अज्ञेय के इर्द-गिर्द

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— राम जन्म पाठक —

‘अज्ञेय इंटेंशनली प्राइवेट आदमी थे।’ यह गगनभेदी टिप्पणी ‘कलम का सिपाही’ लिखनेवाले मुंशी प्रेमचंद के छोटे बेटे अमृतराय ने कलम से लिखकर नहीं, मुंह से बोलकर की थी। अवसर था अज्ञेय की वर्षगांठ या पुण्यतिथि पर आयोजित एक कार्यक्रम का। जगह थी हिंदुस्तानी एकेडमी इलाहाबाद। 1993-94 की बात है। अज्ञेय के शिष्य-सखा-अनुचर राम कमल राय हिंदुस्तानी एकेडमी के अध्यक्ष बन गए थे। लखनऊ में समाजवादियों की सरकार आ चुकी थी। रामकमल राय की किताब ‘शिखर से सागर’ तक आ गई थी, लेकिन अचर्चित ही थी। साहित्यकारों ने उसे कोई खास तवज्जो नहीं दी थी। उस कार्यक्रम में अज्ञेय पर बोलने के लिए भैरवप्रसाद गुप्त, मार्कंडेय, दूधनाथसिंह, रवींद्र कालिया जैसे दिग्गजों का जुटौला हुआ था। लेकिन, सबसे ज्यादा चर्चा अमृतराय बटोर ले गए थे। अपने इसी एक वाक्य से। अज्ञेय को लेकर उन दिनों बहुत सारे सच, अफवाहें, भ्रांतियां फैली थीं और लोग रस ले-लेकर या ईर्ष्यावश अपना ज्ञान-वमन करते रहते थे। लेकिन, अमृतराय ने जो बात कही थी, वह सभी को जंच गई थी। उनका यह वाक्य ही ऐसा था, मानो सब ऐसे ही किसी आप्तवचन को सुनने को बेताब थे। इस अकेले वाक्य ने जैसे अज्ञेय की समस्त सत्ता को, समस्त साहित्य को छिन्न-भिन्न कर दिया था। लोगों को लगा था कि अज्ञेय को समझने का सूत्र मिल गया। अज्ञेय का प्रताप इससे धूमिल हुआ हो जैसे।

असल में, अज्ञेय बीसवीं सदी के उत्तरार्द्ध के नक्षत्र ही नहीं, ‘दिनमान’ हो गए थे। यों अज्ञेय का उपन्यास ‘शेखर – एक जीवनी’ आजादी के पहले प्रकाशित हुआ था। लेकिन, एक अबूझ नगरीय प्रेम की छटपटाहट, वियोग-वेदना का सम्मिलित स्वर और क्रांतिकारिता की लय की उठान सदी के नवें दशक में भी पींग ले रही थी। ‘शेखर – एक जीवनी’ के शशि-शेखर को विश्वविद्यालय के छात्र और छात्राएं अब भी अपने रूमानी अस्तित्व का हिस्सा बनाए हुए थे। इलाचंद जोशी का ‘जहाज का पंक्षी’ अपनी उड़ान भर कर सो गया था। धर्मवीर भारती के ‘गुनाहों का देवता’ के सुधा-चंदर की कैशौर्य-प्रेम की उत्कट छटपटाहट अवसान पर थी। अज्ञेय ने ‘तार सप्तक’ निकालकर, ‘शेखर – एक जीवनी’, ‘नदी के द्वीप’, ‘अपने अपने अजनबी’ लिखकर हिंदी के साहित्याकाश को लालिमा से भर दिया था। आजादी के बाद की नगरीय आकांक्षाएं ‘हरी घास पर क्षण भर’ बैठने को आकुल थीं। जो उनसे चिढ़ते थे, वे भी उन्हें तलाशकर पढ़ते थे। हालांकि, नामवर सिंह, अज्ञेय को चिंपाजी की तरह ‘गंभीर और मनहूस’ कह चुके थे। अज्ञेय के प्रेम के दर्द को खारिज कर दिया गया था और शेखर के संघर्ष को मौखिक करार दे दिया गया था। दूधनाथ सिंह उन्हें ‘खोटा सिक्का’ कहते थे।

तो ऐेसी, मुखापेक्षी और अवसरानुकूल श्रोता मंडली पाकर जब अमृतराय ने सायास या अनायास अज्ञेय पर उक्त टिप्पणी की तो सबसे ज्यादा सुख जनवादी लेखक संघ के अध्यक्ष भैरव प्रसाद गुप्त ने पाया। अवसर आने पर उन्होंने भी अज्ञेय को लेकर कई विस्फोटक बातें कहीं। जैसे कि उन्होंने कहा,” ‘शेखर – एक जीवनी’ में एक भी मुहावरा नहीं है। मुहावरा होता है जनता के पास। और अज्ञेय जनता के लेखक नहीं हैं। इसलिए उनका लेखन जनविरोधी है।” बाद में जगदीश गुप्त और रामकमल राय ने अज्ञेय के लेखन-कर्म के विविध पक्षों को रखा। लेकिन, पलड़ा इतना उटंग हो चुका था कि अज्ञेय के लिए आयोजित वह तीन दिवसीय कार्यक्रम, अज्ञेय को समझने के बजाय उन्हें न समझने में उलझ गया था। नामवर सिंह ने बहुत बाद में अपने भीतर सुधार कर लिया था और ‘शेखर – एक जीवनी’ को हिंदी के पांच सर्वश्रेष्ठ उपन्यासों में मान लिया था।

अज्ञेय को लेकर जनवादी-वामवादी लेखकों ने आरंभ से ही ऐसी मुहिम चला रखी थी कि उन्हें खलनायक की तरह पेश किया गया था। उन्हें सीआइए का एजेंट तक कहा गया।

विडंबना यह रही कि जो अज्ञेय से जितना चिढ़ता था, वह उतना ही उनके करीब जाना चाहता था। ऐसा सुना जाता है कि राजेंद्र यादव ने कभी अज्ञेय के साथ ‘मयकशी’ का प्रस्ताव रखा था, लेकिन उन्होंने ठुकरा दिया था। कानपुर के एक साहित्यकार तो बहुत गर्व से कहते रहे कि वह अज्ञेय के ‘हम-प्याला’ रह चुके हैं।

उस दौर में मैंने अज्ञेय की हर वह चीज पढ़ी, जो मुझे मिली। हिंदुस्तानी एकेडमी वाले कार्यक्रम में मुझे भी एक पर्चा पढ़ना था। लेकिन, न जाने क्यों, मैंने वह अवसर गंवा दिया था। मुझे इसका बहुत मलाल रहा था। लेकिन, वह पढ़ाई-लिखाई दिल्ली में बहुत काम आई। अपनी पत्रकारिता को सजाने-संवारने में भी और जीवन को कुछ समझने में भी। अज्ञेय की जीवनी लिखी है अक्षय मुकुल ने ‘राइटर, रेबेल, सोल्जर, लवर’ नाम से। इसकी बहुत चर्चा है। जल्द ही मंगाऊंगा।

यह होता है। कई बार, किसी लेखक को समझने में तत्कालीन समाज विफल हो जाता है। इसके पीछे बहुत से कारण होते हैं। विरोधी विचारों का घटाटोप, दुष्प्रचार और गलत व्याख्याएं एक बहुंरगी दीवार खड़ी कर देती हैं, जिसे भेदने में समरथ से समरथ लेखक भी पस्त हो जाते हैं। भुवनेश्वर जैसे लेखक को, जिन्होंने ‘भेड़िए’ जैसी विश्वस्तरीय कहानी लिखी, हिंदी समाज ने मार डाला। कहीं बनारस के किसी घाट पर वे अनाम मौत मरे। उनकी कहानी को बाद में बहुतों ने बेचा और मालामाल हुए। अज्ञेय को लेकर भ्रांतियां बहुत पैदा की गईं। अज्ञेय की टेक थी- जो समाज महान लेखक की बात करता है, क्या लेखक भी उससे पलटकर पूछ सकता है कि क्या तुम महान समाज हो?

इस ‘बावरा अहेरी’ से मुझे कभी कोई उलाहना नहीं रहा।


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