अलविदा सुधीर

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— प्रोफेसर राजकुमार जैन —

दिल्ली के निगम बोध घाट से सुधीर गोयल की मृत काया को अग्नि में भस्मीभूत होता देखकर आया हूँ।

मूर्दघाट पर गुस्सा भी आ रहा था रंज भी कम न था, क्योंकि इसी तरह की बुनावट उसकी थी। उससे खफा, नाराज़ कितना भी हुआ पर उसका मोह कभी छूटता नहीं था।

वह जब शक्तिनगर के गवर्नमेंट स्कूल में ग्यारवहीं का छात्र था, मैं उस समय रामजस कॉलेज में एम.ए. में पढ़ रहा था।सुधीर के पिता प्रो. सुखबीर सिंह गोयल, जिन्हें दिल्ली यूनिवर्सिटी में एस.एस. गोयल के नाम से जाना जाता था। वे रामजस कॉलेज में ही अध्यापक थे। हालाँकि रामजस कॉलेज में आने से पहले ही मैं गोयल साहब की शोहरत से वाकिफ़ तथा सोहबत में आ चुका था। हमारे नेता प्रो. विनय कुमार मिश्रा का मैनेजमेंट से झगड़ा हो जाने के कारण 1967-68 में नौकरी से बर्खास्त हो जाने पर एक आंदोलन सोशलिस्ट मिज़ाज के शिक्षक और छात्र चला रहे थे। तब पहली बार गोयल साहब के दीदार हुए थे।

मैं इस बात को कहने में ज़रा भी गलतबयानी नहीं कर रहा कि 46 साल दिल्ली यूनिवर्सिटी में पढ़ते पढ़ाते, कैम्पस में रहते, गोयल साहब जैसी शख्सियत, बुनावट का दूसरा इंसान कभी देखने सुनने को नहीं मिला। गोयल साहब , उस समय राणा प्रताप बाग के पास सी.सी. कॉलोनी में रहते थे। उनकी एक पुरानी साइकिल के पीछे स्टैेंड पर काग़ज़ों तथा कुछ किताबों का बण्डल हमेशा बँधा रहता था। उससे वे कॉलेज आते थे। कैम्पस में उनकी साइकिल का पहला पहिया ज्यों ही दाखिल होता था, यूनिवसिर्टी का कोई न कोई कर्मचारी, शिक्षक दुआ-सलाम के साथ अपना रोना-रोने के लिए घेरकर खड़ा हो जाता था। यूनिवर्सिटी के संचालन के लिए एकेडमिक कौंसिल में दिल्ली यूनिवर्सिटी के शिक्षक वोट करके अपना प्रतिनिधि चुनते थे। गोयल साहब हमेशा चुनाव लड़ते तथा जीतते थे। उनकी खासियत थी कि वे कभी भी अपने लिए वोट नहीं मांगते थे। सालों-साल वे यूनिवर्सिटी से ताल्लुक रखने वाले किसी मसले पर पर्चा, पैम्फैलेट छपवाते रहते थे वह सारे साल शिक्षकों, कर्मचारियों में बॅंटता रहता था।

हालाँकि गोयल साहब फिजिक्स के अध्यापक थे, परंतु अंग्रेज़ी जबान पर उन्हें इतनी महारत हासिल थी कि अंग्रेज़ी पढ़ाने वाले गोयल साहब से शिकायत करते थे कि आप इतनी क्लासिक, क्लोकियल शब्दावली का इस्तेमाल करते हैं कि कई बार हमें समझना मुश्किल हो जाता है। और यही हालत उनके क़ानूनी ज्ञान तथा क़ानूनी शब्दावली पर थी। दिल्ली यूनिवर्सिटी के लॉ फैकल्टी के प्रोफेसर बेदी साहब कहते थे कि गोयल साहब ऐसा हो ही नहीं सकता कि आप क़ानून के छात्र न रहे हों।

बहरहाल, दिल्ली यूनिवर्सिटी के अध्यापक तथा ख़ासतौर पर कर्मचारी अपने-अपने मसले पर, गोयल साहब से ड्राफ्ट तैयार करने के लिए उनको घेरे रहते थे।

यूनिवर्सिटी की एकेडेमिक कौंसिल का चुनाव वरीयता जैसा राज्यसभा के चुनाव प्रक्रिया में होता है वैसे ही होता है। पहली वरीयता में गोयल साहब को कम वोट मिलते थे परंतु दूसरी वरीयता में गोयल साहब का समर्थन बहुत तेज़ी से बढ़ता जाता था।

एकेडेमिक कौंसिल में गोयल साहब के दबदबे का आतंक छाया रहता था क्या वाइस चांसलर, डीन, हैड ऑफ डिपार्टमेंट, गोयल साहब से शंकित रहते थे कि न जाने कब उनका नम्बर आ जाए।

और यह सब इसलिए संभव होता था कि वे अपने नैतिक बल, ज्ञान की ताकत तथा हमेशा दूसरों के लिए लड़ते रहते थे। उन्होंने कभी भी अपने लिए कुछ नहीं चाहा वे उसूल के इतने पक्के थे कि उनके ज़माने में शिक्षकों की, एक सीमा के बाद साक्षात्कार के आधार पर सीमित लोगों का चयन होता था। शिक्षक को सीनियर स्केल का दर्जा मिल जाता था, जिससे आर्थिक रूप से भी बढ़ोत्तरी होती थी। परंतु गोयल साहब की मान्यता थी कि यह कुछ लोगों के लिए न होकर, सभी के लिए होना चाहिए। अपना नुकसान करके भी वे इस नियम पर कायम रहे, बहुतेरे यूनिवर्सिटी के ऊँचे ओहदेदारों, संगी- साथियों ने समझाया परंतु गोयल साहब टस से मस न हुए।

दिल्ली यूनिवर्सिटी के शिक्षकों को, जो कुछ भी हासिल हुआ है उसमें बहुत कुछ गोयल साहब का विश्वविद्यालय के अंदर संघर्ष तथा हाईकोर्ट में पिटीशन आदि के कारण संभव हुआ।

गोयल साहब हालाँकि कभी किसी सियासी पार्टी के सदस्य तो नहीं बने परंतु वे वैचारिक रूप से सोशलिस्ट खयालात के थे। डॉ राममनोहर लोहिया उनके आदर्श थे। दिल्ली यूनिवर्सिटी के सोशलिस्ट उनको अपना पुरखा मानते थे।

आपातकाल घोषित हो जाने पर उनके विद्रोही तेवरों की रपट के आधार पर उनको भी मीसा बंदी के रूप में तिहाड़ जेल में बंद कर दिया गया।

मैं और मेरे कई सोशलिस्ट साथी भी जेल मे बंदी थे,जेल में विचारधारा, पार्टियों के आधार पर बैरकों में समूह के रूप में बंदी रहते थे। गोयल साहब सोशलिस्टों की बैरक में ही रहते थे। गोयल साहब अपनी आदत के मुताबित जेल प्रशासन से टकराते रहते थे। मुख्तलिफ सियासी खयालात के बंदी भी उनकी कद्र और इज़्ज़त करते थे। जेल में भी साथी कैदियों की पिटीशन गोयल साहब लिखते रहते थे।

गोयल साहब चाहते तो बड़ी आसानी से यूनिवर्सिटी में किसी भी बड़े पद को पा सकते थे परंतु उनके लिए बड़े पद का मतलब था अन्याय के ख़िलाफ़ लड़ना बिना इसकी परवाह किये कि इसका क्या नतीजा निकलेगा।

मेरा नाम उनकी पसंदीदा फेहरिस्त में शामिल था। उनका बड़ा लड़का सर्वेश गोयल जो पढ़ाई में अव्वल दर्जे का था कॉलेज में हमारे समय में ही पढ़ रहा था। आदत के मुताबित मैंने उसको समाजवादी जमात में शामिल करने का भरसक प्रयत्न किया, परंतु वह केवल पढ़ाई में ही मशगूल रहता था।

गोयल साहब के घर जाने पर सुधीर से गपशप, बातचीत शुरू हो गई थी और ज्योंही वह रामजस कॉलेज में पढ़ने आया, हमने उसको घेर लिया, इसमें साथी विजय प्रताप की भी बड़ी भूमिका थी। मैं रामजस कॉलेज के हॉस्टल में रहता था। मेरा 46 नं. का कमरा सोशलिस्टों का अड्डा था, साथी ललित गौतम, रविन्द्र मनचन्दा, रमाशंकर सिंह, विजय प्रताप तथा बाद में हरीश खन्ना वगैरह का अधिकतर समय यहीं बीतता था। सुधीर गोयल सोशलिस्ट टोली में शामिल होकर सक्रिय हो गया, गोयल साहब को इस पर एतराज नहीं था परंतु जब भी उनको सुधीर से शिकायत होती थी तो बेवजह उनकी नाराज़गी हमें भी झेलनी पड़ती थी।

समाजवादी युवजन सभा में सुधीर पूरी लगन और ताकत से काम करने लगा। हमेशा मुस्कराहट यारबाश की शैली में बातचीत, कितना भी डांट-फटकार कर लो कभी नाराज़़गी उसके बर्ताव में दिखाई नहीं देती थी।

बाद में वह दिल्ली विश्वविद्यालय में ही प्रोफे़सर बन गया। दिल्ली का बाशिंदा होने तथा सोशलिस्ट तहरीक में पूरी मुस्तैदी से शिरकत करने के कारण कई राष्ट्रीय नेताओं से उसका तार्रूफ हो गया था।

आपातकाल में पहले उसने भूमिगत होकर रमाशंकर, जसवीर सिंह, ललित गौतम आदि के साथ इन्दिरा गांधी शासन के ख़िलाफ़ जोखिम भरे काम करें परंतु आख़िर में पकड़ कर जेल पहुँच गया।

एक मोड़ पर उसकी बसपा के मान्यवर कांशीराम जी से जान-पहचान हो गई और कुछ ही दिनों में इतनी प्रगाढ़ होती गई कि राज्यसभा की उम्मीदवारी के लिए बसपा के पास केवल दो सदस्य को जिताने का जुगाड़ था, एक पर कांशीराम खुद उम्मीदवार बने दूसरे पर सुधीर को अपना उम्मीदवान बनाकर चुनाव लड़वाया। चुनाव में सुधीर केवल एक वोट नहीं एक वोट का सौवां हिस्सा कम पड़ जाने पर चुनाव हार गया, उसके बावजूद कांशीराम, मायावती ने उसे कैराना से बसपा के टिकट पर लोकसभा का चुनाव लड़वाया। हार के बाद उत्तर प्रदेश विधान परिषद् का सदस्य नामजद कर मायावती ने अपनी सरकार बनने पर कैबिनेट मंत्री के पद से नवाजा तथा साथ ही बसपा का राष्ट्रीय प्रवक्ता भी बनाया।

हालाँकि सुधीर बसपा में शामिल हो गया था परंतु घुट्टी में मिले समाजवाद से मुक्त नहीं हो पाया।

कांशीराम के देहांत तथा मायावती से अज्ञात नाराज़गी के कारण, एक घंटे पहले जिस सुधीर को मायावती ने दोबारा विधान परिषद् का सदस्य नामजद करवा दिया था, यकायक सुधीर को टे,फू कर वापिस अपने निवास स्थान पर बुलाकर परिषद् की सदस्यता से इस्तीफा देने का हुक्म दे दिया। सुधीर इस्तीफा लिखकर वापिस लखनऊ से दिल्ली आ गया।

एक तो इस राजनैतिक बदलाव तथा निजी जीवन की झंझट, वैवाहिक जीवन की असफलता के बाद उसका स्वास्थ्य दिन-पर-दिन गिरता गया।

तंदुरुस्ती की गिरावट के बावजूद लापरवाही तथा तनाव के कारण वह व्हील चेयर पर चलने पर मजबूर हो गया। इस सबके बावजूद टेलीफोन से पूरी संजीदगी मौज-मस्ती, हँसी खिलखिलाहट से लगातार बातचीत करता रहता था। उसकी कई आदतों से नाराज़ होकर मैं कई बार उससे बातचीत बंद करने से लेकर डांट फटकार लगा देता था परंतु मेरे अदब में कभी भी, किसी भी हालत में वह बेअदबी नहीं बरतता था। हमेशा ‘भाई साहब’ कहकर वह चिरपरिचित लहजे में बात शुरू कर देता था मानो कुछ हुआ ही नहीं।

उसके जाने से समाजवादी आंदोलन के साथ-साथ व्यक्तिगत रिक्तता पैदा हुई है। उसका इस तरह से जाना बेहद खल रहा है।

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