— अच्युतानंद किशोर ‘नवीन’ —
कल प्रेमपाल शर्मा जी के पोस्ट से जानकारी मिली कि बेंगलुरु स्टेशन पर अखबार कहीं नहीं मिलता है। अमूमन सारे भारत में अखबारों की बिक्री घटी है। दिल्ली और कोलकाता में भी सुबह हॉकर ने यदि अखबार नहीं दिया तो फिर आपको कहीं शायद ही नजर आए। स्टेशनों पर पत्रिकाओं और अखबारों की बिक्री में एएच व्हीलर का एकाधिकार था, मगर एएच व्हीलर वाले अपने स्टॉल पर खाने-पीने के सामान भी बहुतायत में बेचते हैं।
तीस-बत्तीस साल कब्ल मुजफ्फरपुर टाइम्स ऑफ इंडिया के रिपोर्टर अरुण जी (अब स्वर्गीय) मेरे दफ्तर में आकर मुझे चाय पिलाने धर्मशाला चौक पर स्थित भोला भाई की चाय दुकान पर ले गए थे। चाय की चुस्की ले ही रहा था तभी अरुण जी ने गंभीर होकर पूछा, “नवीन जी लोग अखबार पढ़ते क्यों हैं? मैं इस अप्रत्याशित सवाल के लिए बिल्कुल तैयार नहीं था। मेरे मुंह से निकल गया, समाचार और खबरों से वाकिफ होने के लिए। अरुण जी की भाव-भंगिमा पूर्ववत गंभीर बनी रही और कहा, “अखबारों में झूठ के सिवा रहता क्या है?” मैंने अचकचाकर कहा, “यह आप कहते हैं?” उन्होंने उसी संजीदगी से कहा, “हां, मैं कहता हूं, अखबार में झूठ के सिवा कुछ नहीं रहता है।”
टेलीविजन के चौबीस घंटे चलने वाले न्यूज चैनलों और सोशल मीडिया ने अखबारों के खोखलेपन को उजागर कर दिया है। अखबारी न्यूज अब बासी हो गए हैं।
हिंदी अखबारों का तो और भी बुरा हाल है। हिंदी को बदरूप बनाने में इनकी बड़ी भूमिका है। हिंदी अखबारों को पढ़कर तो लगता है कि इसकी शब्द संपदा में दारिद्र्य छा गया है। हिंदी अखबार के स्तंभ में अब नैनो न्यूज, ग्राउंड रिपोर्ट, इन्वेस्टिगेशन, एक्सक्लूसिव, लेसंस, इंटरव्यू, फ्रॉम ग्रेट थिंकर्स, एट ए ग्लांस, एनालिसिस, सेल्फ हेल्प, रिलेशनशिप, इंस्पायरिंग, जेंडर समानता, रिसर्च, स्पेस, एक्सट्रेमली बैकवर्ड क्लास जैसे अनेकानेक शब्द भरे रहते हैं। जबकि इनके सुंदर हिंदी शब्द हैं। 1967 में संयुक्त विधायक दल (संविद) की सरकार को आराम से समविद की सरकार लोग बोलते थे। यह लोगों की जुबान पर चढ़ा रहता था। लोगों के भाषागत स्वभाव को बिगाड़ने में अखबारों की बड़ी भूमिका है। दरअसल, कान्वेंटी लड़के हिंदी अखबारों के रिपोर्टर, संपादक बने हुए हैं, जिन्हें भाषा की तमीज ही नहीं है। एक बार तो सुना था कि हिंदी में टाइम्स ऑफ इंडिया नाम से अखबार निकलने वाला था।
विचार का अकाल तो इस हद तक है कि हिंदी के कई अखबार हफ्ते में दो तीन दिन बगैर संपादकीय के निकलते हैं। एक प्रतिष्ठित अखबार का संपादकीय तो एक पैरा का होता है।
हिंदी के अखबार पाठकों को पीड़ा भी खूब पहुंचाते हैं। पहले सभी अखबारों के संपादकीय और विशेष लेख मध्य के पृष्ठों पर होते थे। अब ढूंढ़ना पड़ता है तो अंतिम से दो पेज पहले नजर आता है। कायदे से अखबार की कीमत पहले पेज पर छापी जाती है। मगर इन दिनों एक राष्ट्रीय अखबार अपनी कीमत अंदर के पेज पर छापता है। कीमत जानने के लिए अतिरिक्त श्रम करना पड़ता है। अखबार की गुणवत्ता संपादकीय और विशेष लेखों से आंकी जाती है। विशेष लेख के बारे में कहा गया है, “A feature article should be like a skirt, long enough to cover the subject and short enough to be attractive.” मगर अब तो अखबारी दुनिया में “सब धान बाईस पसेरी” का सिद्धांत चलन में है।
अंग्रेजी और उर्दू के अखबार अलबत्ता अपनी गुणवत्ता को बचाए हुए हैं। पींडार, कौमी आवाज, कौमी तंजीम, उर्दू सहारा और इंकलाब अखबार हफ्ते के सातों दिन संपादकीय लिखते है। ज्वलंत मुद्दों पर भी कई विशेष लेख रहते हैं। अंग्रेजी अखबार भी इस मामले में बेहतर हैं।
लब्बोलुआब यह कि अखबार लोगों को संवेदनशील बनाएं, भाषा के प्रति लापरवाही न बरतें। पहले अखबार के मुखपृष्ठ पर राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय महत्त्व के समाचार छपते थे, किसी विशेष घटना पर संपादकीय भी शाया होता था। मगर अब तो मुखपृष्ठ पूरा का पूरा विज्ञापन से भरा रहता है। कूपन और उपहार के सहारे अखबारों के ग्राहक बनाए जा रहे हैं, मानो अखबार भी तेल साबुन की श्रेणी का सामान हो।
मगर अकबर इलाहाबादी की निम्न पंक्तियां सदैव प्रेरणा देती रहेंगी,
खींचो न कमान न तलवार निकालो
जब तोप मुकाबिल हो तो अखबार निकालो।