कृषि में आजीविका मूल्य की अवधारणा जरूरी

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— सच्चिदानन्द सिन्हा —

खेती से पैदा वस्तुओं के मूल्य को लेकर जो विवाद अब तक चला रहा है वह नफे की खेती की अवधारणा पर आधारित है। इस सिलसिले में दो बातों का जिक्र आता है- पहला, कृषिजन्य वस्तुओं की कीमतों के सूचकांक की औद्योगिक वस्तुओं के सूचकांक से तुलना, जिससे यह ज्ञात होता है कि कृषिजन्य वस्तुओं की कीमतों से बाकी चीजों की कीमतें प्रायः अधिक तेजी से बढ़ती हैं। इसलिए माँग दोनों क्षेत्रों की कीमतों में सामंजस्य स्थापित करने की होती है।

दूसरा, यह देखा जाता है कि कृषि के लिए उपयोग में आने वाली वस्तुओं, जैसे- खाद, डीजल, कीटनाशक आदि की कीमतें लगातार बढ़ती गयी हैं, और इससे खेत में पैदा वस्तुओं से प्राप्त आय से लागत खर्च अधिक पड़ता है। इससे खेतिहरों को लगातार घाटा उठाना पड़ता है। इस तरह माँग यह होती है कि खेती में पैदा वस्तुओं की कीमतें ऐसी होनी चाहिए कि किसानों की आय लागत खर्च से अधिक हो।

समस्या को इस तरह रखने में यह कहीं स्पष्ट नहीं होता कि यह कीमत लागत-खर्च से कितना अधिक होना चाहिए। असल में अभी तक इसका कोई आधार नहीं निश्चित किया गया है। इस तरह कीमतों को लेकर किसान आंदोलन ट्रेड यूनियन जैसी राजनीति में फँस गया है। खासकर उन इलाकों में जहाँ खेती में औद्योगिक कच्चे मालों का उत्पादन होता है- जैसे महाराष्ट्र और गुजरात में कपास, मूँगफली और गन्ने की खेती तथा पश्चिमी उत्तर प्रदेश में गन्ने की खेती के इर्द-गिर्द। इसमें देश के तमाम खेतिहरों की आजीविका की समस्या के समाधान की कोई स्पष्ट दृष्टि नहीं दिखाई देती।

समय-समय पर आम कीमतों की बाढ़ के संदर्भ में गन्ना या कपास की कीमतों को बढ़ाने की माँग होती है और फिर सरकार से मोल-तोल करके तात्कालिक रूप से एक कीमत निर्धारित कर दी जाती है। इससे कुछ काश्तकारों को कुछ समय के लिए राहत मिल जाती है लेकिन देश के सभी किसानों, काश्तकारों और खेत मजदूरों की समस्याओं के स्थायी समाधान के लिए कृषिजन्य वस्तुओं के कीमत-निर्धारण में आजीविका मूल्य का सिद्धांत अपनाना होगा। ठीक उसी तरह जैसे श्रमिकों के लिए जीवन-वेतन (लिविंग वेज) की अवधारणा होती है।

इस सिलसिले में जो ध्यान में रखने की बात है वह यह है कि देश में 1981 के आंकड़ों के अनुसार 56.5 प्रतिशत जोत हेक्टेयर से छोटी थीं और 18 प्रतिशत 1 से 2 हेक्टेयर के बीच। इस तरह 74.5 प्रतिशत जोतें 2 हेक्टेयर की या इससे छोटी हैं। संभव है कि पिछले दशक में आबादी की बाढ़ के कारण स्वाभाविक विभाजन से छोटी जोतों का प्रतिशत और बढ़ा हो। इसलिए किसानों की गरीबी हटाने का अर्थ है मूल्य का निर्धारण इस तरह करना कि छोटे जोतवाले बहुसंख्यक किसानों की गरीबी दूर हो सके। यानी इन छोटे किसानों की खेती लाभकर हो सके। ऐसी नीति से बड़े किसान भी स्वाभाविक रूप से लाभान्वित होंगे।

यह तर्क दिया जा सकता है कि इससे गाँवों में धनी काश्तकारों का एक वर्ग पैदा होगा। यह होना संभव है। लेकिन जब तक देश में संपत्ति पर कोई सीमा नहीं है तो समता का फार्मूला सिर्फ गाँवों में लागू करने का कोई अर्थ नहीं। लेकिन गाँवों में अपेक्षाकृत बड़े काश्तकारों के लिए एक सीमा के बाद संपन्न होना संभव नहीं होगा अगर खेत-मजदूरों की मजदूरी भी शहरी मजदूरों के समकक्ष सुनिश्चित करने की व्यवस्था साथ-साथ हो। इससे मूल्यवृद्धि में अतिरिक्त फायदे का वितरण स्वतः हो जाएगा और अधिकतम फायदा उन छोटे किसानों को होगा जो मुख्य रूप से पूरी तरह पारिवारिक श्रम से खेती करते हैं।

ऊपर के परिप्रेक्ष्य में लाभकर खेती का अर्थ यह होगा कि कृषिजन्य वस्तुओं का मूल्य निर्धारण इस प्रकार हो कि एक या दो हेक्टेयर की छोटी जोत पर भी खाद, बीज, कीटनाशक, सिंचाई, जोताई तथा कृषि मजदूरों को उद्योगों, सेवाओं या नगरों में निर्माण कार्य में लगे मजदूरों के समान मजदूरी देकर किसान परिवार अपने जीवन की आवश्यकताएँ- जैसे भोजन, वस्त्र, आवास, शिक्षा, उपचार आदि पूरी कर सकें। ऐसी ही मूल्य नीति से किसानों और कृषि में लगे मजदूरों की गरीबी दूर हो सकती है।

कृषि की क्षमता का पूरा उपयोग जिससे आय और रोजगार दोनों जुड़े हैं, पूंजीनिवेश पर निर्भर करता है। हालाँकि एक सीमित मात्रा में आधारभूत निर्माणों (इन्फ्रास्ट्रक्चर) जैसे सिंचाई, ऊर्जा, बाढ़ नियंत्रण आदि के लिए सार्वजनिक पूंजीनिवेश आवश्यक है, असली विकास करोड़ों किसानों द्वारा पूंजीनिवेश में किये गये योगदान पर निर्भर करता है। इसके लिए जरूरी है कि किसानों के पास अपनी बुनियादी आवश्यकताओं की पूर्ति  के बाद ऐसी पूंजी बची रहे जिसे वे कृषि के उन क्षेत्रों के विकास पर लगा सकें जो पूंजी के अभाव में अछूता रह जाते हैं। इस तरह के विकास, मिट्टी का सुधार, क्षरण से बचाव, निजी सिंचाई सुविधाओं का विस्तार, निम्न कोटि की भूमि पर उपयुक्त कृषि का विस्तार या खेती के नये प्रयोग आदि हो सकते हैं। इसके अलावा कृषि से संबद्ध तथा गाँव की जरूरत के छोटे उद्योगों में यह अतिरिक्त पूंजी लगायी जा सकती है।

यह ध्यान में रखने की बात है कि खेती का हर नया प्रयोग जोखिम भरा होता है। किसानों के लिए ऐसा प्रयोग करना तभी संभव है जब उनमें घाटा भी उठाने की क्षमता हो। आज जब किसान अपनी दैनन्दिन की जरूरतों की पूर्ति के लिए ही कर्ज के बोझ से दबा रहता है, जमीन बंधक रखता है या जमीन बेचकर भूमिहीन बन जाता है, तब उससे ऐसे विकास कार्यों पर खर्च की आशा नहीं की जा सकती। सरकारी माध्यमों से ऐसे विकास-कार्यों के लिए उपलब्ध करायी गई पूंजी का एक बहुत ही छोटा भाग वास्तव में ऐसे विकास-कार्यों पर खर्च हो पाता है। प्रायः इसका बड़ा हिस्सा बिचौलियों के हाथ में चला जाता है।

ऊपर सुझायी गयी मूल्य नीति लागू करने का एक नतीजा यह होगा कि कृषिजन्य वस्तुओं की कीमतें, खासकर खाद्यान्नों की कीमतें, जिनमें लागत के अनुपात में बचत नगण्य होती है या ऋणात्मक, कई गुना बढ़ानी पड़ सकती हैं। इससे अन्तरराष्ट्रीय कीमतों के हिसाब से यह कीमत काफी हो सकती है। हमें यह याद रखना है कि अन्तरराष्ट्रीय कीमतों का निर्धारण अक्सर अमरीका, फ्रांस या अन्य वैसे देशों द्वारा होता है जहाँ जोतों के आकार बृहत हैं और कृषि में अल्पाधिक मशीनीकरण है। इसके फलस्वरूप कृषि में उत्पादित वस्तुओं की प्रति इकाई कम कीमत मिलने पर भी कृषि में लगे लोगों की प्रतिव्यक्ति या पारिवारिक आय बहुत अधिक हो जाती है। इसके अलावा इन देशों के कृषि मूल्यों में अक्सर सरकारी अनुदान (सबसिडी) अप्रत्यक्ष रूप से भारी मात्रा में मौजूद रहता है।

इस नीति का एक विकल्प तो यह हो सकता है कि हम खेती में लगी श्रमशक्ति का उद्योगों और सेवाओं में स्थानान्तरण करके तथा जोतों का आकार बढ़ाकर खेती का मशीनीकरण करें। लेकिन भारत में पूंजी की उपलब्धता की स्थिति देखते हुए यह संभव नहीं।

लोकतंत्र के होते हुए खेती में लगे काश्तकारों (इस कोटि में किसानों के अलावा वे लोग भी शामिल हैं जो किसान नहीं कहे जा सकते; क्योंकि वे इसमें पारिवारिक या निजी श्रम नहीं लगाते) और खेत मजदूरों की विशाल संख्या को देश के अन्य क्षेत्रों में उपलब्ध जीवन स्तर से सदा के लिए वंचित नहीं रखा जा सकता। इसलिए कृषिजन्य वस्तुओं की कीमत निर्धारित करते समय अन्तरराष्ट्रीय मूल्यों से तुलना की बात दिमाग से निकाल देनी चाहिए, क्योंकि यह किसानों के लिए घातक है।

यह ध्यान में रखने की बात है कि जापान, जहाँ जोतें बहुत छोटी हैं, अपने चावल उत्पादकों को सुरक्षा देने के लिए चावल का आयात नहीं करता और इस कारण वहाँ चावल का मूल्य अन्तरराष्ट्रीय मूल्य से छह से आठ गुना के आसपास रहता है। इस नीति के तहत एक आवश्यक उत्पादन में लगी जनसंख्या को दूसरे संपन्न वर्गों की आय का कुछ भाग बाँटकर उचित जीवन स्तर प्रदान किया जाता है।

इस नीति का एक नतीजा निम्न आयवाले लोगों पर खाद्यान्नों की बढ़ी कीमतों का बोझ बढ़ाना होगा। इसका निदान यह है कि अन्न के राशन की व्यवस्था सिर्फ निम्न आयवालों तक सीमित की जाय, और राशन की मात्रा ऐसी रखी जाय कि राशन पाने वाले लोगों को खुले बाजार में अन्न नहीं खरीदना पड़े। इस तरह देश के मध्यम वर्ग और उच्च वर्ग की आमदनी के विलासिता पर खर्च होने वाले भाग का कुछ अंश किसानों और कृषि मजदूरों की खुशहाली पर वितरित हो सकेगा। चूँकि देश में राशन की व्यवस्था गाँव-गाँव तक है ऐसा करने में कोई अतिरिक्त व्यवस्था नहीं करनी होगी।

इस नीति का दूसरा नतीजा यह होगा कि कृषिजन्य वस्तुओं का निर्यात सिर्फ उन्हीं क्षेत्रों में सीमित होगा जहाँ प्राकृतिक या अन्य कारणों से हमारी स्थिति सुविधाजनक है और वर्तमान मूल्य भी उत्पादकों के लिए लाभकारी है। लेकिन यह कोई विशेष चिंता का कारण नहीं, क्योंकि निर्यात आधारित विकास की अवधारणा स्वयं एक विवादास्पद विषय है, और इसे कृषि के विकास के साथ जोड़ना  खतरनाक हो सकता है।

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