मनोज मल्हार की चार कविताएं

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पेंटिंग : नूपुर झा


1. अमृतसर आते आते …

हरियाई चुंदरी ताने खेत-खलिहान,
नाचते से गुजर जाते
सफेद वृक्षों की तरतीबवार कतार।

अमृतसर करीब आ रहा है …

शेखपुरा, नौशेरा, बटाला, धारीवाल, तलवंडी.
.. कुछ सुने सुने से लगते ये नाम
जाने पहचाने से।
एकाएक कई किताबों के पन्ने सामने आ जाते हैं
पृष्ठों के परिच्छेद
शब्दों की दृश्यावली।
स्मृतियों में भयावहता उभरती है
बादलों के घेरे में पहाड़ की तरह।
शाहनी ट्रक पर सवार है
शेरा गंडासे को छुपाता हुआ…
सिरों पर गट्ठर लाद इधर-उधर  छुपते छुपाते लोगों का हुजूम..
रंगमंच के तनाव भरे दृश्य की बदहवाश भाग दौड़।

तलवारें  हवा में लहराती चमकती…
सफ़ेद दाढ़ी में लाल लहू की बूंदें …
थाह ले ले चलने वाले
एकदम से भागते हैं तेज क़दमों से।
किसी लड़की की बदहवाश चीखें
कुचले जिस्म पर कोई वस्त्र नहीं

रेल अमृतसर की ओर भाग रही है
भीष्म साहनी रेल का पीछा  करते हुए..
मंटों के माथे पर खून से लिथरी मिट्टी..
टोबा टेक सिंह ठीक उनके सामने
‘ओपड़ी गुड़ गुड़िया दी’ बुदबुदा रहा है,
नहीं मालूम उसका वतन कौन सा ..
न मंटो को मालूम।
….

भव्य दुधिया रोशनी में अंगड़ाई लेता नेशनल हाईवे।
गाड़ियों तेज गति से भागती हुई।
मैं नींद के उनींदे से बाहर आ
चाँद को देखता हूँ..  मुस्कुराता चाँद
अपनी पूर्ण चमक और भव्यता के साथ।
इस वक़्त चाँद से शीतलता आ रही है
उन दिनों चाँद से लहू टपकता था।
लाल रक्त में डूबा चाँद
भयावह  चांदनी
तलवार और कटारों के आगे भागते जिस्म।
महज धार्मिक पहचानें थीं इंसानी जिस्म की
और कोई पहचान नहीं!

कुछ भागते पदचाप
कुछ भयावह चीखें
कुछ कराहते जिस्म
कुछ रोते पिता

कुछ हृदय वेधी चीत्कार करती माँएं….

दृश्यों की भागदौड़ में
एकाएक कृष्णा सोबती भव्य चेहरे के साथ
आकार ग्रहण करती हैं
और मैं ‘जिंदगीनामा’ की पृष्ठों में गुम होता चला जाता हूँ..

इस तरह ‘अमृतसर  आ गया है’ …

2. पहाड़ की तरह तपना

चट्टानी मजबूती
आग उगलते सूरज के सामने
तपने से आती है…
पहाड़ तपता है
गर्म होता है

अंदर में उबाल मारता है
उबलती किरणों का वेधन बहुत तकलीफदेह,
पर बांहें तो फैलानी होती है इनके आगे।
अकूत पहाड़ी ताकत का रहस्य भी यही..
बहुतों को छत्रछाया देने के निमित्त
बड़ों को तपना होता है..

एक पहाड़ी तपन…
एक पहाड़ी साहस…
एक पहाड़ी जिज़ीविषा
एक पहाड़ी चुनौती
एक पहाड़ी संयम….
.. और एक पहाड़ी छत्रछाया।

पेंटिंग…. स्वप्न दास

3. शहर के परिंदे

शहर के परिंदे
ढल रही शाम का
दिलचस्प नज़ारा प्रस्तुत करते हुए।

ना केवल फ़िज़ा रंगीन गतिवान हैं
बल्कि शहर के लोगों को याद दिला जाते हैं
अब तक सब कुछ ठीक है. …
नफरतियों ने गोलियां चलाई हैं
पर अब भी सब दुरुस्त है।
बाशिंदों ने पिस्टल के सामने कलेजा रख दिया..

शाम को उड़ान भरते
लाल बत्तियों के डंडे पर बैठे परिंदे
तस्दीक करते हैं कि सब सलामत है..
अब तक दंगाइयों के मंसूबे सफल नहीं हुए।
सूरज की रौशनी लहरियादार हवा से है लबरेज़..
काला धुआँ , जलते हुए घर
गिरती हुईं लाशें , लहूलुहान धरती सिर्फ दंगाइयों के
दिलों में है…

परिंदे याद दिला जाते हैं हर शाम को
शहर सही सलामत हैं अभी..
बसें आ जा रही हैं
आ जा रहे  लोगबाग।
रोजाना घर सही सलामत पंहुचने के मंसूबे
अब तक पूरे हो रहे हैं।
आदत की तरह रोज़
दूध फल सब्ज़ियां खरीदी जा रही।
लड़कियां जम कर श्रृंगार कर रहीं
माता पिता उन्हें नसीहतें देने में लगे हैं…

…परिंदों की उन्मुक्त उड़ानें
शहर के सही सलामत होने का पता है…

4. धूप और गुलमोहर का प्रेम

धूप में कितनी आग होती है
आग में लाली..
ग्रीष्म के तपिश भरे दिनों में
नये नये चमकदार पत्तों का हरापन
धूप की सोहबत में निखर निखर आता है..

धूप में रह रहे अंगारे
गुलमोहर को लाल कर देते हैं …
दुनिया को सबक देते हुए कि
प्रचंड घाम में ही गुलमोहर खिलता है ..
ग्रीष्म में खिलखिलाने वाला गुलमोहर बनो.
शीतलता ही प्रेम की जमीन नहीं है…
सूखी पथरीली फटी हुई जमीन पर
एक अंकुर का निकल आना प्रेम है..
स्निग्धता से सभी प्रेम करते हैं ..
कर सको तो कठोरता से प्रेम करो
जैसे सुकरात ने ज़हर से किया था।
मीरा की तरह पीड़ा में आनंद खोजो …

आदिम और अटूट प्रेम है
गुलमोहर की लाली
और तपाती हुई धूप में ..
करो अगर प्रेम तो
धूप और गुलमोहर की तरह करो…


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