— पंकज चतुर्वेदी —
भारत सरकार के ‘पृथ्वी मंत्रालय’ के अंतर्गत ‘डीएसएस सिस्टम’ अर्थात ‘डिसीजन सपोर्ट सिस्टम फॉर एयर क्वालिटी मैनेजमेंट इन दिल्ली’ ने स्पष्ट कह दिया है कि दिल्ली महानगर में वायु-प्रदूषण का असली कारण गड़बड़ाया परिवहन तन्त्र है। प्रदूषण बढ़ने पर परिवहन में सुधार के जो उपाय किये जाने चाहिए, उन पर कभी ध्यान ही नहीं दिया गया। अब तो पंजाब और हरियाणा में पराली भी जल नहीं रही है, फिर भी दिल्ली की हवा में जहर है। ‘स्मॉग टावर’ और पानी छिड़कने के प्रयोग असफल रहे हैं। इससे पहले वाहनों को सड़क पर ‘सम-विषम’ में चलाना भी कोई ख़ास नतीजे नहीं दे सका।
आखिर इस बात से क्यों मुंह चुराया जा रहा है कि समग्र दिल्ली, अर्थात गाज़ियाबाद, नोएडा, फरीदाबाद-गुरुग्राम समेत की तीन करोड़ से अधिक आबादी के जीवन को जटिल बना रहे वायु-प्रदूषण का मूल कारण ट्रैफिक जाम है। इसमें सड़क पर प्रबंधन का तो अभाव है ही, हाल के वर्षों में बने पूल, अंडरपास और सड़कें भी दूरगामी सोच के साथ नहीं बनीं। दरअसल कोई भी तकनीक मानव-जन्य त्रासदी का विकल्प नहीं होती और दिल्ली में सांस के रोग के अलावा अन्य कई व्याधियों से जान गंवा रहे लोगों को बचाने का एकमात्र हल सड़क पर भीड़ कम करना ही है।
दिल्ली के दो सबसे बड़े अस्पताल ‘एम्स’ और ‘सफदरजंग’ अस्पताल के सामने रिंग रोड पर पूरे दिन वाहन रेंगते हैं। बारीकी से देखें तो वहां सड़क का मोड़ गलत है, बस-स्टॉप के लिए उचित स्थान नहीं है और टैक्सी, तिपहिया का बेतरतीब खड़ा होना वाहनों की गति पर ऐसा विराम लगाते हैं कि इन अस्पतालों में भर्ती मरीजों की रोग-प्रतिरोधक क्षमता तक प्रभावित हो रही है। उन पर एंटी-बायोटिक का असर कम हो रहा है। इतनी गंभीर समस्या के निदान पर कभी कोई सोचता नहीं, जबकि इस जाम में हर दिन कई-कई एम्बुलेंसें भी फंसती हैं।
दिल्ली से मेरठ के एक्सप्रेस-वे को ही लें, इसे देश का सबसे चौड़ा और अत्याधुनिक मार्ग कहा गया। सन 1999 में कभी इसकी घोषणा संसद में हुई और फिर शिलान्यास 2015 में हुआ। यदि दिल्ली-निजामुद्दीन से यूपी-गेट और उधर मेरठ के हिस्से को जोड़ लें तो यह सड़क कुल 82 किलोमीटर की हुई। 6 से 14 लेन की इस सड़क की लागत आई 8,346 करोड़ रुपए। हिसाब लगाएं तो प्रति किलोमीटर 101 करोड़ से भी ज्यादा। आज भी हर शाम इसके दो लेन में जाम रहता ही है। दिल्ली के प्रगति-मैदान में बनी सुरंग-सड़क को देश के वास्तु का उदाहरण कहा जा रहा है, इसकी लागत कोई 923 करोड़ है और अभी इसको शुरू हुए तीन महीने ही हुए हैं, लेकिन इसमें जाम लगना हर दिन की कहानी है।
राजधानी में शायद ही कोई ऐसा दिन जाता हो जब कोई वाहन खराब होने से यातायात के संचालन में बाधा ना आए। रही-सही कसर जगह-जगह चल रहे मैट्रो जैसे निर्माण कार्यों ने पूरी कर दी है। भले ही अभी दीवाली के बाद जैसा स्मॉग ना हो, लेकिन हवा का जहर तो जानलेवा स्तर पर ही है। लोगों की सांस की तरह पूरा यातायात हांफ रहा है। यह बेहद गंभीर चेतावनी है कि आने वाले दशक में दुनिया में वायु-प्रदूषण के शिकार सबसे ज्यादा लोग दिल्ली में होंगे। एक अंतरराष्ट्रीय शोध रिपोर्ट में बताया गया है कि अगर प्रदूषण-स्तर को काबू में नहीं किया गया तो साल 2025 तक दिल्ली में हर साल करीब 32,000 लोग जहरीली हवा के शिकार होकर असामयिक मौत के मुंह में जाएंगे। सनद रहे कि आंकड़ों के मुताबिक वायु-प्रदूषण के कारण दिल्ली में हर घंटे एक मौत होती है। सांसों में बढ़ता जहर लोगों को आर्थेराईटिस जैसे रोगों का शिकार बना रहा है।
एक तरफ दिल्ली में निजी वाहनों की खरीद और पंजीयन पर कोई नियन्त्रण या नीति नहीं है, वहीं निर्माण कार्य में, खासकर सड़क पर, प्रायः आने वाले दस साल का खयाल ही नहीं रखा जा रहा है। नतीजे में कोई फ्लाई-ओवर बनने के कुछ दिनों बाद ही जाम का सबब बन जाता है। दिल्ली का पहला एलिवेटेड-रोड बारापुला इसका उदहारण है–इस पर जैसे ही ‘सीजीओ कॉम्प्लेक्स’ का ट्रैफिक जोड़ा, वहां जाम स्थायी हो गया है। जल्दी ही जब यह पुल मयूर-विहार से भी जुड़ जाएगा तो यहाँ का यातायात रेंगेगा।
दिल्ली में वायु-प्रदूषण का बड़ा कारण यहां बढ़ रहे वाहन, ट्रैफिक-जाम और राजधानी से सटे जिलों में पर्यावरण के प्रति बरती जा रही कोताही है। हर दिन बाहर से आने वाले डीजल-चालित कोई अस्सी हजार ट्रक या बसें यहां के हालात को और गंभीर बना रहे हैं।
भले ही सरकार कहती हो कि दिल्ली में ट्रक घुस ही नहीं रहे, लेकिन हकीकत जांचने के लिए गाजियाबाद से रिठाला जाने वाली मैट्रो पर सवार हों तो राजेन्द्र-नगर से दिलशाद-गार्डन तक महज चार स्टेशनों के रास्ते में हजारों ट्रक खड़े दिखेंगे। कहा जाता है कि ज्ञानी-बार्डर के नाम से मशहूर इस ट्रांसपोर्ट नगर में हर दिन दस हजार तक ट्रक आते हैं। यहां कच्ची जमीन है और ट्रकों के चलने से भयंकर धूल उड़ती है। यह पूरा स्थान दिल्ली की सीमा में है। यही हालत दिल्ली की सीमाओं के बहादुरगढ़, बिजवासन, लोनी व अन्य ट्रांसपोर्ट नगरों की भी है।
यदि वास्तव में दिल्ली की हवा को साफ रखना है तो इसकी कार्य-योजना का आधार सार्वजनिक वाहन बढ़ाना या सड़क की चौड़ाई नहीं बल्कि महानगर की जनसंख्या कम करने के कड़े कदम होना चाहिए। दिल्ली में सरकारी स्तर के कई सौ ऐसे आफिस हैं जिनका संसद या मंत्रालय के करीब होना कोई जरूरी नहीं। इन्हें एक साल के भीतर दिल्ली से दूर ले जाने के कड़वे फैसले के लिए कोई भी तंत्र तैयार नहीं दीखता। दिल्ली में नए वाहनों की बिक्री रोकने की बात तो दूर, अभी तक सरकार मैट्रो में भीड़ नियंत्रण, मैट्रो स्टेशन से लोगों के घरों तक सुरक्षित परिवहन की व्यवस्था तक नहीं कर पाई है।
सरकारी कार्यालयों के समय और बंद होने के दिन अलग-अलग किए जा सकते हैं। जरूरी तो नहीं कि सभी कार्यालयों में बंदी का दिन शनिवार-रविवार ही हो। स्कूली बच्चों को अपने घर के तीन किलोमीटर के दायरे में ही प्रवेश देने, एक ही कालोनी में विद्यालय खुलने-बंद होने के समय अलग-अलग कर सड़क पर यातायात प्रबंधन किया जा सकता है।
दिल्ली में कुछ किलोमीटर का ‘बीआरटी कारीडोर’ जी का जंजाल बना और तोड़ दिया गया। काश, पीकिंग (चीन) गए हमारे नेता ईमानदारी से वहां की बसों को देख आते। पीकिंग में 800 रूटों पर बसें चलती हैं। कुछ बसें तो दो केबिन को जोड़कर बनाई हुई यानी हमारी लो-फ्लोर बस से दुगुनी बड़ी हैं, लेकिन कमाल है कि कहीं मोड़ पर ड्रायवर अटक जाए। इन बसों में तीन दरवाजे होते हैं- चढ़ने के लिए केवल बीच वाला और उतरने के लिए आगे और पीछे दो दरवाजे। पुराने पीकिंग में जहां सड़कों को चौड़ा करना संभव नहीं था, बसें बिजली के तार पर चलती हैं, मैट्रो की तरह। इसके लिए कोई अलग से लेन तैयार नहीं की गई है। एक तो बस की रफ्तार बांध दी गई है, फिर सिर पर लगे बिजली के हैंगर से चल रही हैं सो इधर-उधर भाग नहीं सकतीं। यदि ‘बीआरटी’ मैट्रो, मोनोरेल पर इतना धन खर्च करने की बजाए केवल बसों को सीधे बिजली से चलाने पर विचार किया होता तो महानगर में सार्वजनिक परिवहन को गति और लोकप्रियता दोनों मिलती।
(सप्रेस)