— प्रोफेसर राजकुमार जैन —
यहां के बाशिंदे, आम-तौर पर अपने रोज़मर्रा के कारोबार, धंधों-पेशो, नौकरी वगैरहा से फ़ारिग होकर शाम को पान खाने, बीड़ी-सिगरेट, दूध, चाय पीने के लिए अपने घरों से निकल-कर, बाज़ार बंद होने के बाद दुकानों के थड़ों, (दुकानों के बाहर बने हुए बैठने के स्थान) को आबाद करने और दोस्तों की सोहबत में गप लड़ाने के आदी हैं। दिल्ली वालों की ये तारीख़ी रिवायत आज भी जिंदा है। इसकी इंसानी जिंदगी में कितनी अहमियत है, उसका अंदाजा लगाना मुश्किल है। आजकल आदमी डिप्रेशन, निराशा, ब्लड प्रेशर, शुगर और अकेलेपन का शिकार है, नतीजे के तौर पर कभी-कभी आत्महत्या करने पर भी उतारू हो जाता है। परंतु चांदनी चौक की इस बैठकबाजी में इसका लाजवाब इलाज है। चांदनी चौक ही नहीं, दिल्ली 6 के अलग-अलग इलाकों में कई तरह से इस तरह की महफिल जमती है। जामा मस्जिद की कई गलियों में 8-10 कैरम बोर्ड की मेजों पर नौजवान जमे रहते हैं, उसी तरह बाड़ा हिंदू राव में हारून इस्माइल के घर के नीचे बनी बड़ी बैठक मैं मुस्तकिल रूप से एक बड़ा दरा बिछा रहता है, मोहल्ले के लोग बेतकल्लुफी से वहां तबादलाए ख्याल करते रहते हैं। हालांकि कमर्शियल रूप से उससे काफी आमदनी हो सकती है परंतु मरहूम वालिद, इस्माइल साहब की इस रवायत को उनके घर वाले बरकरार बनाए हुए हैं। खारी बावड़ी में खड़े हुए हथठेलो पर बैठे हुए नौजवान गपशप करते हुए देखे जा सकते हैं। एक वक्त हम चांदनी चौक के रहने वाले सोशलिस्ट, सोशलिस्ट पार्टी की मीटिंग उन्हीं ठेलों पर बैठकर करते थे। साथी श्याम गंभीर तो कई बार ठेले वाले मजदूरों की यूनियन की मीटिंग 8-10 ठेलों को जोड़कर वहीं पर किया करते थे। कई बार मीटिंग देर तक चलने के कारण हम लोग वहीं ठेले पर ही रात को सो जाया करते थे। बाजार सीताराम के बाहर हौज काजी पर देर रात तक सियासी गहमागहमी के साथ दोस्तों में दिनभर की बातों पर तस्करा होता रहता है। दिल्ली 6 की इस फसील के साथ ही पुरानी दिल्ली रेलवे स्टेशन, अंतरराज्यीय बस अड्डा, नई दिल्ली रेलवे स्टेशन पर हर वक्त रौनक होना कोई अजूबा नहीं है। एक और खासियत गुरुद्वारा शीशगंज साहिब के बाहर फव्वारे चौक पर जत्थों में ‘बोले सो निहाल’ व महिलाएं कीर्तन करती हुई रात को 1:00 बजे से ही आना शुरू कर देती हैं और उसके बाद वहां गुरुद्वारे की साफ-सफाई, सेेवा करने के लिए नौजवानों की टोलियां बड़े ही कोरस में एक हाथ से दूसरे हाथ में पानी की बाल्टी पकड़ाते या झाड़ू लेकर आसपास का इलाका साफ करते हुए तथा साथ ही बड़े से कढ़ाये में पकी हुई चाय सेवा करने और राहगीरों को भी पिलाई जाती है। वहां भी दोस्तों की महफिल देर तक जमी रहती है। यह तो मैंने कुछ नजीरें दी हैं। पुराने शहर के मुख्तलिफ इलाकों में इस तरह के नजारे देखे जा सकते हैं।
शाम को जब यारों की महफिल जमती है, रोजमर्रा के आने वालों में से किसी एक की चुप्पी अथवा उतरे हुए चेहरे को देेखते ही साथी पहचान लेते हैं, पूछते हैं “अबे भैये क्या हुआ? शक्ल पर 12 क्यों बज रहे हैं, परेशान बंदा कोई जवाब नहीं देता, तो फिर साथ में बैठा हुआ साथी फिकरा कसता, यार इसे परेशान मत करो बेचारा भाभी के पेटीकोट को धोकर आया है। इसी तरह के एक दो और जुमलों को सुनकर खामोश हुआ साथी फट पड़ता है, ‘सालो’ तुम्हें तो मजाक सूझ रहा है, जब तुम पर पड़ेगी तो पता लगेगा, फिर वह अपने घर पर हुई घटना का जिक्र दोस्तों के सामने कर देता है। फिर बैठे हुए साथी कहते हैं ‘अबे’ परवाह मत कर सब ठीक हो जाएगा, मेरे साथ तो इससे कहीं ज्यादा रोज होता है, चल तू ऐसा कर ले, फिर साथी लोग उसका उपाय, इलाज बताना शुरू कर देते हैं’
घर वापस जाने का वक्त हो गया पर अभी तक बंदा घर नहीं पहुंचा। थोड़ी देर बाद उसके घर से कोई बुलाने आ जाता है, तो यार-दोस्त उसको कहते हैं, ‘बेटे’, एक बात याद रखना, हम अभी मर नहीं गए, यह हमारे साथ चलेगा दो रोटी अपने यार को खिलाने की अभी हमारी औकात है।’ घर का बच्चा कहता है ‘चचा’ ऐसी बात नहीं है। फिर यार दोस्त कहते हैं कि ठीक है आज तो तू जा। आगे कुछ होगा तो हम सब देख लेंगे। सारी बातचीत का नतीजा होता था, जो इंसान मन ही मन में झुलस रहा था, मानसिक तनाव में था अपनी परेशानियों को अपने दोस्तों में साझा कर कुछ राहत मिल जाती थी मल्लम का फोहा उसके जख्मों पर लग जाता था। इसलिए उस जमाने में डिप्रेशन, निराशा, अकेलापन बहुत कम देखने-सुनने में आता था।
चाँदनी-चौक, घंटा-घर के चौराहे पर आसाराम चाय वाले के ठेले पर बिकने वाली चाय की शोहरत से पुरानी दिल्ली वाले अच्छी तरहां वाकिफ़ हैं! आसाराम की चाय के ज़ायके के बारे में क्या ही ज़िक्र किया जाए! रातभर ठेले के इर्द-गिर्द चाय पीने वाले शौकीनों का जमघट लगा रहता है! उस ज़माने में यानी आज से पचास-साठ साल पहले, सामाजिक समस्याओं और सियासी उतार-चढ़ावों में दिलचस्पी रखने वाले पुरानी दिल्ली के नौजवानों की संगत आम-तौर पर आसाराम चाय वाले के ठेले के क़रीब ही हुआ करती थी!
एक दिन शाम को जब मैं वहां पहुंचा तो संगत जमी हुई थी! मुजीबुर्रहमान खां (मरहूम) जिनका बल्लीमारान में एम.एम.ऑफसेट प्रिंटिंग के नाम से मशहूर प्रेस था और वो हमारी ऐसी संगतों के चैयरमैन हुआ करते थे, बिराजमान थे। लेकिन, अज़ीम अख़्तर ग़ैर-हाज़िर थे! मैने मुजीब से पूछा के अज़ीम अख़्तर अभी तक नहीं आए, तो उन्होंने मुस्कुराते हुए कहा कि कटरानील में पान के बीड़े बनवा रहे होंगे! मुजीब का जुमला अभी पूरा नहीं हुआ था कि अज़ीम अख़्तर मुंह में पान दबाए मुस्कुराते हुए आ गए। इनके आते ही मुजीब ने कहा लो-मियां जैन साहब, मैं कहीं भूल ना जाऊं, एक अहम ख़बर आप को देनी है! परसों अज़ीम अख़्तर की किताब का विमोचन उर्दू घर में हो रहा है! इसमें मंडली के सभी लोगों को पहुंचना है! मुजीब साहब के इतना कहते ही मैंने क़हक़हे लगाते हुए कहा के अच्छा ये लिखारी हैं और किताब भी लिखते हैं?
इस पर मुजीब भाई ने बताया के इनके वालिद साहब मशहूर शायर हैं। उर्दू दुनिया में बहुत ही अदब और इज़्जत की नज़र से देखे जाते हैं, और अज़ीम अख़्तर भी ख़ुद उर्दू दुनिया में जाने-पहचाने जाते हैं! इनके तंज़िया, मज़ाहिया मज़ामीन उर्दू के मशहूर रिसालों में छपते रहते हैं!
दो दिन बाद मंडली के तमाम साथी उर्दू घर पहुंचे! जहां दिल्ली यूनिवर्सिटी के बहुत से रिसर्च स्कॉलर मिले उर्दू के इन रिसर्च स्कॉलर के अलावा, मेरे करोड़ीमल कॉलिज के डॉक्टर ख़लीक़ अंजुम, डॉक्टर कामिल क़ुरैशी और डॉक्टर क़मर रईस जैसे मशहूर उर्दू विद्वान भी मौजूद थे! इनको मेरे वहां पहुंचने पर हैरत हुई! इन्होंने पूछा जनाब आप कैसे आए! मैंने कहा अज़ीम अख़्तर मेरे पुराने दोस्त हैं! उर्दू के इन विद्वानों से बातचीत करते हुए अंदाज़ा हुआ के अज़ीम अख़्तर दिल्ली की उर्दू दुनियां में एक अच्छी पहचान शनाख्त और धाक रखते हैं।
प्रोग्राम में में बोलने वालों ने अज़ीम अख़्तर की किताब और लिखने की शैली के अंदाज ए बयां की अच्छी खासी तारीफ़ की! इस तारीफ़ की कुछ नुकता-चीनी भी हुई, जो हमारे आलोचकों की एक परम्परा है।
( जारी है)