संविदा प्रथा अभिशाप है

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— धर्मेन्द्र श्रीवास्तव —

ड़िशा के मुख्यमंत्री नवीन पटनायक ने संविदाकर्मियों/श्रमिकों को नियमित करने का निर्णय लिया है, यह बहुत ही स्वागतयोग्य कदम है। संविदा प्रथा अभिशाप है। पूर्व में संविदाकर्मियों का बेइंतहा शोषण होने के कारण संविदा (ठेका) श्रम अधिनियम, 1970 लंबी जद्दोजहद के बाद बनाया गया था जिसमें कतिपय रेगुलेटरी प्रावधान थे। हालाकि यह अधिनियम अपेक्षानुसार बहुत प्रभावी नहीं था फिर भी एक सीमा तक संविदा श्रमिक न्यूनतम वेतन आदि के प्रावधानों से संरक्षित थे।

संविदा श्रमिकों के संबंध में कुछ उद्योगों में श्रमिक संघर्ष के कारण यूनियनों तथा प्रबंधन के बीच समझौता कर बेहतर वेतन तथा अन्य सुविधाएं व अनुलाभ संविदा श्रमिकों को दिये जा रहे हैं लेकिन प्रदेश एवं देश में इसका अनुपात नगण्य है। अधिकांश संविदा श्रमिकों को न्यूनतम प्रावधानों तक सीमित रहना पड़ता है।

इस संबंध में बड़ी विडंबना यह है कि अभी भी लगभग 50 से 60 फीसद संविदा श्रमिकों को न्यूनतम वेतन, भविष्य निधि, कर्मचारी बीमा निधि तथा अवकाश आदि व आवश्यक सुरक्षा उपकरणों से वंचित रहना उनके रोजगार की मजबूरी के कारण उनकी नियति रहती है।

संविदा श्रमिकों के साथ नियमित श्रमिकों/कर्मियों द्वारा सौतेला व्यवहार भी होता है। कई बार श्रमिक संघों द्वारा अपने आंदोलनों में संविदा श्रमिकों को भीड़ के रूप में उपयोग तो किया जाता है लेकिन उनकी मांगों पर नियमित कर्मियों की तुलना में कम जोर दिया जाता है। आज भी संविदा श्रमिकों की अलग यूनियनें नहीं के बराबर हैं।

छत्तीसगढ़ में 1991 के पूर्व, जब यह मध्यप्रदेश का भाग था, स्वर्गीय शंकर गुहा नियोगी ने संविदा श्रमिकों को बड़े प्रभावी ढंग से संगठित किया था तथा बेहतर वेतन एवं अन्य सुविधाओं के लिए उन्हें प्रबंधन से समझौता कर संरक्षित कराया था।

इसी प्रकार भेल भोपाल में जब ठेका श्रमिकों का चलन बढ़ा और उनके असंगठित होने व रोजगार की उनकी मजबूरी के कारण न्यूनतम प्रावधानों जैसे न्यूनतम वेतन, भविष्य निधि, कर्मचारी बीमा निधि तथा अवकाश व सुरक्षा प्रावधानों आदि का लाभ नहीं दिया जाकर उनके शोषण की चरम स्थिति थी तब भेल संविदा श्रमिकों में भारी असंतोष को लेकर गोविंदपुरा क्षेत्र के तत्कालीन विधायक स्वर्गीय श्री बाबूलाल गौर के नेतृत्व एवं संरक्षण में भेल संविदा श्रमिकों की यूनियन बनाकर लंबा संघर्ष किया गया। फलस्वरूप भेल प्रबंधन ने समझौता कर संविदा श्रमिकों को न्यूनतम वेतन से बेहतर वेतन तथा अन्य सुविधाएं- भविष्य निधि, कर्मचारी बीमा, अवकाश आदि लाभ दिया जाना प्रारंभ किया गया।

इस प्रकार संविदा श्रमिकों को न केवल संगठित होने की जरूरत है अपितु सशक्त और प्रभावी नेतृत्व में संगठित होने से उसका संघर्ष परिणामदायी होता है। इस तरफ समाज के प्रबुद्ध व प्रभावी लोगों को आगे आकर संविदा श्रमिकों को संगठित करने तथा उनके लिए संघर्ष करने की नितांत आवश्यकता है। अब सरकारों तथा समाज को भी संविदा श्रमिकों के प्रति समय के साथ अधिक संवेदनशील होना आवश्यक है।

बड़ी बड़ी परियोजनाओं को अंजाम तक हमेशा ठेका श्रमिकों द्वारा ही पहुंचाया जाता है लेकिन अच्छा व प्रभावी नेतृत्व उनके लिए आगे नहीं आता। उलटे नियमित कर्मियों/श्रमिकों की यूनियनें अपने प्रभाव का उपयोग कर, प्रबंधन से सांठगांठ करके संविदा (ठेका) श्रमिकों की आपूर्ति का ठेका लेकर अच्छा मुनाफा कमा रही हैं। भेल भोपाल में सभी की नजरों के सामने लंबे समय से यह हो रहा है। इसी प्रकार देश एवं प्रदेश में अनेकों जगह प्रभावी यूनियनें अपने ठेके चलाकर मुनाफा कमाने में लगी हैं। इस स्थिति में भला अब संविदा श्रमिकों की सुध कौन लेगा?

ओड़िशा सरकार ने अपने संविदा श्रमिकों/कर्मियों को नियमित करने का जो निर्णय लिया गया है, अन्य सभी सरकारों व उद्योगों को इसका अनुकरण कर संविदा (ठेका) श्रमिकों को कम से कम कोर एक्टिविटीज में नियमित करना चाहिए।


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