— सच्चिदानन्द सिन्हा —
पश्चिमी देशों के संबंध में यह खबर बार-बार देखने में आती है कि वहां के शिशुओं को प्रायः माँ-बाप के क्रूर व्यवहार- जैसे निर्मम पिटाई या घरों में अकेले बंद कर छोड़ देना- आदि का शिकार होना पड़ता है। इसका एक कारण तो माँ-बाप के व्यस्त जीवन में बच्चों से पैदा व्यवधान से चिड़चिड़ापन हो सकता है। लेकिन इससे भी महत्त्वपूर्ण कारण घर में दादा-दादी या नाना-नानी आदि का न होना है।
जहाँ सम्मिलित परिवार होता है वहाँ एक स्वाभाविक ‘पेकिंग आर्डर’ यानी वरीयता का क्रम बन जाता है। ऐसे में जब माँ या बाप बच्चे को एक सीमा से अधिक दंडित करते हैं तो दादा या दादी तुरंत हस्तक्षेप कर दंड को क्रूरता की सीमा तक जाने से रोक लेते हैं। इस अकेलेपन का एक दूसरा पहलू यह है कि जब माँ-बाप अपने बच्चे के लिए अपनी व्यस्तता के कारण आवश्यक समय नहीं दे पाते तो इससे उनमें अपराध-बोध पैदा होता है। एक जर्मन इतिहासकार के अनुसार इस अपराध-बोध से उबरने के लिए वे बच्चों को खिलौने से लादा करते हैं। इसका असर बच्चे पर यह होता है कि उसमें ज्यादा से ज्यादा वस्तुओं को पाने की लालसा पैदा होती है जिसका समाज पर नकारात्मक प्रभाव पड़ता है। इस तरह की समस्या अब हमारे देश के उन परिवारों में भी पैदा हो रही है जिन्हें आधुनिकता की दौड़ में सफल माना जाता है।
पर वर्तमान औद्योगिक व्यवस्था यौवन और बचपन पर ही अपनी डरावनी छाया नहीं डालती। इससे जीवन का दूसरा छोर बुढ़ापा भी त्रासद बन जाता है। व्यावसायिक मूल्यों के सभी सामाजिक संबंधों पर हावी हो जाने से समाज और परिवार में वृद्ध व्यक्तियों का भी अवमूल्यन हो जाता है। पारंपरिक समाजों में महत्त्वपूर्ण मामलों में बड़े-बूढ़ों की राय का वजन सबसे ज्यादा होता था। अब चूँकि जीवन से संबंधित सभी विषयों में निर्णायक भूमिका प्रतिष्ठानों की होती है, वृद्ध लोग जो प्रतिष्ठानों से बाहर होते हैं, इन निर्णयों में कोई भूमिका नहीं अदा करते। अब वे न धन अर्जित करने में कोई भूमिका निभाते हैं और न समाज को दिशा देने में। इस तरह वे उच्छिष्ट वस्तु बन जाते हैं।
घर-परिवार और समाज से बहिष्कृत ये बूढ़े लोग अपमान और निराशा की जिंदगी बिताते हैं। अपने परिवारों से कटे वृद्धों का जीवन प्रायः इतना अर्थहीन और असुरक्षित हो जाता है कि वृद्धों को कष्टहीन मौत (यूथेनेसिया) प्रदान करने के धंधे को मान्यता प्रदान करने की माँग विकसित औद्योगिक समाजों में चारों ओर उठने लगी है।
कोई अचरज नहीं कि भारत के सबसे शिक्षित और आधुनिक राज्य केरल में भी वृद्ध लोगों की स्थिति इतनी दयनीय हो गई है कि वहाँ के उच्च न्यायालय में उनके लिए कष्टहीन आत्महत्या को कानूनी मान्यता देने की अपील की गई है। वैसे मौत तो मौत ही है, फिर भी जैसी मौत की तलाश फिलहाल आधुनिक मनुष्य कर रहा है उसमें और जो पारंपरिक समाजों में होती थी उसमें एक गुणात्मक भेद जरूर है। पारंपरिक समाजों में मृत्यु की प्रतीक्षा परिजनों के बीच दीर्घकालिक विदाई का एक पर्व बन जाता है, जिसमें बिछुड़ने की पीड़ा के साथ स्नेह की सांत्वना भी है।
आधुनिक समाज में अधिकतर सफल लोगों के लिए मृत्यु एकाकीपन और सन्नाटे की एक दुनिया से सीमाहीन शून्य की ओर दूसरी एकाकी यात्रा है। एकाकीपन की इस स्थिति को पूर्णता प्रदान करने के लिए आधुनिक अस्पताल भी ऐसे बनाए जा रहे हैं जहाँ मानव स्पर्श और निगरानी का स्थान कंप्यूटर और रोबोट ले लें और मरने के पहले ही आदमी का मन सभी मानव संसर्गों से रिक्त हो जाए : एक जीवित समाधि की स्थिति।
क्या अत्याधुनिक समाज बनाने की आकांक्षा का, जो हम पर एक हवस की तरह सवार होती जा रही है, जीवन की बुनियादी जरूरतों के लिहाज से कोई औचित्य है?
जीवन की बुनियादी जरूरतों से मतलब है बचपन से लेकर मृत्यु तक जीवन को कष्टदायी शारीरिक और दिमागी श्रम और तनावों से मुक्त रखना और उस हद तक जीवन की आवश्यकताओं की पूर्ति करना जिससे आदमी जीवन से संतुष्ट हो। एक उक्ति है, परिणाम से ही माध्यम की सार्थकता सिद्ध होती है। इस दृष्टि से आधुनिकता के पीछे की दौड़ कहाँ तक खरी उतरती है?
उन असंख्य गरीबों की बात हम छोड़ दें जिनके हितों की बलि देकर आधुनिकता के लिए आवश्यक आधार जुटाए जाते हैं। ऊपर जो चर्चा है वह उन थोड़े से लोगों के जीवन से संबंध रखती है जो एक तरह से आधुनिकता की दौड़ में सफल माने जाते हैं जो प्रतिष्ठानों के मध्यम और ऊँचे पदों तक पहुँच गए हैं। यह विशेषकर उनकी और उनके बाल-बच्चों की स्थिति का ही विवरण है। इसमें बचपन में वर्जना और प्रताड़ना है, जवानी में स्पर्धा और असुरक्षा का तनाव और बुढ़ापे में अर्थहीनता का अवसाद। इस तरह आधुनिक सभ्यता हासिल करने का अभियान हमें एक ऐसे मुकाम पर ला रहा है जहाँ हम संसार को जीत कर जीवन को हार रहे हैं।