नर्मदा का आंचल

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— सत्यम् सम्राट आचार्य —

निष्ठिकाधिष्ठित कविकुलकीर्ति कविताकामिनी के कमनीय कवि कालिदास अपने मेघदूतों को अलकापुरी का पथ बतलाते समय नर्मदा क्षेत्र में विश्राम के निमित्त रुकने की सलाह नहींं देते, क्योंकि वे जानते थे कि इस मैकल सुता को चिर कौमार्य का वरदान प्राप्त है और विरह पीड़ा की पोथी लेकर निकलते प्रेम-पूर्ण मेघों को यदि नर्मदा के विरक्त प्रवाह से अनुराग हो गया तो उनका विराग भ्रष्ट हो जाएगा।

इसीलिए तो नर्मदा असार संसार से विरक्त मुमुक्षुओं की साधनास्थली है, यहाँ लालित्य से उल्लासित प्रेम मंजरियों की आराधना नहीं हो सकती।

तभी तो नर्मदा के तट पर कोई प्रेम-कवि जन्म नहीं ले सका, यहां तक कि रेवा ने उसको अपने पवित्र तीर्थमय तटों पर आश्रय तक नहीं दिया।

यह सोमोद्भवा नदीं तो वह स्थान है जहां भगवत् गौड़पादाचार्य के शिष्य शंकर ने अद्वैत का बीजवपन किया था, वेदऋषि जाबाल ने जहां उपनिषदों की मीमांसा की थी,
जहां यजन की आहुति से मिश्रित वायु वेदमंत्रों के आवाहनों से मिलकर जीव और जगत का भेद समाप्त कर देती है।

ऐसी जगह कहाँ प्रेम-कवियों को अपनी कविता के प्रतिमान मिलेंगे, कहाँ उन्हें प्रिय के अधरोष्ठ की उपमाएँ मिलेंगी, कहाँ उसके हृदयाघाती नेत्रों का स्मरण हो पाएगा।

प्रिय कवि कालिदास यदि यहाँ होते तो निर्वाण के उपनिषद् लिख चुके होते, शाकुंतलम् के रूप पर रीझने वाले महेश्वर के ही किसी घाट पर समाधिस्थ हो चुके होते।

अच्छा ही किया कि महाकवि के मेघ नर्मदा से गोधूलि के पूर्व ही शिप्रा की ओर निकल गए, वरना न जाने सुबह होते ही विरही यक्ष की व्यथा-कथा अलकापुरी के वैभ्राजकोद्यान में बैठी यक्षप्रिया तक पहुँच पाती या नहीं।

मेघदूतों के संदेश या तो यहीं कहीं माहिष्मति के पाषाणखण्डों की सीढ़ियों पर बिखर गये होते, या सहस्रधारा के विखण्डों में कहीं विसर्जित हो गये होते।

अमरकण्टक से खंबात तक नर्मदा का आँचल प्रेम की कविताओं को नहीं बल्कि क्रांति के गीतों, लोक कथाओं, संन्यास के छन्दों, विरक्ति के पदों और मुमुक्षुत्व के श्लोकों को स्थान देता है। तभी तो देवता इसके तटों पर तप-साधना करने आते हैं, ऋषि कठोर तप करने आते हैं, मुनि हठयोग करने।

नर्मदा परिक्रमावासियों का परिक्रमण पथ है। कभी देखा है किसी कवि को प्रेम कविताएँ लिखते हुए, नर्मदा के तट पर..


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