— राजीव गोदारा और अमित कुमार —
जो राजनीतिक दल अपने प्रतिद्वंदी के नैरेटिव के आगे नतमस्तक हो और अपने घोषित आइकॉन की बात को दोहराने का भी बचाव न कर पाए, उसके राजनीतिक कौशल, दूरंदेशी और भाजपा का विकल्प बन पाने की उसकी संभावनाओं पर प्रश्नचिह्न लग जाता है।
हाल में खुद को “कट्टर आम्बेडकरवादी” कहने वाले राजेंद्र पाल गौतम के दिल्ली कैबिनेट से इस्तीफे को सिर्फ गुजरात चुनाव के चश्मे से देखा जा रहा है; शायद इसीलिए उसके मायनों और निहितार्थों की जितनी चर्चा होनी चाहिए उतनी नहीं हो रही है। पिछले दशक में आम्बेडकर की स्मृति के इर्द-गिर्द होनेवाली राजनीति पर नजर डालें तो यह साधारण राजनीतिक घटना नहीं है और इसकी पड़ताल जरूरी है। इस्तीफे के पहले और उसके बाद की राजनीति के मायनों को समझने से पहले हम पूरे घटनाक्रम पर सरसरी नजर डालते हैं।
5 अक्टूबर को अशोक विजयादशमी के अवसर पर दिल्ली में बौद्धों का भव्य कार्यक्रम हुआ, जिसमें दिल्ली सरकार के तत्कालीन सामाजिक न्याय मंत्री राजेंद्र पाल गौतम की मौजूदगी में 10,000 से ज्यादा लोगों ने बौद्ध धम्म की दीक्षा ली। इस प्रोग्राम में राजरत्न आंबेडकर समेत कई प्रमुख हस्तियां भी मौजूद रहीं। इस दीक्षा समारोह में डॉ आम्बेडकर द्वारा दी गई 22 प्रतिज्ञाएं दोहराई गईं!
इस समारोह के बाद मंत्री राजेंद्र पाल गौतम ने ट्वीट भी किया :
“चलो बुद्ध की ओर मिशन जय भीम बुलाता है।
आज ‘मिशन जय भीम’ के तत्वावधान में अशोका विजयदशमी पर डॉ. आम्बेडकर भवन, रानी झांसी रोड पर 10,000 से ज्यादा बुद्धिजीवियों ने तथागत गौतम बुद्ध के धम्म में घर वापसी कर जातिविहीन व छुआछूत मुक्त भारत बनाने की शपथ ली।
नमो बुद्धाय, जय भीम!”
मगर शाम होते-होते भाजपा के हिंदुत्व-वीर पिल पड़े और राजेन्द्र पाल गौतम द्वारा समारोह में डॉ आम्बेडकर द्वारा बौद्ध धर्म में शामिल होने के समय दिलाई गई प्रतिज्ञाएं दोहराने के कारण उन्हें हिन्दू विरोधी बताना शुरू कर दिया। साथ ही दिल्ली के मुख्यमंत्री और आम आदमी पार्टी के संयोजक केजरीवाल पर दवाब बनाना शुरू किया कि मंत्री राजेन्द्र पाल गौतम को हटाया जाए! विवाद के तूल पकड़ने पर राजेंद्र पाल गौतम ने सफाई दी कि वो व्यक्तिगत स्तर पर कार्यक्रम में शामिल हुए और वो सभी धर्मों का सम्मान करते हैं। आम आदमी पार्टी ने कोई आधिकारिक प्रतिक्रिया नहीं दी पर सूत्रों के हवाले से यह खबर चलवाई गई कि दिल्ली के मुख्यमंत्री और आप संयोजक अरविन्द केजरीवाल गौतम से “बेहद नाराज” हैं। विभिन्न अखबारों से बातचीत में आप सूत्रों ने यह स्वीकार किया कि यह उनके लिए दुविधा/किंकर्तव्यविमूढ़ता की स्थिति है : एक तरफ हिन्दू पहचान है तो दूसरी ओर दलित समुदाय की बढ़ती दृढ़ता (assertion) है; पार्टी उनमें से किसी को भी नाराज करने का जोखिम नहीं उठा सकती है।
‘आप’ की आधिकारिक चुप्पी को देखते हुए भाजपा ने और दवाब बनाना शुरू किया और गुजरात में अहमदाबाद, राजकोट, सूरत, वडोदरा, दाहोद समेत कई शहरों व प्रमुख राजमार्गों पर केजरीवाल को हिन्दू विरोधी बताते हुए पोस्टर चस्पा कर दिए गए, जिनमें केजरीवाल को टोपी पहने हुए दिखाया गया और “हिन्दू विरोधी केजरीवाल वापस जाओ”, “मैं हिन्दू धर्म को पागलपन मानता हूँ” सरीखे भावोत्तेजक नारे लिखे गए।
आम आदमी पार्टी संयोजक व दिल्ली के मुख्यमंत्री 8 अक्टूबर 2022 को चुनाव प्रचार के लिए गुजरात के वडोदरा शहर पहुँचे और वहाँ उन्होंने उक्त पोस्टर चिपकाने का आरोप भाजपा पर लगाते हुए खुद को पक्का हनुमान भक्त बताया और कहा कि उनका जन्म कृष्णा जन्माष्टमी के दिन हुआ है और भगवान ने उन्हें धरती पर भेजा ताकि वो कंसों का वध कर सकें। सभा में केजरीवाल ने पंजाब के मुख्यमंत्री को बाजू में खड़ा करके जय श्रीराम के नारे भी लगाए। साथ ही गुजरात में सरकार बनने पर अयोध्या में बन रहे राम मंदिर की मुफ्त तीर्थ यात्रा की घोषणा भी कर डाली।
इसी बीच दिल्ली सरकार में मंत्री राजेन्द्र पाल लगातार गुजरात में हुई केजरीवाल की रैलियों की फोटो/वीडियो ट्वीट-रीट्वीट करते रहे। ट्वीट दाहोद की बड़ी रैली की बात करता हो या गुजरातियों के लिए बदलाव की या केजरीवाल को “द गारंटी मैन” के रूप में पेश करता हो। तत्कालीन मंत्री राजेन्द्र पाल ने 9 अक्टूबर 2022 की सुबह बहुजन समाज के महान नेता कांशीराम जी की पुण्यतिथि के अवसर पर ट्वीट किया :
“बहुजनों में राजनीतिक चेतना जगाने वाले व दलितों-वंचितों की आवाज को बुलंद करने वाले, सामाजिक न्याय की राजनीति के मजबूत स्तंभ एवं सांविधानिक मूल्यों को मजबूत करने वाले मान्यवर कांशीराम जी की पुण्यतिथि पर उन्हें सादर नमन।
#कांशीरामपुण्यतिथि”
इसके बाद 9 अक्टूबर की शाम 5 बजे गौतम ने एक और ट्वीट किया :
“आज महर्षि वाल्मीकि जी का प्रकटोत्सव दिवस है एवं दूसरी ओर मान्यवर कांशीराम साहेब की पुण्यतिथि भी है। ऐसे संयोग में आज मैं कई बंधनों से मुक्त हुआ और आज मेरा नया जन्म हुआ है। अब मैं और अधिक मजबूती से समाज पर होने वाले अत्याचारों व अधिकारों की लड़ाई को बिना किसी बंधन के जारी रखूँगा।” इस ट्वीट के साथ उन्होंने मंत्रिपद से अपना इस्तीफा भी नत्थी किया! इस्तीफे के बाद जहाँ एक ओर भाजपा ने इसे अपनी और “हिन्दू समाज” की जीत बताते हुए केजरीवाल के इस्तीफे और साथ ही गौतम के खिलाफ कानूनी कार्रवाई की माँग शुरू कर दी, वहीं दूसरी ओर लगभग सभी राजनीतिक दलों ने इस पर गहरी चुप्पी साध ली।
इस पूरे घटनाक्रम में युगपुरुषों के सिद्धांतों/विचारों की पहरेदारी व राजनीतिक लाभ का आपसी टकराव सामने आया है और इससे आम आदमी पार्टी की राजनीति और आम्बेडकर को आइकॉन बनाने के प्रोजेक्ट की सीमाओं से जुड़े महत्त्वपूर्ण प्रश्न सामने आते हैं जिनपर विचार करना बेहद जरूरी है।
आम्बेडकर की स्मृति से जुड़ी राजनीति
भारतीय राजनीति में महापुरुषों को ‘लिफाफे’ में तब्दील कर दिए जाने की प्रवृत्ति पर योगेंद्र यादव कहते हैं : “हम हिन्दुस्तानियों की एक खराब आदत है, हम हर महापुरुष का लिफाफा बना देते हैं, मतलब पहले हम उस महापुरुष की जो भी वजन की बात है, उसको बाहर निकाल देते हैं, फिर बच जाता है लिफाफा, फिर लिफाफे को बड़े अच्छे से पॉलिश करते हैं, पूजा-पाठ, अर्चना में तो हम आगे हैं ही, फूल-माला ये सब कुछ करके उसके ऊपर एक काँच का फ्रेम और लगा देते हैं कि कहीं बाहर न आ जाए।”
आम्बेडकर भी इसी लिफाफे बनाने की प्रक्रिया के शिकार हो गए हैं पर आम्बेडकर के ‘महापुरुष’ बनने की प्रक्रिया उतनी सरल नहीं थी। आम्बेडकर की मृत्यु के बाद बहुत कोशिश की गई कि या तो आम्बेडकर इतिहास के विलेन बना दिए जाएँ या उन्हें पूरी तरह से भुला दिया जाए पर दलित चेतना के उभार ने सभी राजनीतिक दलों को आम्बेडकर को मानने के लिए बाध्य कर दिया।
दलित अस्मिता के पर्यायवाची बन चुके आम्बेडकर एक ढंग से वो द्वार बन गए जिससे गुजरे बिना भारतीय समाज के एक बड़े वर्ग से राजनीतिक संवाद स्थापित करना असंभव सा हो गया। कई मायनों में आम्बेडकर भारतीय राजनीति का वो स्तम्भ हो गए जिन्हें नजरअंदाज करना या उनके खिलाफ दिखना किसी भी राजनीतिक समूह के लिए बेहद जोखिम भरा कदम हो गया। ऐसे में राजेंद्र पाल गौतम का इस्तीफा एक साधारण राजनीतिक घटना नहीं था।
आम्बेडकर और बौद्ध धर्म के सम्बन्ध के बारे में व्यापक चुप्पी के बावजूद राजनीतिक दल, विशेषतः भाजपा, उसकी प्रासंगिकता से अनभिज्ञ नहीं है। 2017 के उत्तर प्रदेश चुनाव से लगभग एक साल पहले भारत सरकार ने राज्य में छह महीने लम्बी धम्म चक्र यात्रा का आयोजन किया जिसके तहत 70 से 80 बौद्ध भिक्खुओं ने उत्तर प्रदेश की दलित बस्तियों में जाकर प्रधानमंत्री मोदी के बौद्ध धर्म और डॉ आम्बेडकर के बारे में विचारों का प्रचार किया।
राजेंद्र पाल गौतम से जुड़े विवाद में भी भाजपा की यह कोशिश रही कि वो बौद्ध-विरोधी न नजर आए। इसके बावजूद भाजपा द्वारा गौतम के इस्तीफे का दवाब बनाना और उसके बाद पुलिसिया कार्रवाई की ओर बढ़ना यह दर्शाता है कि भाजपा इस मामले में धीरे-धीरे आम्बेडकर के प्रतीक से जुड़ी क्रान्तिकारी संभावनाओं को खत्म कर देना चाहती है। यह भाजपा-संघ की हिन्दू राजनीति के अनुसार हर महापुरुष की स्मृति को गढ़ने के प्रोजेक्ट का हिस्सा है। और ‘आप’ ने राजेंद्र पाल गौतम से इस्तीफा लेकर भाजपा-संघ के इस प्रोजेक्ट को आगे बढ़ाया है। इससे ‘आप’ की राजनीतिक दूरंदेशी और उनके वैचारिक दिवालियेपन से जुड़े कई गंभीर सवाल उठते हैं।
आम्बेडकर का महिमामंडन तो सभी पार्टियाँ करती हैं, मगर ‘आप’ ने जिस ढंग से और जिस जोर-शोर से आम्बेडकर की तस्वीर को अपनी राजनीति के केंद्र में रखने की कोशिश की है, इससे आम्बेडकर और उनके अनुयायियों के प्रति उनकी जिम्मेदारी और बढ़ जाती है।
जब किसी युगपुरुष/महापुरुष/शहीद/नेता के नाम पर राजनीति की जाने लगती है तो उसका आधार उस राजनीतिक समूह की सैद्धांतिक/राजनीतिक दृष्टि हो सकती है जो उस युगपुरुष के विचारों/सिद्धांतों से मेल खाती है, इसलिए राजनीतिक समूह उस युगपुरुष के सिद्धांतों/विचारों का पैरोकार होकर राजनीतिक विरोध का खमियाजा उठाने को तैयार भी होता है। यही उसकी सैद्धांतिक प्रतिबद्धता होती है!
मगर बदलते दौर में कई राजनीतिक समूहों के लिए सैद्धांतिक प्रतिबद्धता से ज्यादा अहम है कि खुद को किसी युगपुरुष का अनुयायी घोषित करके वोट बटोरना! इसमें भी उन युगपुरुषों का अनुयायी होना सुविधाजनक व लाभदायक है, जिन युगपुरुषों को लेकर समाज के विभिन्न सामाजिक/राजनीतिक समूहों में अभी लकीर नहीं खींची गई है! यानी एक वर्ग पक्ष में व दूसरा विपक्ष नहीं बना है।
भगतसिंह व आम्बेडकर के सिद्धांतों/विचारों से बिना कोई सरोकार रखते हुए सिर्फ राजनीतिक लाभ लेने के लिए इनका उपयोग करने का भोंडा प्रयोग पंजाब में आम आदमी पार्टी की सरकार बनने के बाद सामने आया। जब आम आदमी पार्टी की सरकार ने घोषणा की कि अब सरकारी दफ्तरों में सिर्फ भगतसिंह व आम्बेडकर के चित्र ही लगाए जाएंगे व दफ्तरों में पहले से लगता आ रहा महात्मा गांधी का चित्र अब नहीं लगाया जाएगा!
बाद में दिल्ली में भी आम आदमी पार्टी की सरकार ने यही फैसला लागू कर दिया। कभी भी सरकार या आम आदमी पार्टी ने नहीं बताया कि वे भगतसिंह व आम्बेडकर के किस सिद्धांत/विचार से सहमत हैं और किस से असहमत! खुद को नास्तिक बतानेवाले भगतसिंह व हिन्दू धर्म के जातिवाद के चलते 22 प्रतिज्ञाएं लेकर बौद्ध धर्म अपनाने वाले आम्बेडकर को राजनीतिक रूप से दफ्तरों की दीवारों पर सम्मानपूर्वक जगह दी गई। मगर कहीं-कहीं सवाल तैरते रहे कि क्या सिर्फ दीवारों को वोट जुटाने वाली तस्वीरों से सजाया भर गया है?
ये सवाल उठने के आधार मजबूत थे। जब दिल्ली सरकार व आम आदमी पार्टी हनुमान चालीसा का सामूहिक पाठ करवाती है, सरकारी खर्चे पर अयोध्या के राम मंदिर के दर्शन करवाने के लिए सुविधा दी जाती है! गुजरात चुनाव प्रचार में भी आम आदमी पार्टी के “स्थायी” संयोजक केजरीवाल सत्ता आने पर राम मंदिर के दर्शन के लिए मुफ्त सरकारी सुविधा देने का वायदा करते हैं और खुद को हनुमान भक्त बताते हैं! भाजपा द्वारा दवाब बनाए जाने पर अपने मंत्री से न केवल इस्तीफा लेते हैं बल्कि जब दिल्ली पुलिस उनके ही पार्टी-नेता को इस मसले पर पूछताछ के लिए बुलाती है तब न पार्टी और न ही आम्बेडकर के सपने को पूरा करने का दम भरने वाले केजरीवाल कुछ कहते हैं!
दरअसल इस चुप्पी के पीछे एक भय है जिस ओर 12 अगस्त 2022 को इंडियन एक्सप्रेस में छपी सौरव रॉय बर्मन की रिपोर्ट इशारा करती है। “रेवड़ी” विमर्श पर ‘आप’ की सक्रियता पर लिखते हुए सौरव बताते हैं कि आम आदमी पार्टी मानती है कि धर्म, जाति, समाज इत्यादि पर भाजपा का कथानक(नैरेटिव) बेहद प्रभावी है और उसका जवाब देना संभव नहीं है लेकिन लोकहितकारी योजनाओं व लाभार्थियों के सवाल पर भाजपा को घेरा जा सकता है; इसीलिए ‘आप’ प्रधानमंत्री के ‘रेवड़ी’ वाले बयान पर हमलावर है।
जो राजनीतिक दल अपने प्रतिद्वंदी के नैरेटिव के आगे नतमस्तक हो और अपने घोषित आइकॉन की बात को दोहराने का भी बचाव न कर पाए, उसके राजनीतिक कौशल, दूरंदेशी और भाजपा का विकल्प बन पाने की उसकी संभावनाओं पर प्रश्नचिह्न लग जाता है।