— रवीन्द्र शर्मा —
भारतीय टेक्नोलॉजी एवम आधुनिक टेक्नोलॉजी को उनके सही संदर्भों में समझने के लिए उनका तुलनात्मक अध्ययन किया जाना चाहिए। जहां एक ओर भारतीय सभ्यता में छोटी-छोटी टेक्नोलॉजी का महत्त्व रहा है, वहीं आधुनिक सभ्यता में बड़ी टेक्नोलॉजी ही महत्त्वशाली रही है। दोनों का तुलनात्मक अध्ययन किए बगैर दोनों को ही उनके सही परिप्रेक्ष्य में समझ पाना बहुत कठिन होगा।
भारतीय सभ्यता बहुत छोटे-छोटे कारखानों वाली सभ्यता ही रही है। इसमें लोहार, सुनार, कुम्हार, जुलाहों वाली तकनीकें और टेक्नोलॉजी ही महत्त्वशाली थी। इसके विपरीत, आज की आधुनिक सभ्यता बड़े-बड़े कारखानों और बड़ी-बड़ी टेक्नोलॉजी वाली सभ्यता रही है। इस दृष्टि से देखने पर आधुनिक सभ्यता, बड़ी टेक्नोलॉजी वाली सभ्यता का पर्याय ही जान पड़ती है। जबकि छोटी तकनीक, छोटो टेक्नोलॉजी भारतीय सभ्यता का पर्याय मानी जा सकती है। इसलिए आधुनिकता की तुलना में भारतीयता को समझने के लिए छोटी टेक्नोलॉजी और बड़ी टेक्नोलॉजी के अंतर को ठीक से समझ लेना बहुत आवश्यक हो जाता है।
टेक्नोलॉजी के बदलते ही हमारा अर्थशास्त्र, हमारी शिक्षा व्यवस्था, हमारी जीवन शैली, लोगों के आपसी संबंध और उन सबसे महत्त्वपूर्ण हमारे जीवन मूल्यों में कितने महत्त्वपूर्ण बदलाव आ जाते हैं ये देखना और समझना बहुत जरूरी है।
1. तकनीक जब छोटी होती है, कारखाने जब छोटे होते हैं, तब समाज उनको व्यवस्थित करता है। दूसरी ओर बड़ी टेक्नोलॉजी, बड़े कारखाने, ये समाज को व्यवस्थित करते हैं।
आज का सारा समाज तो कारखाने वाली सभ्यता में जी रहा है। कारखाने में जो चीज तैयार होती है उनको इस्तेमाल करने के लिए जिस तरह की जीवन शैली की जरूरत है ये लोग समाज में उस तरह की एक जीवन शैली बनाते जा रहे हैं। हमको क्या पहनना है, क्या खाना है, कैसा घर चाहिए, कैसी शिक्षा व्यवस्था चाहिए ये सारा कुछ कारखाने वाले ही तय कर रहे हैं। वे अपने हिसाब की सभ्यता, अपने हिसाब का एक समाज बना रहे हैं। जबकि उसके उलटे, छोटी टेक्नोलॉजी को समाज व्यवस्थित करता है। हमको अपने गांव में क्या-क्या चीज चाहिए है, क्या-क्या विद्याएं चाहिए, क्या-क्या टेक्नोलॉजी चाहिए है, ये सारा कुछ समाज निर्धारित करता है।
एक समय में गांव में बहुत तरह की विद्याएं थीं हमारे पास में। एक गांव का एक ही मतलब हुआ करता है कि कम से कम 360 जातियां। जहां 360 जातियों के लोग रहते हैं, वह एक आदर्श गांव कहलाता है। और ‘जाति’ का मतलब हमारे यहां हमेशा एक तकनीक ही रहा है। एक दृष्टि से देखने पर यह ‘जाति’ का अपभ्रंश जैसा दिखाई देता है जिसका मतलब ही होता है किसी एक विषय का ज्ञाता, जानकार। इसीलिए ‘कुम्हार’ शब्द बोलते ही हमको कोई भी आदमी तो दिखाई नहीं देता है। ‘चाक’ की तकनीक पर काम करता एक आदमी ही दिखाई देता है। इसी तरह ‘लोहार’ का नाम लेते ही ‘कोई भी’ आदमी तो नहीं दिखाई देता है बल्कि ‘लोहे’ को गलाने की तकनीक जाननेवाला एक आदमी ही दिखाई देता है। जाति का मतलब एक तकनीक, एक विद्या, एक विज्ञान, एक जानकार, जानकारी ही रहा है।
टेक्नोलॉजी जब छोटी होती है तो गांव के मुखिया और बाकी बड़े लोगों का हमेशा यह प्रयास रहता है उनके गांव में अधिक से अधिक हस्ती वाले यानी अधिक से अधिक तकनीक वाले लोग आकर रहें। तब, समाज ही इन सारी टेक्नोलॉजी को अपने-अपने गांवों में व्यवस्थित करके रखता है। टेक्नोलॉजी के बड़े हो जाने मात्र से ये गांवों की क्षमता से बाहर की चीज हो जाते हैं, और उलटे समाज को ही व्यवस्थित करने लगते हैं, और अपने उत्पादों को इस्तेमाल कर सकने वाले समाज की एक जीवन शैली बनाने लगते हैं। हमारे पहनने, खाने, हमारी जरूरतों आदि लगभग सभी चीजों को वही परिभाषित और तय करने लग जाते हैं। ऊपर-ऊपर से देखने पर हमको जरूर बहुत सारे विकल्प नजर आते हैं, पर थोड़ी सी गहराई में जाने पर पता लगने लगता है कि सारा समाज बहुत सूक्ष्म रूप से इन कारखानों के द्वारा ही व्यवस्थित हो रहा है।
2. छोटी टेक्नोलॉजी का उत्पादन शून्य पर होता है, और बड़ा कारखाना जरूरत से अधिक उत्पादन करके परेशानी में रहता है।
यहां शून्य पर उत्पादन का अर्थ है, सामान लेने (खरीदने) वाले के कहने के बाद ही (ऑर्डर मिलने के बाद ही) उस वस्तु का उत्पादन करना। अर्थात तैयार माल का शून्य स्टॉक। टेक्नोलॉजी जब छोटी होती है, तो यह बड़ी आसानी से होता है। हमारे लोहार, बढ़ई, सुनार, दर्जी आदि कोई भी पहले से बहुत सारी चीजों को तैयार करके नहीं रखते थे।
सामान बनवाने वाले के कहने के बाद ही वे काम चालू करते, और उस चीज को बनाकर तुरंत उसके घर पहुंचा देते थे। किसी तीज-त्योहार में बननेवाली चीजों, जैसे गणेश उत्सव के समय गणेश, पोला के समय बैल, आदि में बनाई जानेवाली चीजों की संख्या पहले से ही निश्चित रहती थी, क्योंकि सबके घर बॅंधे होते थे। ये सारी चीजें अपने-अपने बॅंधे हुए घरों में ही पहुंचानी होती थीं। इसी तरह हर घर में अलग-अलग समय पर पहुंचने वाली चीजें पहले से ही निश्चित होती थीं। जैसे बढ़ई द्वारा साल के अलग-अलग समय पर उसके बॅंधे घरों में बेलन, मथानी, दाल-घोंटनी, चक्की का डंडा, बच्चों के अलग-अलग समय पर खेलने के खिलौने (लट्टू, लकड़ी के बैल, तलवार, तीन पहियों की गाड़ी) आदि पहुंचाना ही होता था। इसी तरह अन्य कारीगरों के सभी सामान निश्चित होते थे।
इन सब कारणों से कारीगरों को, छोटी टेक्नोलॉजी वाले कारखानों को सामान बनाकर, स्टॉक रखकर फिर उसको बेचने का काम कभी भी नहीं करना पड़ता था। इसीलिए, इस टेक्नोलॉजी में मार्केटिंग जैसा कोई खर्च कभी नहीं होता था। बड़े कारखानों में हमेशा इसका उलटा होता है। ये कारखाने अपनी उत्पादन क्षमता के हिसाब से बहुत सारा और अधिकतर जरूरत से ज्यादा उत्पादन करके, तैयार माल को बेचने में ही परेशान रहते हैं। ‘विज्ञापन’, ‘मार्केटिंग’, ‘छूट’, ‘उत्पाद के साथ कुछ मुफ्त’ आदि शब्द और संकल्पनाएं इन्हीं बड़े कारखानों की देन हैं। आजकल बाजार में ‘मांग’ और ‘उपलब्धता’ का गड़बड़ाता अर्थशास्त्र भी बड़ी टेक्नोलॉजी वाले अर्थशास्त्र की ही देन है, जहां ‘मांग’ से बहुत ज्यादा उत्पादन करके उसको जबरदस्ती बाजार में बेचा जाता है।
3. छोटी टेक्नलॉजी में समाज रंगीन होता है, विविधता से जीता है, और बड़े कारखानों की व्यवस्था में समाज सामान्य हो जाता है।
भारत के विविधतापूर्ण समाज के पीछे भारत की भौगोलिक परिस्थितियों का नहीं, बल्कि यहां की टेक्नोलॉजी का महत्त्व रहा है। जबकि हमको हमेशा से यह पढ़ाया गया है कि भारत की विशाल और विविधता से भरी भौगोलिक परिस्थितियां ही हमारी इस संस्कृति और सामाजिक विविधता का कारण रहे हैं। जबकि ऐसा रहा नहीं है।
टेक्नोलॉजी जब छोटी होती है, तो कारीगर अपने क्षेत्र विशेष की परिस्थितियों, वहां की जलवायु और वहां की जरूरत के हिसाब से डिजाइनों की चीजें बनाता है। यही कारण है कि भारतवर्ष में अलग-अलग जगहों पर अलग-अलग तरह के मकान, ढेरों तरह की अन्य इमारतें, ढेरों तरह के कपड़ों के डिजाइन, ढेरों तरह के भोजन, ढेरों तरह में बरतनों के डिजाइन आदि मिलते रहे हैं। छोटी टेक्नोलॉजी की जगह बड़ी टेक्नोलॉजी के आते ही आज कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी तक सब कुछ एक जैसा ही लगता है। सभी जगहों पर एक ही तरह के सीमेंट से बने फ्लैट छतों वाले घर/फ्लैट/डुप्लेक्स, एक ही तरह के घर हो गए हैं। एक ही तरह से पहने जाने वाले पैंट-शर्ट, साड़ी और सलवार सूट, एक ही तरह के खाने, एक ही तरह के बर्तन, एक ही तरह के वाहन, एक ही तरह की दुकानें, सब कुछ एकदम एक जैसा, एक समान होता जा रहा है। वहीं छोटी टेक्नोलॉजी में हर क्षेत्र के साइकिल रिक्शे भी अलग-अलग डिजाइन के हुआ करते थे।
लोगों के किसी दूसरी जगह से घूम के आने पर ये विविधता वाली कहानियां ही बहुत लंबे समय तक चला करती थीं। भाषा, भेष, भोजन, भवन आदि के आधार पर, पूरे भारतवर्ष में, सभी चीजों के कम से कम 108 डिजाइन तो मिलते ही हैं। बड़ी टेक्नोलॉजी के आ जाने से आज कपड़े किसी व्यक्ति विशेष के लिए न बनकर एक विशेष नाप के बनते हैं। आज 40 नंबर की वही शर्ट आपको आदिलाबाद, मसूरी, जबलपुर, केरल आदि सभी जगह मिल जाती है, और यही हाल अन्य सभी चीजों का है। पूरे देश में भौगोलिक परिस्थितियों में वही की वही विविधता रहने के बावजूद, समाज की विविधता और रंगीनियत के बदले, भारत में पूरी तरह से एकरूपता आती जा रही है। इसका तात्पर्य यही है कि हमारी सारी विविधता हमारी भौगोलिक परिस्थितियों में विविधता के कारण नहीं, बल्कि टेक्नोलॉजी में आए बदलाव के कारण ही है।
4. छोटी टेक्नोलॉजी इतनी सरल होती है कि उसको कहीं भी ले जाया जा सकता है, जबकि बड़ी टेक्नोलॉजी एक जगह स्थिर होकर रहती है।
भारतीय सभ्यता में जो टेक्नोलॉजी है, उसको चाहते तो बहुत बड़ा भी बनाया जा सकता था। मगर टेक्नोलॉजी को इतना सरल, इतना छोटा करके रखा गया है कि हर एक कारीगर, अपना कारखाना अपने बगल में लेकर घूम सकता है। उसके लिए बड़े-बड़े वर्कशॉपों की कल्पना नहीं की गई थी। और ऐसा नहीं है कि छोटी टेक्नोलॉजी से उस तरह की चीजें नहीं बनाई जा सकतीं, जो बड़ी टेक्नोलॉजी से बनाई जा सकती हैं। जरूरत है तो मात्र उस तरह की सोच रखने की।
एक बार कुछ लोगों के साथ दौलताबाद का किला देखने गए। वह बहुत ही असाध्य किला है। उस किले के ऊपर आदमी भी बहुत मुश्किल से ही चढ़ सकता है। उस किले के शिखर पर पहुंचने पर, बहुत ऊपर में, उन सबको एक बहुत बड़ी तोप दिखाई दी। जहां आदमी का चढ़ना असंभव है, वहां एक बहुत बड़ी तोप पड़ी हुई थी। वह तोप लगभग 22 फुट लंबी बहुत विशाल तोप थी। उस तोप को उस जगह देखने के बाद, सभी लोगों के बीच काफी चर्चा चली, बहस चली कि आखिर इतनी बड़ी तोप को इतने ऊपर तक कैसे चढ़ाया होगा। जहां आदमी नहीं चढ़ सकता, वहां उस 22 फुट लंबी, टनों वजनी तोप को कैसे लाया गया होगा। वहां उपस्थित सभी लोगों ने अपना-अपना दिमाग लगाया कि इसको ऐसे खींचा गया होगा, ऐसे चढ़ाया गया होगा। हाथियों से खींचा गया होगा या फिर ऐसे खींचा गया होगा। बहुत देर तक यह बहस चलती रही।
जब मुझसे पूछा गया तो मैंने बोला, इस तोप को न तो कहीं से लाया गया है और न ही कहीं से चढ़ाया गया है। इस तोप की तो ढलाई ही यहां कर दी गई है। क्यों चढ़ाना-वढ़ाना है, उसकी ढलाई ही यहां कर दिए होंगे। उसको बहुत आसानी से वहीं बना लिया होगा। तोप को इतने ऊपर तक ढोने के बदले, उन लोगों ने अपने कारखानों और कच्चे माल को वहां तक ढो लिया होगा। क्योंकि हमारी जो टेक्नोलॉजी थी, उसको इतना सादा कर दिया गया था कि हर कारीगर अपना कारखाना अपने सिर पर, अपने बगल में लेकर घूम सकता था। कई बार कारीगर अपने स्वयं के घर पर काम करता है, कई बार लोगों के घरों पर जाकर भी काम कर देता है। इतने सरल कारखाने हैं वो।
मनिहारी के बहुत से काम, लकड़ी का काम, सोने का काम, जैसे बहुत से काम कारीगर लोगों के घरों में ही जाकर किया करते हैं। ऐसे एक नहीं बल्कि कई उदाहरण हमारे सामने आते हैं, जहां बड़ी-बड़ी और उत्कृष्ट चीजें हमारे कारीगरों द्वारा अपनी छोटी टेक्नोलॉजियों से ही बनाई गई थीं, जो आज की आधुनिक बड़ी टेक्नोलॉजी में शायद संभव भी नहीं है।
5. बड़े-बड़े कारखानों के वश का नहीं है कि हरेक के लिए डिजाइन पैदा कर ले, क्योंकि ये तो 10-15 डिजाइन की चीज भी नहीं बना सकते, मगर छोटी टेक्नॉलोजी में वो बात है कि वो ‘एक’ चीज भी बना सकती है, और ‘हजार’ चीज भी बना सकती है।
बड़ी टेक्नॉलोजी और छोटी टेक्नॉलोजी में यह बहुत बड़ा और मूलभूत अंतर है। समाज में सांस्कृतिक और सामाजिक विविधता कायम करने के मूल में छोटी टेक्नॉलोजी का यही एक गुण है। छोटी टेक्नोलॉजी में हर समय, संदर्भ और स्थान के लिए अपनी एक डिजाइन संभव है। यही कारण है कि भारतीय समाज में हर समय और हर संदर्भ के लिए अलग-अलग डिजाइन हुआ करती है।
यहां बहुत से समाजों में महिलाओं के परिधान देखकर ही उनकी संतानों की संख्या पता चल जाती है। इसी तरह लोगों के परिधान देखकर उनके घरों में होने वाले विशेष कार्यक्रमों के बारे में पता चल जाता है। उनकी जातियों के बारे में भी उनके परिधान बहुत कुछ बयान कर देते हैं। समाज के हर वर्ग के अलग-अलग संदर्भों अलग-अलग समयों के लिए अलग-अलग डिजाइन हुआ करती थी, जो कि उनके कपड़ों, उनके बर्तनों, उनके घरों के दरवाजों, खिड़कियों आदि तक में अलग से परिलक्षित होती थी। इतना ही नहीं, बैलों और अन्य जानवरों के अलग-अलग अवसरों के अलग-अलग श्रृंगार और अलग-अलग घुंघरू तक हुआ करते हैं। लंबे प्रयाण पर जाने वाले छकड़ों के बैलों के घुंघरू, भारी बोझा ढोनेवाली बैलगाड़ियों में बॅंधे बैलों के घुंघरू, शादी-ब्याह और अन्य ऐसे अवसरों पर बैलगाड़ियों में लगनेवाले बैलों के घुंघरू, अन्य सामान्य समय में बैलों के गले में बॅंधने वाले घुंघरुओं के डिजाइन में काफी फर्क होता है। इसी तरह बैलों, बकरियों, गायों, गधों, घोड़ों के गलों में बांधे जाने वाले घुंघरुओं के डिजाइन में भी काफी अंतर होता है।
यही कारण है कि जब हम दर्जी के पास जाते हैं तो वह एक व्यक्ति विशेष की कद-काठी के हिसाब से उसके नाप के कपड़े बना देता है। वहीं कारखानों में बने कपड़े एक नाप विशेष के होते हैं। व्यक्ति को उस नाप में फिट होना पड़ता है। एक कारखाना, जिसमें सैकड़ों हजारों मजदूर काम करते हैं, उसमें ले-देकर 8-10 नाप के, 15-20 डिजाइन से ज्यादा के कपड़े तैयार नहीं हो सकते हैं। जबकि उनकी जगह पर सैकड़ों दर्जी आसानी से लाखों लोगों को उनकी डिजाइन विशेष के कपड़े बनाकर दे देते हैं।
जब मैं बड़ौदा में पढ़ रहा था तो कॉलेज में कोई एक फिरंगी, एक विदेशी आ गया। उसके पास तस्वीरें लेने का कैमरा था। उसका एक स्क्रू कहीं गिर गया, जिससे वह बहुत परेशान था क्योंकि एकमात्र स्क्रू गिर जाने से उसका पूरा कैमरा खराब हो गया था। और, उस समय कैमरे बहुत ही महंगे हुआ करते थे। उसने बहुत खोजबीन की, पर वह स्क्रू उसको कहीं नहीं मिला। दूसरा कैमरा भी ले नहीं सकते, क्योंकि उस समय वह बहुत महंगा आता था। हम लोग बोले कि चलो ठीक है, बाजार में ढूंढ़कर आएंगे, शायद कहीं मिल जाए। तो सब मिलकर एक सुनार की दुकान में गए, उन्होंने उसको समस्या बताई। वह बोला कि ‘ठीक है इसको यहीं रख कर जाओ, देखो कहीं मिलता है कि नहीं। तुम भी देखो मैं भी देखता हूं। यदि मेरे पास में होगा, तो मैं ही लगा दूंगा।’ उनको बाजार में तो वह स्क्रू मिला नहीं। और फिर जब वे लोग लौटकर सुनार के पास आए, तो देखा कि कैमरे का स्क्रू कैमरे के पास रखा हुआ था। उसको कैमरे में लगाया और कैमरा चालू हो गया।
आश्चर्यचकित होकर उस फिरंगी ने सुनार से पूछा कि “तुमको ये स्क्रू आखिर मिला कहां से।” वह बोला “कहीं से मिला नहीं, इसको मैंने बना दिया।”
“हाँ! क्या तुम ‘एक’ स्क्रू भी बना सकते हो?”
वो बोला कि “इसमें कौन सी बड़ी बात है।” मगर उस अंग्रेज को बड़ा ताज्जुब लगा कि इस देश में कोई व्यक्ति ‘एक’ चीज भी बना सकता है। क्योंकि उसके देश में तो कोई भी ‘एक’ चीज नहीं बना सकता है। करोड़ों में कोई चीज बन सकती है, मगर ‘एक’ चीज कोई नहीं बना सकता।
छोटी टेक्नोलॉजी में ‘एक’ चीज बनाने की सामर्थ्य है, जो कि बहुत बड़ी ताकत है। क्योंकि ‘एक’ चीज बनाना बहुत कठिन है। बड़े-बड़े कारखानों में यह ‘एक’ चीज बनाना संभव नहीं। मगर, छोटी टेक्नोलॉजी में कारीगर बड़ी आसानी से यह काम कर डालते हैं। वे एक चीज भी बना सकते हैं और एक चीज को करोड़ों में भी बना सकते हैं। उनको बहुत बड़ी दिक्कत होती है, बड़े कारखानों में यह कतई संभव नहीं है। यही कारण है कि कारखाने सबको समान देखना चाहते हैं, सबको एक जैसा बनाना चाहते हैं।
(जारी)