— अरुण कुमार त्रिपाठी —
जयप्रकाश नारायण का जीवन सच्चे स्वराज को समर्पित था। उनकी राजनीतिक, वैचारिक और नैतिक यात्रा उसी का प्रमाण है। वे न तो वैचारिक रूप से भ्रमित थे, न राजनीतिक रूप से अव्यावहारिक थे और न ही किसी तरह से नैतिक विचलन के शिकार थे। वे मार्क्स के समतामूलक समाज और स्वराज के गांधी के सपनों को भारतीय संदर्भ में लागू करने का प्रयास कर रहे थे और उसी के लिए वे समय समय पर अलग अलग मोर्चों पर सक्रिय हुए।
हालांकि यह सही है कि मानवीय स्वभाव को समझने में जेपी से भी उसी तरह की चूक हुई जैसी कि मार्क्स और गांधी से हुई थी। इसीलिए संपूर्ण क्रांति के महामंथन से अगर अमृत निकला तो विष भी निकला। संयोग से वे विषपान के लिए जिंदा नहीं बचे और नफरत, स्वार्थ और संकीर्णता का विष भारतीय समाज की नसों में तेजी से दौड़ने लगा।
इसी माहौल में जयप्रकाश नारायण के सिपाहियों और चौहत्तर के आंदोलन में युवा रहे और अब जेपी की तत्कालीन उम्र(सत्तर पार) तक पहुंच रहे तमाम लोगों ने रविवार (9 अक्तूबर) को दिल्ली के कांस्टीट्यूशन क्लब में लोकतंत्र के सेनानियों को सम्मानित करने का एक समारोह किया। उस समारोह में पंजाब के किसान नेताओं से लेकर कांग्रेस पार्टी में सक्रिय हो चुके कई पुराने लोग मौजूद थे। लेकिन जेपी के मंच से – “जयप्रकाश का बिगुल बजा तो जाग उठी तरुणाई है/ तिलक लगाने तुम्हें जवानों क्रांति द्वार पर आई है” जैसा उद्वेलित करने वाला गीत गाने वाले अरुण कुमार चौबे ने उसे गाने से मना कर दिया। उनका कहना था कि आज वैसा माहौल कहां है कि उस गीत को गाया जाए। भले देश में कई जगह आंदोलन चल रहे हैं लेकिन यह कैसे कहा जाए कि तरुणाई जाग गई है। वह तो सूचना प्रौद्योगिकी के जाल में फंस कर सो रही है।
हालांकि प्रोफेसर आनंद कुमार यह मानने को तैयार नहीं थे कि जेपी भ्रमित थे या विफल हुए थे। बल्कि उन्होंने यहां तक कहा कि आज की यह सरकार भी उसी महापुरुष के आंदोलन से निकली है जिसने स्वराज और लोकतंत्र के आदर्शों को विकृत कर दिया है। दमनकारी राज्य लोगों को लंबे समय तक जेलों में ठूंस रहा है और जब बाद में किसी सुबूत के अभाव में उन्हें बरी भी कर दिया जाता है तो उनका जीवन तबाह हो चुका होता है। यह प्रश्न हर उस समझदार व्यक्ति को मथ रहे हैं जो जयप्रकाश नारायण के बारे में जानता है या जानना चाहता है। वरना 11 अक्तूबर को तो लोग महानायक अमिताभ बच्चन का जन्मदिन मनाते हैं और जेपी को विस्मृत करने में लगे रहते हैं। विडंबना देखिए कि साबुन, तेल, मोबाइल ऐप, करोड़पति बनने के सपने बेचने वाले और तमाम तरह की सरकारी योजनाओं का प्रचार करने वाले अमिताभ बच्चन ने कभी यह नहीं कहा कि आज मेरा ही नहीं जेपी जैसे महानायक का जन्मदिन है और आप लोग उनका भी स्मरण करें क्योंकि असली नायक तो वही थे।
ऐसे भयभीत, झूठ को सिर-माथे पर बिठाने वाले और धनलोलुप समाज में जयप्रकाश की संपूर्ण क्रांति का स्मरण एक नए किस्म की प्रासंगिकता रखता है। जयप्रकाश नारायण का स्मरण करने वाले एक बड़ी गलती करते हैं। वो यह कि वे उनका स्मरण सिर्फ चौहत्तर के आंदोलन के सिलसिले में करते हैं। लोग उनकी बयालीस की विरासत को भूल जाते हैं, उनके सर्वोदय आंदोलन को भी याद नहीं करते। उसका परिणाम यह होता है कि उस विरासत पर समाजवादी स्वराज का सपना देखने वाले लोगों की बजाय वे लोग कब्जा कर लेते हैं जो हिंदुत्व और कारपोरेट के सपनों का देश बनाना चाहते हैं।
हम जब भी किसी के व्यक्तित्व का मूल्यांकन करें तो उसकी संपूर्ण यात्रा को देखना चाहिए। ऐसे में जेपी का मार्क्सवाद के प्रति रुझान, उसकी समझ, स्वाधीनता संग्राम में उनका साहस और संघर्ष और गांधी से सहमत-असहमत होते हुए भी उनके नेतृत्व में चल रहे राष्ट्रीय स्वतंत्रता आंदोलन को मजबूत करने का समर्पण इन सभी पहलुओं पर गौर करना ही होगा। गौर करना होगा प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति बनने को ठुकराने वाले उनके त्याग को भी।
जेपी के साथ सबसे बड़ा अन्याय वे लोग करते हैं जो उन्हें महज बिहार की अब्दुल गफूर सरकार और फिर इंदिरा गांधी की सरकार को हटाने के संघर्ष से जोड़ देते हैं। उनकी विरासत को नष्ट करने का उससे भी बड़ा प्रयास तब होता है जब उनके इस कथन कि अगर संघ फासिस्ट है तो मैं भी फासिस्ट हूं—बार बार उद्धृत करके एक ओर उन्हें हिंदुत्ववादी बता कर अपनाया जाता है तो दूसरी ओर सांप्रदायिक बताकर सेक्यूलर बिरादरी से बाहर किया जाता है। वास्तव में जेपी की पुण्याई इतनी बड़ी है कि वह सिर्फ चौहत्तर के कालखंड से बांधी नहीं जा सकती।
वह दलीय लोकतंत्र और चुनावी प्रणाली की अनैतिकता और सिद्धांतविहीनता के बाहर स्वराज के मूल्यों की तलाश है। वह पूंजीवादी मूल्यों के बाहर समाजवादी मूल्यों की तलाश है। वह जातिवाद की संकीर्णता के बाहर एक समतामूलक समाज की संरचना की कोशिश है। वह निरंतर हिंसक और बर्बर होती जा रही व्यवस्था को अहिंसक बनाने की कोशिश है। वह अच्छे मनुष्य और अच्छी संस्थाओं के निर्माण का संघर्ष है। वह वर्ग संघर्ष है वह जाति विरोधी संघर्ष है। वह सड़ चुकी ग्रामीण व्यवस्था में ग्राम स्वराज कायम करने का रचनात्मक कार्यक्रम है। वह नफरत के विरुद्ध प्रेम और भाईचारे का संदेश है। वह यूरोपीय साम्राज्यवाद के विरुद्ध एशिया और अफ्रीका में उपनिवेश बनाए गए देशों की संपूर्ण मुक्ति का आह्वान है।
वास्तव में जेपी की विरासत गैर कांग्रेसवाद के खूंटे से बंधकर बांझ होती चली गई है। उसे मानने वाले ईर्ष्यालु और जड़ होते गए हैं। अगर उसे फिर से प्रासंगिक करना है तो भय, लालच और नफरत से मुक्त खुले मैदान में विचरण के लिए छोड़ना होगा। उसे व्यापक समागम की छूट देनी होगी। उस विरासत को उन कांग्रेसियों को भी समझना होगा जिनके विरुद्ध जेपी ने एक समय में जबरदस्त आंदोलन किया था। कांग्रेसियों को इसलिए क्योंकि बाद में जेपी संघ परिवार की सांप्रदायिकता से दुखी थे और महसूस कर रहे थे कि उनके साथ गलत किया जा रहा है।
यह बात कांग्रेसियों को भी समझनी होगी कि आज अगर जेपी होते तो वे गैर भाजपावादी राजनीति के साथ मजबूती से खड़े होते। क्योंकि वे किसी भी रूप में लोकतंत्र और स्वराज को कुचला जाते देख नहीं सकते थे। वे युवाओं की बेरोजगारी नहीं देख सकते थे और न ही देख सकते थे अपने नागरिकों का दमन। इसीलिए उन्होंने छात्र युवा संघर्ष वाहिनी का गठन किया और इसीलिए पीयूसीएल बनाया।
निश्चित तौर पर जेपी की विरासत पर दावा वे शक्तियां करेंगी जिन्होंने जेपी से सबसे ज्यादा लाभ उठाया और आज सत्ता में हैं। वे तमाम निवारक नजरबंदी कानूनों का क्रूरता से उपयोग कर रहे हैं और गाहे बगाहे जेपी का नाम भी ले लेते हैं। वे यह भी कहते हैं कि उन्होंने जेपी के साथ भ्रष्टाचार के विरुद्ध और इंदिरा गांधी की तानाशाही के विरुद्ध आंदोलन किया था इसलिए उनसे लोकतंत्र के खत्म करने की आशंका रखना व्यर्थ है। लेकिन वास्तव में जेपी के पीछे खड़े होकर लोकतंत्र खत्म करने का इससे चालाक उपक्रम कुछ हो नहीं सकता। आज जो भी लोग मार्क्सवाद से गांधीवाद तक फैली जेपी की विरासत को सही अर्थों में आगे बढ़ाना चाहते हैं उनके सामने दो उद्देश्य प्रमुख हो सकते हैं। एक तो वे नफरत और तानाशाही के चंगुल में फंसी उसी विरासत को बाहर निकालें और उसे उन लोगों से जोड़ें जो आज देश में किसी भी रूप में मौजूदा नीतियों के विरुद्ध पदयात्रा, सत्याग्रह, धरना, प्रदर्शन और आंदोलन कर रहे हैं।
जेपी की विरासत एक निर्भीक स्वराज के पक्ष में है। वह अभय के पक्ष में है वह देश को सुरक्षा एजेंसियों और सैनिकों से जोड़ने की बजाय नागरिकों के स्तर पर उनके हृदय को जोड़ने की है। इसलिए जेपी की विरासत शक्ति के उन विद्युत कणों को जोड़ने की है जो व्यस्त और विकल होकर निरुपाय बिखरे हैं।