(किशन जी ने 1977 से 1981 के बीच सामयिक वार्ता में कुछ लेख ‘लोक शिक्षण’ स्तंभ के तौर पर लिखे थे, जिनमें उपर्युक्त लेख भी शामिल था। इन लेखों को पुस्तिका के रूप में ‘लोक-शिक्षण’ नाम से कोलकाता के रोशनाई प्रकाशन ने सितंबर 2005 छापा था, दो ही माह बाद उसे पुनर्मुद्रित कराना पड़ा। दूसरा संस्करण मार्च 2013 में प्रकाशित हुआ।)
जैसे-जैसे मनुष्य बड़ी-बड़ी नदियों की उपत्यकाओं में बसने लगा और स्थिर होकर प्रकृति, विश्व, देवी-देवताओं और खुद अपने बारे में सोचने लगा तो धर्म और भगवान के बारे में नई भावनाएँ और नया चिंतन पैदा हुआ। धर्म का जादू-टोनावाला रूप गौण होता गया। मनुष्य ने जन्म-मृत्यु और जीवन के बारे में तो सोचा ही लेकिन जीवन को ऊँचा उठाने के लिए जीवन के परे की स्थिति के बारे में भी उड़ान लगाई। उसके विचारों में बारीकी आई; उसकी भावना उदात्त बनी; पुराण, शास्त्र आदि बनने लगे।
यूनान, रोम और भारत- इन तीन प्राचीन सभ्यताओं को लें। तीनों के देवी-देवता थे, लेकिन यूनान में राजनीति और समाज, रोम में कानून-शास्त्र और भारत में अध्यात्म- इन अलग-अलग दिशाओं में सोच-विचार हुआ और भावनाएँ बनीं। यूनान और रोम में देवी-देवताओं की पूजा तो होती थी लेकिन सामाजिक संगठनों और विचारों पर धर्म का कब्जा नहीं था। भारत में धर्म का विचार और धर्म की संस्थाएँ इतनी व्यापक थीं कि धर्म के दायरे में ही सब कुछ बँध गया जिससे विचारों का या संस्थाओं का उन्मुक्त विकास नहीं हो पाया।
शुरू में प्रत्येक भौगोलिक समुदाय के अपने-अपने देवी-देवता थे। अपने धर्म और अपने भगवान को दूसरों के ऊपर थोपना एक गलत काम है। साम्राज्य-विस्तार की प्रवृत्ति के साथ जुड़कर धर्म में भी यह प्रवृत्ति आ गई। ईसाई और इसलाम धर्म वाले तथा भारत के सम्राट अशोक इस प्रवृत्ति के थे। इसके पहले स्थानीय प्रकृति, परिवेश तथा सामाजिक परिस्थिति को लेकर धर्म और देवी-देवता बनाए जाते थे। साम्राज्य वाले दिमाग से ही यह बात उठी कि भगवान एक सम्राट है और उसका कानून सारी दुनिया में चलना चाहिए। अगर ईसाई लोग अभी भी धर्म-प्रचार के मामले में सबसे ज्यादा संगठित हैं तो उसका कारण यह है कि ईसाई धर्म से जुड़े हुए लोग अभी भी राजनीति और अर्थनीति द्वारा सारी दुनिया पर अपना साम्राज्य कायम रखना चाहते हैं। राजनीतिक या व्यापारिक साम्राज्यवाद के साथ ही धार्मिक साम्राज्यवाद फैलाया जाता है। भारत ने भी व्यापारिक प्रभाव बढ़ाने के साथ-साथ पूर्व और दक्षिण एशिया में धर्म का निर्यात किया था।
स्थानीय प्रकृति और परिस्थिति के अनुसार भिन्न-भिन्न इलाकों में देवी-देवता बने और एक नीतिशास्त्र भी बना। जैसे–जैसे परिस्थितियाँ बदलीं, वैसे-वैसे धर्म में संशोधन भी जरूरी हो गया। लेकिन पुराने धर्म से फायदा उठाने वालों का एक स्वार्थी गिरोह बन गया और धर्म के नाम पर उन्होंने परिवर्तन का प्रतिरोध किया। फलस्वरूप विचारों और संस्थाओं का स्वाभाविक विकास रुक गया। इससे जो तनाव पैदा हुआ उसके कारण प्रत्येक धर्म में रूढ़िवादियों और सुधारवादियों के बीच टक्कर होती रही है। जहाँ पर्याप्त रूप से सुधार नहीं हो सका, वहाँ सामाजिक–आर्थिक विकास भी रुक गया। इसीलिए धर्म को प्रतिगामी माना जाता है।
बुद्ध ने भारत के धर्म को (तब इसका हिंदू नाम नहीं था; कोई नाम नहीं था) सुधारने का शक्तिशाली प्रयास किया। जिसका प्रभाव पाँच सौ साल तक रहा। शंकराचार्य के आने के पहले सुधार की यह धारा कमजोर हो चुकी थी और शंकराचार्य के व्यक्तित्व और प्रचार से जो ऊर्जा पैदा हुई उसका इस्तेमाल हिन्दू धर्म को अधिक रूढ़िवादी और विषमतावादी बनाने के लिए हुआ। सामाजिक विषमता की व्यवस्था इतनी दृढ़ हो गई कि धर्म के द्वारा नैतिक विकास और समाज की गतिशीलता अवरुद्ध हो गई।
मनुष्य के मन पर धर्म की पकड़ आखिर इतनी मजबूत क्यों है?धर्म-विरोधी और नास्तिक लोग अकसर धर्म की असलियत को समझ नहीं पाते। इसलिए उनकी ‘वैज्ञानिक’ और ‘बौद्धिक’ बातों का मूर्ख और अनपढ़ लोगों पर तो असर होता ही नहीं है, पढ़े-लिखों पर भी नहीं हो पाता। धर्म और भगवान विरोधी प्रचार से धनी-संपन्न लोग प्रभावित नहीं होते हैं और न ही भूखे-नंगे लोग। हिन्दू धर्म से हरिजनों को कोई फायदा नहीं होता, इसलिए बहुत से हरिजनों ने हिन्दू-धर्म को तो छोड़ा, लेकिन धर्म को नहीं छोड़ा। आंबेडकर बौद्ध हो गए। बौद्ध होना हिन्दू धर्म के खिलाफ विद्रोह है, लेकिन प्राचीन भारतीय जड़ों के साथ जुड़ना भी है। साधारण आदमी को कोई न कोई धर्म चाहिए ही।
इसलिए यह समझना जरूरी है कि धर्म में क्या-क्या चीजें होती हैं जिन्हें मनुष्य छोड़ नहीं सकता। 19वीं सदी में विज्ञान की जो प्रगति हुई उससे मनुष्य को लगा कि दुनिया की सारी बातें उसकी समझ में आ जाएँगी। नास्तिक लोग कहने लगे कि प्राचीन मनुष्य अज्ञानी था, प्रकृति के सामने असहाय था, इसलिए भय और मूर्खता में उसने देवी-देवता, भगवान और आत्मा की कल्पना की। उसके विश्वास और उसकी आस्था के पीछे कोई तथ्य या प्रमाण नहीं था।
19वीं सदी का यह गर्व जल्द ही चूर हो गया। अब यह समझ में आने लगा है कि विज्ञान से हम बहुत सारी चीजें समझने लगे हैं लेकिन इसके साथ ही हममें यह समझ भी आ रही है कि हम कितने अज्ञानी हैं। विज्ञान का दायरा बढ़ता है और उसके साथ-साथ अज्ञान का एहसास भी बढ़ता है। प्रकृति के मुकाबले में हम अपने को ताकतवर पाते हैं, लेकिन सृष्टि का रहस्य अधिक गहरा होने लगता है- मानो विज्ञान और अज्ञान दो जुड़वाँ भाई हैं; विज्ञान जितना बढ़ेगा, अज्ञान भी उतना गहरा दिखाई देगा। हम अभी भी नहीं जानते कि जीवन का उद्देश्य क्या है? मृत्यु के बाद क्या होता है? हम क्यों जिएँ? हम क्यों अच्छा काम करें? ब्रह्मांड कितना बड़ा है? क्या पृथ्वी को छोड़कर और किसी ग्रह, उपग्रह आदि पर मनुष्य तथा अन्य प्राणी रहते हैं? ये सारे दारुण प्रश्न हैं। ये प्रश्न न उठते तो कोई समस्या न थी, लेकिन जब उठते हैं तो उनका उत्तर देना ही पड़ेगा। नहीं तो दिमाग खाली रह जाता है, दिमाग का खालीपन बरदाश्त नहीं होता; आदमी मर जाना चाहेगा; शराबी हो जाएगा।
कुछ लोग होते हैं जो प्रश्नों का उत्तर भी नहीं देते, लेकिन प्रश्नों को छोड़ते भी नहीं, खोज करते रहते हैं। आम आदमी दार्शनिक नहीं है, उसको उत्तर चाहिए। दुनिया में जीने के लिए आस्था चाहिए; दूसरों पर आस्था चाहिए ताकि उसके साथ जी सकें। यह आस्था धर्म से आती है। कभी कल्पना और सोच के सहारे, कभी झूठ बोलकर धर्म मनुष्य में आस्था पैदा करता है।
सबसे अच्छा तो यह होता कि विज्ञान से ही इन सवालों का उत्तर मिल जाता। विज्ञान तथ्यों और प्रमाणों के साथ कहता है कि यह सही है और यह गलत है। धर्म झूठ बोलता है। विज्ञान झूठ नहीं बोलता लेकिन अपनी अक्षमता जाहिर करता है, मौन हो जाता है। लेकिन मौन होने से काम नहीं चलेगा, प्रश्न मौन नहीं होते। मूढ़ से मूढ़ आदमी, गरीब से गरीब आदमी के मन में भी ये प्रश्न रहते हैं;उसको ऐसा उत्तर चाहिए जिससे वह खुद जी सके और समाज में जी सके। अगर कोई कहे कि हम मांस खाने के लिए जीते हैं तो इतना भी काफी नहीं है। यह एक आस्था होगी, बशर्ते कि सुननेवाला इस पर विश्वास करे, उसका दिमाग इतने से ही भर जाए। जीवन और समाज को धरने, पकड़कर रखने के लिए आस्था चाहिए। पश्चिम में धर्म को आस्था कहते हैं (फेथ)। भारत में इसको धर्म कहते हैं यानी धारण करने वाला यानी धरकर रखने वाला।
विज्ञान सचमुच अक्षम है; जितना खोज से मिलता है, उसको भी साधारण आदमी तक पहुँचा नहीं सकता। ब्रह्मांड के बारे में आइनस्टाइन ने एक बहुत बड़ी बात का आविष्कार किया, लेकिन विज्ञान अभी तक उसको समझा नहीं सका है। पढ़े-लिखे लोगों को भी उनका आविष्कार तथ्य जैसा नहीं लगता, कल्पना जैसा लगता है। धर्म जिन बातों को कहकर आस्था पैदा करता है, वे कल्पनाएँ ही हैं। कल्पना बेईमान नहीं होती है। जिन बातों के लिए फिलहाल प्रमाण या तथ्य नहीं मिल रहे हैं, उन बातों को कल्पना के द्वारा समझना हमारा अधिकार है। जब चरित्रवान, निःस्वार्थ और सुंदर व्यक्तित्व वाला कोई साधु, संत, पैगंबर कल्पना से ही इन सवालों का उत्तर देता है तो साधारण मनुष्य को उसका उत्तर विज्ञान से भी अधिक ठोस लगता है; पुराण की बातें इतिहास या अखबार से भी अधिक विश्वास पैदा करती हैं।
बहुत पुरानी पड़ने पर पैगंबरों की भी बहुत बातें गलत साबित हो जाती हैं- लेकिन ऐसा तो विज्ञान में भी होता है। विज्ञान की भी कई बातें पुरानी हो जाती हैं लेकिन पुराने विज्ञान के आधार पर हम जो आचरण और संस्था आदि बना लेते हैं, उनको बदलते नहीं हैं। हम आइनस्टाइन के सिद्धांत को सत्य मानते हैं पर न्यूटन के जमाने की धारणाओं के मुताबिक आचरण करते हैं। अंधविश्वास विज्ञान में भी होता है। परंतु इतना सही है कि विज्ञान अंधविश्वास को तोड़ने की कोशिश करता रहता है जबकि धर्म संस्थागत रूप में उसको मजबूत बनाने की कोशिश करता है, क्योंकि यह ‘आस्था’ की बात है। पुरानी आस्था को तोड़ने से कहीं मनुष्य आस्थाहीन न हो जाए, यह डर भी रहता है।
(बाकी हिस्सा कल)