— नंदकिशोर आचार्य —
अर्थशास्त्र का अध्ययन करने वाले लोगों में अधिकांश संख्या उन लोगों की है जो आर्थिक जीवन को अपने ही स्वायत्त नियमों द्वारा संचालित मानते हैं और किसी प्रकार के तत्त्वचिंतन या मूल्यदर्शन के साथ उसका कोई अनिवार्य अंतस्सम्बंध नहीं मानते – बल्कि उनमें भी एक बड़ी संख्या तो यह मानने वालों की रही है कि आर्थिक जीवन और नैतिकता या मूल्यबोध तो अनिवार्यतः एक दूसरे के विरोधी हैं। एडम स्मिथ जैसे अर्थशास्त्री यह मानते थे कि मनुष्य का आर्थिक जीवन और विकास उसकी बुनियादी स्वार्थ-वृत्ति से प्रेरित और नियंत्रित-निर्देशित हैं, इसलिए नैतिकता से उसका अनिवार्यतः विरोध का ही संबंध हो सकता है। दूसरे शब्दों में, इसका तात्पर्य यही हुआ कि संस्कृति या मानवीय चेतना आर्थिक जीवन की केंद्रीय धुरी नहीं है बल्कि आर्थिक जगत के अपने स्वायत्त नियम हैं और उनका पालन करने पर ही आर्थिक जीवन का सुचारु संचालन संभव हो सकता है। यही कारण है कि बहुत-से ऐसे अर्थशास्त्री भी मिल जाएंगे जो यह मानते हैं कि बाजार में काले धन की एक सीमा तक उपस्थिति आर्थिक विकास के लिए आवश्यक है।
इस तरह के विद्वान यह भूल जाते हैं कि आर्थिक जीवन मनुष्य के समग्र कल्याण के लिए किए जा रहे मानवीय प्रयत्नों का एक अंश है इसलिए उसे शेष जीवन से काट कर नहीं समझा जा सकता और यदि हम ऐसा करते भी हैं तो मानव जीवन में एक अनिवार्य अंतर्विरोध को ही विकसित कर रहे होते हैं।
बाजार के नियम नैतिक विरोध से परे हैं, यह मानना बाजार को एक अमानवीय सत्ता मान लेना है। आधुनिक समझे जाने वाले या वैज्ञानिक अध्ययन का दावा करने वाले अर्थशास्त्र के कई पंडित यही मानते हैं और उनके प्रभाव में आधुनिक सरकारें भी अधिकांशतः इसी मत को स्वीकार करती हैं। यही कारण है कि आर्थिक सवालों को हल करते समय मानवीय या नैतिक प्रेरणाओं की अवहेलना की जाती रहती है।
आर्थिक जीवन की यह नीति-निरपेक्षता शनैः-शनैः हमारे सामान्य जीवन में एक वैज्ञानिक दृष्टि के रूप में विकसित और स्वीकृत हो गई है। कहना न होगा कि हमारे सामाजिक जीवन के बहुत से तनाव और अंतर्विरोध इसी भ्रामक दृष्टि के परिणाम हैं।
एक दूसरा वर्ग ऐसा है जो आर्थिक जीवन को शेष जीवन से काट कर तो नहीं देखता लेकिन वह उपर्युक्त दृष्टि के विपरीत सारे जीवन की केंद्रीय प्रेरणा के रूप में आर्थिक प्रेरणा को ही स्वीकार करता है। यह दृष्टि सारे ऐतिहासिक-सांस्कृतिक परिवर्तनों का वास्तविक कारण आर्थिक परिवर्तन को ही मानती है। इस प्रकार प्रकारांतर से यह दृष्टि भी आर्थिक जीवन को ही वास्तविक जीवन मानती है क्योंकि बाकी का सारा जीवन तो उसी मूल प्रेरणा का प्रतिफलन है। यह दृष्टि भी मूलतः मनुष्य को आर्थिक प्राणी मानती है और नैतिकता कुछ हो सकती है तो यही कि आर्थिक परिवर्तन की दिशा को समझ कर उसके साथ हो लिया जाय।
यह आश्चर्यजनक है कि मनुष्य द्वारा मनुष्य के शोषण का विरोध कर एक समतामूलक और सामाजिक अन्याय से रहित समाज की स्थापना का स्वप्न देखने वाली विचारधाराएं और संगठन अपने प्रयत्नों के नैतिक आधार की अवहेलना करते हैं और एक नैतिकतानिरपेक्ष ऐतिहासिक दृष्टि को अपने प्रयत्नों की मूल प्रेरणा स्वीकार करते हैं क्योंकि उनकी राय में वही वैज्ञानिक है। यह बात दीगर है कि इस दृष्टि के राजनीतिक प्रतिफलन में वे मनुष्य की नैतिक चेतना को जागृत कर उसका लाभ उठाने की कोशिश भी करते हैं।
स्पष्ट है कि ये दोनों ही दृष्टिकोण भ्रामक ही नहीं मानवविरोधी भी हैं क्योंकि दोनों ही मनुष्य को जीवन की केंद्रीय प्रेरणा के रूप में स्वीकार नहीं करते। दोनों ही जगह मनुष्य बाजार के नियमों द्वारा अनुशासित है – बल्कि सही होगा यह कहना कि दोनों ही जगहों पर वह आर्थिक सत्ता के उपकरण है। एक जगह आर्थिक सत्ता अप्रत्यक्ष नियमों द्वारा संचालन करती है और दूसरी जगह उसका राजनीतिक प्रतिफलन उसे नियंत्रित करता है। अपनी इस कोशिश में दोनों ही दृष्टिकोण और उनसे प्रेरित राजनीति-सामाजिक व्यवस्थाएं मनुष्य का विमानवीकरण करतीं और अपनी प्रक्रिया में हिंसक तथा प्रकृति में आततायी हो जाती हैं।
पूंजीवादी लोकतंत्र और सर्वसत्तावादी समाजवाद दोनों ही व्यवस्थाएं इसीलिए मूलतः मानव विरोधी हैं क्योंकि वे आर्थिक प्रक्रिया का उद्देश्य मनुष्य का – मनुष्य मात्र का – कल्याण नहीं मानतीं बल्कि मनुष्य को आर्थिक नियमों का उपकरण बना देती हैं। मनुष्य को केवल मूलतः आर्थिक प्राणी मान लेने का मतलब उसके विकास की बहुआयामी संभावनाओं को नकार देना और उसे एक सजीव मशीन की हैसियत दे देना है।
कहना न होगा कि उससे मानवीय श्रम के प्रति भी एक हेयता की भावना विकसित होती है क्योंकि श्रम मानवीय जिजीविषा और सर्जनशीलता की अभिव्यक्ति का माध्यम न रह कर एक लाभकारी गतिविधि रह जाता है और यदि यह लाभ उस श्रम की तुलना में एक यंत्र द्वारा अधिक हो सकता है तो मनुष्य पर यंत्र को ऊ छु देना आर्थिक दृष्टि से अनुचित नहीं समझा जा सकता। श्रम या कर्म वह प्रक्रिया नहीं रहती जिसमें मनुष्य अपनी पहचान और अभिव्यक्ति ढूंढ़ता है बल्कि वह एक बाजारू जिंस हो जाता है। श्रमिक का गौरव-ज्ञान करने वाली दृष्टि अंततः श्रम को ही कितना हेय मान लेती है, इस अंतर्विरोध की पहचान भी बहुत कम विकसित हो पाती है।
आर्थिक जीवन समग्र मानवीय जीवन का एक ऐसा पक्ष है जिसका संबंध मनुष्य की बुनियादी आवश्यकताओं से है – यानी उन आवश्यकताओं से जिनके बिना मनुष्य के जैविक अस्तित्व का बना रहना भी संभव नहीं रहता। अतः उसके महत्त्व की अनदेखी नहीं की जा सकती – लेकिन इसीलिए उसे मानवीय भावनाओं और नैतिक बोध के दायरे से बाहर भी नहीं माना जा सकता। मनुष्य यदि एक स्वतंत्र सर्जनशील चेतनासंपन्न उत्तरदायी प्राणी है तो उसकी हर क्रिया में इसी चेतना की अनुप्रेरणा प्रतिबिंबित होनी चाहिए। उसके आर्थिक जीवन को न केवल शेष जीवन से काट कर नहीं देखा जा सकता बल्कि उसकी मूल प्रेरणा में भी वही संस्कृति-चेतना या नैतिक बोध रहना चाहिए जो उसे पशु से अलग करता और उसके मनुष्य होने को सिद्ध करता है।
सामाजिक अन्याय के विरुद्ध तथा मानवीय स्वतंत्रता और समानता के लिए किया जा रहा संघर्ष मूलतः एक नैतिक संघर्ष है क्योंकि न्याय अथवा अन्याय की धारणाएं मूलतः नैतिक धारणाएं हैं। आर्थिक जीवन के विकास की कथित वैज्ञानिक दृष्टि शोषण और दमन को हर हालत में अनैतिक ही मानती है। यह एक स्पष्ट तथ्य है कि सामाजिक न्याय के लिए संघर्ष की तीव्रता और विस्तार इसी नैतिक पुकार का असर है, किसी वैज्ञानिक दृष्टि का नहीं।
इसलिए उन समाजों को, जो अपने को मानववादी, लोकतांत्रिक और सामाजिक न्याय का पक्षधर मानते हैं, अपनी अर्थ-व्यवस्था को भी इस तरह विकसित करना होगा जिसमें मानवीय स्वतंत्रता यानी मनुष्य मात्र की स्वतंत्रता और गरिमा की रक्षा हो सके। यह सिर्फ आर्थिक जीवन के लाभ के वितरण का ही प्रश्न नहीं है। यह प्रश्न सिर्फ इतना ही नहीं है कि ‘अतिरिक्त मूल्य’ का उपयोग या उपभोग किसके द्वारा और किस तरह किया जाय। यह सवाल मनुष्य के लिए अधिकाधिक भौतिक सुविधाएं जुटा देने का भी नहीं है। यह सवाल समग्र मानवचेतना के विकास का, संस्कृतिबोध की चरितार्थता का सवाल है।
आर्थिक जीवन का उद्देश्य यदि समग्र मानवीय कल्याण में सहयोगी होना है तो उसे केवल अपने स्थूल परिणामों में ही नहीं, अपनी पूरी प्रक्रिया और स्वरूप में भी मानवीय होना होगा। कभी धर्म से अनुप्राणित होने पर ही अर्थ और काम को सुख का मूल ही नहीं, मोक्ष की ओर उन्मुख होना भी माना जाता था। रूढ़िगत अर्थ में तो नहीं, लेकिन एक नई धर्म-दृष्टि, एक नई मानवीय दृष्टि के बिना अर्थ अब भी अनर्थ का ही विकास करेगा।