुए परिवर्तन के बाद से गांधीमार्गी राजनीति और ज्यादा प्रतिरोध की राजनीति बनी है। वे कांग्रेस के नेतृत्व वाले यूपीए शासन की आर्थिक नीतियों की आलोचना करते रहते थे, 1992 से 2014 के बीच, 1989-91और 1999-2004 के दौर को छोड़कर। 1992 से 2014 के बीच अधिकांश समय कांग्रेस ही सत्ता में रही। लेकिन इन गांधीमार्गियों में से अधिकतर लोग यह मानते हैं कि एनडीए (नेशनल डेमोक्रेटिक एलायंस) की सरकार न सिर्फ जनविरोधी आर्थिक फैसले ले रही है बल्कि सांप्रदायिक (अल्पसंख्यक विरोधी) और बहुसंख्यकवादी (हिंदुत्व) एजेंडे को भी आगे बढ़ा रही है। इस अहसास ने इन लोगों को गैर-एनडीए राजनीतिक दलों और सिविल सोसायटी के अभियानों में एकजुट किया है।

आज (क) नागरिक आजादी, (ख) सभी धर्मों का सम्मान, (ग) चुनाव सुधार (घ) सांप्रदायिक हिंसा (च) पर्यावरणीय हिंसा (छ) कृषि संकट, और (ज) ऊंचे पदों पर भ्रष्टाचार, आदि गांधीमार्गी गतिविधियों के एजेंडे में प्राथमिकता वाले मुद्दे हो गए हैं। दूसरी ओर, एनडीए सरकार गांधीमार्गी प्रतिरोध के प्रति उदासीन नहीं है, क्योंकि उसने गांधीमार्गी विरासत और गांधीमार्गी महापुरुषों खासकर सरदार पटेल को अपने ढंग से व्याख्यायित करने की कोशिश की है। यह सावरकर को ‘सच्चा’ नायक बताकर राष्ट्रवाद पर एक नया विमर्श चला रही है और ‘हिन्दुत्व’ तथा ‘हिन्दू राष्ट्र’ की उनकी अवधारणा को भारतीय अस्मिता के दो आधारभूत विचार के रूप में पेश कर रही है। इसने साबरमती आश्रम और गांधी स्मृति एवं दर्शन समिति जैसी गांधीमार्गी संस्थाओं का नियंत्रण छीनकर अपनी मुट्ठी में कर लिया है। इसने सर्व सेवा संघ में मतभेदों को हवा दी और फंडिंग एजेंसियों को बाध्य किया कि वे गांधीमार्गी स्वयंसेवी संस्थाओं समेत विभिन्न गैरसरकारी संगठनों को मदद देना बंद कर दें। बहुत-से लोगों का मानना है कि गांधीमार्गियों के सामने यह अपूर्व चुनौती है जब उनकी विश्व दृष्टि, उनके महापुरुषों, राष्ट्र निर्माण के उनके एजेंडे, संस्था निर्माण तथा उनके अभियानों व कार्यक्रमों पर हिंदुत्ववादी राजनीतिक शक्तियों की ओर से चौतरफा हमले हो रहे हैं। ऐसा अस्तित्वगत संकट तो अंग्रेजी हुकूमत के समय भी नहीं आया था। वह इमरजेंसी राज में नहीं बदला था। यह देखना दिलचस्प होगा कि आगे क्या होता है!

अंग्रेजी से अनुवाद : राजेन्द्र राजन

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