— राजेन्द्र राजन —
मेरे एक कवि-मित्र जब अपने साहित्यिक मित्रों का किसी से परिचय कराते हैं तो उन्हें सिर्फ दो श्रेणियों में बाँटते हैं। वह ज्यादातर मित्रों का परिचय स्थानीय कवि या रचनाकार के रूप में देते हैं, और इक्का-दुक्का रचनाकारों को ही, जिनमें वह खुद को शामिल हैं ही, राष्ट्रीय स्तर का मानते हैं और उनका परिचय देते या उल्लेख करते समय उनकी किसी और खूबी की चर्चा करें या न करें, इस खूबी की चर्चा अवश्य करते हैं कि वे राष्ट्रीय स्तर हैं। उऩके इस वर्गीकरण में ज्यादातर लोगों को उनकी औकात बताने (कि वे राष्ट्रीय स्तर के नहीं हैं) का भाव भी शायद होता है।
हमारे राष्ट्र का भूगोल और परिवेश इतना बड़ा है कि बहुत कम चीजें राष्ट्रीय स्तर की हो पाती हैं। आज कोई भी राजनैतिक दल सही मायने में राष्ट्रीय नहीं है, हालांकि कई दल राष्ट्रीय कहलाते हैं। दिल्ली से छपनेवाले अखबारों को राष्ट्रीय प्रेस का दर्जा दिया जाता है, भले प्रांतीय या क्षेत्रीय कहे जानेवाले अखबार उनसे ज्यादा पढ़े जाते हों। यह इस बात का सूचक है कि राष्ट्रीय स्तर का होने की मान्यता पर दिल्ली का कितना कब्जा है, ठीक वैसे ही जैसे अंतरराष्ट्रीय स्तर का होने की मान्यता पर यूरोप-अमरीका का। यूरोप या अमरीका का भ्रमण करनेवाले खुद के विश्व-नागरिक होने का मुगालता पाल लेते हैं, भले ही अफ्रीका या एशिया के तमाम देशों और समाजों के बारे में वे अबोध हों। हालांकि दुनिया का भ्रमण करने और सम्यक विश्व-बोध में कोई आवश्यक संबंध नहीं है। विश्व-बोध विश्व के संबंध में आपकी चिंताओं, संवेदनाओं और सरोकारों से पैदा होता है। ऐसे ही दिल्ली में जिसकी पूछ या कद्र है वह राष्ट्रीय हो जाता है, भले ही राष्ट्र से उसका कोई संजीदा नाता न हो। राष्ट्र से ज्यादातर लोगों का नाता नारेबाजी या पर्यटक का होता है। राष्ट्रीय स्तर का क्या है और क्या नहीं है यह तय करने के लिए ऐसे लोग बहुत उतावले रहते हैं।
राष्ट्रीय स्तर पाने के लिए या राष्ट्रीय स्तर का कहलाने के लिए दिल्ली भागना और दिल्ली की ओर देखना हमारे समय की एक व्यापक परिघटना है। राष्ट्रीय स्तर की मान्यता में एक प्रकार का उच्चता-बोध या अहंकार भी निहित है। जो राष्ट्रीय स्तर का नहीं हो पाते, एक हीन-भावना से ग्रसित रहते हैं। जो राष्ट्रीय स्तर का नहीं है मानो वह स्तरीय नहीं हो सकता, या उसका कोई स्तर नहीं है।
हमारे दिमाग पर राजनीतिक भूगोल का और राजनीतिक मानदंडों का इतना असर रहता है कि गैर-राजनीतिक कामों और मूल्यांकनों में भी इसके छिछलेपन को हम देख नहीं पाते हैं। क्या एक लेखक का महत्त्व भी बिना राष्ट्रीय स्तर का हुए नहीं समझा जा सकता? वह क्या और कैसा लिखता है इससे क्या लेना-देना! और रष्ट्रीय स्तर का भी हम किसे मानते हैं? इस राष्ट्रीय स्तर में राष्ट्र की व्याप्ति कितनी होती है? क्या हिंदी का एक लेखक, जिसे चार-पांच राज्यों में जितने लोग पढ़ते हैं, उससे ज्यादा पढ़े जानेवाले बांग्ला या मराठी या मलयालम के एक लेखक से ज्यादा महत्त्व रखता है? और तुलना में राष्ट्रीय स्तर का हो जाता है क्योंकि उसे जाननेवाले या पढ़नेवाले कई राज्यों में हैं?
राजनीतिक भूगोल और मानदंडों की छाया साहित्य तक सीमित नहीं है। राष्ट्रीय स्तर का होने की भूख अब ‘संतों’ में भी दिखाई दे रही है। आए दिन ऐसे बैनर देखने को मिलते हैं जिनपर किसी संत के नाम के पहले ‘पूज्य राष्ट्रीय़ संत’ लिखा रहता है। तुरत-फुरत प्रचार और ऑटोग्राफ के इस जमाने में प्रसिद्धि बहुत प्रायोजित और गरिमाहीन हो चुकी है। यह प्रसिद्धि नहीं, प्रचार का युग है। अब प्रसिद्धि प्राप्त करने के लिए किसी काम में सिद्धि प्राप्त करने की जरूरत नहीं है, न किसी क्षेत्र में उल्लेखनीय या महत्त्वपूर्ण योगदान करन की। प्रचार के साधनों तक पहुंच और उनका इस्तेमाल करने की कुशलता ही सबसे बड़ी योग्यता हो गई है। प्रचार से मान्यता मिलती है, प्रचार से प्रसिद्धि मिलती है, प्रचार से धन मिलता है और प्रचार से आदमी ताकतवर होता है। प्रचार के लिए धैर्य नहीं, जल्दबाजी चाहिए। जल्दी से कुछ (शायद सबकुछ) पाने लेने की हविस इस जमाने की सबसे बड़ी मानसिक परिघटना है। इसके चलते अगर सृजन, ज्ञान और साधना के हरेक आयाम में गहराई का तत्त्व दुर्लभ हो गया है तो यह कोई आश्चर्य की बात नहीं। जिन मानवीय उपलब्धियों और संभावनाओं को; सृजन, ज्ञान और साधना के आयामों को हम मौलिकता और गहराई के कारण महत्त्व देते थे, वे भी अब तभी महत्त्व पा सकते हैं जब राष्ट्रीय (या अंतरराष्ट्रीय) स्तर के हों। क्या किसी के काम का अपना कोई स्तर नहीं होता? क्या राष्ट्रीय स्तर से ही उसे आँका जा सकता है? राष्ट्रीय स्तर का होना क्या इतना जरूरी है? राष्ट्रीय स्तर को मानदंड बनाते समय हम कभी यह क्यों नहीं सोचते कि राष्ट्र का जो स्तर है, राष्ट्रीय स्तर उससे कभी ऊँचा नहीं हो सकता।