— अरुण कुमार त्रिपाठी —
भारत का 74वां गणतंत्र सभी देशवासियों को मुबारक हो। इस औपचारिक शुभकामना संदेश के साथ यह सवाल भी लाजिमी है कि हमारा लोकतंत्र कहां गया। भले ही द्रौपदी मुर्मू भारत की राष्ट्रपति बनने वाली पहली आदिवासी महिला हैं और उनसे पूरी दुनिया में एक अलग संदेश गया है लेकिन उनके इस दावे पर सवाल उठता है कि हमारा लोकतांत्रिक गणराज्य सफल रहा है। हमारी अनेकता कमजोरी नहीं शक्ति साबित हुई है। न ही हम महज यह ढांढस बंधाए जाने से खुश हो सकते हैं कि भारत को जी-20 का नेतृत्व मिल गया है और आर्थिक मोर्चे पर देश बहुत मजबूत है।
अगर भारत एक सफल लोकतांत्रिक गणराज्य के रूप में स्थापित हो गया होता तो न तो यहां नफरत का ऐसा माहौल होता और न ही न्यायपालिका से लेकर चुनाव आयोग, केंद्रीय जांच एजेंसियां और मीडिया तक सारी संस्थाओं की साख संकट में होती। न तो हमारे केंद्रीय विधिमंत्री रोज ब रोज सुप्रीम कोर्ट को संसदीय संप्रभुता के आगे झुकने की नसीहत दे रहे होते और न ही सरकार के लठैत की तरह से काम कर रहे तमाम चैनल न्यायपालिका में जजों की नियुक्ति पर भांति भांति के सवाल उठाते।
गणतंत्र का अर्थ होता है कि निर्धारित समय पर चुनाव होते रहें और शासन करने वाले जनता के माध्यम से उन्हीं के बीच से सत्ता में आते रहें। वह काम तो इस देश में बखूबी चल रहा है लेकिन न तो चुनाव आयोग की साख संदेह से परे है और न ही उसकी स्वायत्तता। चुनाव न सिर्फ केंद्र में सत्तारूढ़ दल और नेताओं की सुविधा के लिहाज से होते हैं बल्कि मतदान के दिन तक आचार संहिता की अवहेलना होती है।
इलेक्टोरल बान्ड से क्यों एक राजनीतिक दल के हिस्से में धनवर्षा हो रही है और बाकी दलों के खाते में सूखा पड़ा हुआ है? वे कौन लोग हैं जो इस बांड के माध्यम से भारतीय राजनीतिक प्रणाली को सुचारु रूप से चलाने के नाम पर अपने काले धन को सफेद कर रहे हैं? इस सवाल पर न तो चुनाव आयोग कुछ बोल रहा है और न ही लंबे समय से पड़ी याचिका पर सुप्रीम कोर्ट कोई फैसला सुना रहा है। यह सही है कि आरंभ में चुनाव आयोग ने आपत्ति की थी लेकिन उसके बाद वह खामोश हो गया।
केंद्रीय जांच एजेंसियों की भूमिका पर पहले भी सवाल उठते रहे हैं और सुप्रीम कोर्ट ने तो सीबीआई को पिजड़े में बंद तोता तक कह डाला था। लेकिन पिछले नौ वर्षों में ईडी, सीबीआई और आईबी जैसी केंद्रीय जांच एजेंसियां विपक्षी नेताओं के विरुद्ध ज्यादा ही सक्रिय हो गई हैं। सत्तारूढ़ दल के नेताओं और विपक्ष के नेताओं के विरुद्ध होने वाली कार्रवाई में कई गुना का अंतर है। अगर यह कहा जाए कि 90 प्रतिशत कार्रवाई विपक्षी नेताओं को डराने धमकाने के लिए होती है और दस प्रतिशत कार्रवाई सत्तारूढ़ दल के नेताओं को दिखाने के लिए होती है तो अतिशयोक्ति नहीं होगी। इससे साबित होता है कि केंद्रीय जांच एजेंसियों ने अपनी निष्पक्ष भूमिका छोड़कर राजनीतिक भूमिका अख्तियार कर ली है और उनकी सक्रियता उस समय बढ़ जाती है जब चुनाव नजदीक होते हैं। वे राजनेताओं को एक दल से दूसरे दल में ले जाने, लोकतांत्रिक ढंग से चुनी गई सरकारों को गिराने और नई सरकारें बनवाने में परोक्ष भूमिका निभा रही हैं। अगर विपक्ष में रहते हुए किसी नेता पर कार्रवाई हुई है और वह पार्टी छोड़कर सत्तारूढ़ पार्टी में शामिल हो गया है तो एजेंसियां अपनी सक्रियता कम कर देती हैं और बाद में उस व्यक्ति को बरी कर देती हैं।
जाहिर है कि गणतंत्र निष्पक्षता और न्याय के आधार पर चलता है लेकिन यहां पक्षधरता और अन्याय का बोलबाला है और दावा किया जाता है कि ऐसा कब नहीं हुआ।
लेकिन लोकतंत्र के समक्ष सबसे बड़ी चुनौती न्यायपालिका और कार्यपालिका के टकराव के रूप में उपस्थित हो रही है। जिसे न्यायपालिका बनाम विधायिका के टकराव के तौर पर पेश किया जा रहा है। यह बात जनता को समझाई जा रही है कि कानून बनाने का काम विधायिका का है, उसे लागू करने का काम कार्यपालिका का है और उसकी व्याख्या करने का काम न्यायपालिका का है। न्यायपालिका कानून नहीं बना सकती और अपने जजों की नियुक्ति खुद नहीं कर सकती। ऐसा संविधान में नहीं है। इससे संसद की संप्रभुता का उल्लंघन होता है। इसी के तहत देश के विधिमंत्री और राज्यसभा व लोकसभा के सभापति और अध्यक्ष उन तमाम न्यायिक निर्णयों पर सवाल उठाते हैं जिनके कारण हमारा संविधान अभी तक बचा हुआ है और नागरिकों के मौलिक अधिकारों की किसी हद तक रक्षा कर पा रहा है।
यह बात स्थापित हो चुकी है कि भारत में न तो संसद बड़ी है और न ही न्यायपालिका। दोनों अपने अपने दायरे में स्वतंत्र हैं लेकिन उन सबसे ऊपर है भारत का संविधान। जिसके भीतर संसद संशोधन कर सकती है लेकिन वह संविधान के बुनियादी ढांचे को नहीं बदल सकती। केशवानंद भारती के मुकदमे में स्थापित बुनियादी ढांचे के सिद्धांत को संविधान के विरुद्ध बताया जा रहा है और उसी के आधार पर दिए गए एनजेएसी यानी राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग संबंधी फैसले को भी गलत बताया जा रहा है। सत्ता की ओर से लगातार दिए जा रहे बयान साफ तौर पर संकेत करते हैं कि सुप्रीम कोर्ट से न्यायिक समीक्षा का अधिकार छीने जाने की तैयारी है और संविधान में बड़े संशोधन की योजना है।
यह आशंका निराधार नहीं है। क्योंकि ऐसा पहले हो चुका है और आज वैसे ही हालात निर्मित हो रहे हैं। जब जब न्यायपालिका और कार्यपालिका का टकराव एक सीमा से आगे जाता है तो उसकी गाज संविधान पर गिरती है। उस झगड़े में लोकतंत्र कमजोर होता है। 1973 में केशवानंद भारती का फैसला आने के बाद टकराव बढ़ा और उसकी परिणति भारत के मुख्य न्यायाधीश के पद पर कई वरिष्ठ जजों को बाइपास करके एक जूनियर जज को भारत के मुख्य न्यायाधीश के पद पर बिठाने के तौर पर सामने आया। बाद में प्रधानमंत्री के चुनाव के रद्द होने के साथ आपातकाल का लगाया जाना और संविधान के बड़े हिस्से को बदल देने वाला 42वां संविधान संशोधन किया गया।
लेकिन इस सब से ज्यादा चिंता की बात है सामाजिक जीवन में बढ़ती नफरत। यह महज संयोग नहीं है कि आज देश में राहुल गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस पार्टी समेत कई समाजवादी दल और बौद्धिक लोग नफरत छोड़ो, संविधान बचाओ और भारत जोड़ो यात्राएं निकाल रहे हैं।
इसके बावजूद राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक मोहन भागवत यह कहते हैं कि इस देश में एक हजार साल से युद्ध चल रहा है इसलिए अगर हिंदू आक्रामक है तो कोई हर्ज नहीं है। अगर देश में माहौल को शांत रखना है तो मुस्लिमों को अपना श्रेष्ठता बोध छोड़ना होगा। उन्हें यह बात दिमाग से निकालनी होगी कि उन्होंने कभी देश पर शासन किया और वे फिर कभी कर सकते हैं। यह तरीका इतिहास की हिंदू और मुस्लिम के आधार पर व्याख्या करने की कोशिश है। ताकि देश के इतिहास की व्याख्या न तो आदिवासियों के संघर्ष के तौर पर हो सके न ही दलितों के संघर्ष के तौर पर हो सके, न स्त्रियों के संघर्ष के तौर पर हो सके और इसी क्रम में मजदूरों, किसानों के संघर्ष और पर्यावरण जैसे गंभीर मसले को नजरअंदाज किया जा सके। न ही पर्यावरण के बारे में कुछ सोचा जा सके।
लोकतंत्र बहुमत का शासन है लेकिन वह अल्पमत की सहमति से चलता है। अगर लोकतंत्र अल्पमत को डरा-धमकाकर चलाया जाता है तो वह अधिनायकवाद का रूप ले लेता है।
इसीलिए डा आंबेडकर ने 26 नवंबर 1949 को भारत को नया संविधान देते हुए यह चिंता जताई थी कि अगर हम सामाजिक और आर्थिक बराबरी नहीं ला सके और यह भूल गए कि हमें सभी लोगों को न्याय देना है तो यह लोकतंत्र चल नहीं पाएगा। उन्होंने यह भी कहा था कि संविधान कितना भी लचर हो अगर उसे लागू करने वाले अच्छे लोग हैं तो वह बढ़िया काम करेगा। लेकिन अगर संविधान बहुत अच्छा हो और उसे लागू करने वाले बुरे हैं तो उसकी गति बुरी ही होगी। यही वजह है कि उन्होंने लोकतंत्र के लिए भाईचारा और बराबरी को प्रमुख गुण माना था।
हम ऐसे नाजुक दौर में हैं जब एक ओर देश में गणतंत्र की तैयारी चल रही है वहीं दूसरी ओर अभिव्यक्ति के अधिकारों के लिए देश के कई विश्वविद्यालयों में छात्र बीबीसी की एक डाक्यूमेंटरी देखने के लिए पत्थर और लाठियां खा रहे हैं। इस फिल्म पर सरकार के रवैए ने इस बात को सही साबित कर दिया कि भारत में लोकतंत्र और विशेषकर अल्पसंख्यकों का जीवन परेशानी में है। दावोस में होने वाले वर्ल्ड इकॉनमिक फोरम में यह रिपोर्ट पेश की जाती है कि भारत के एक प्रतिशत अमीर लोगों के पास देश की 30 प्रतिशत संपत्ति है, जबकि नीचे के 50 प्रतिशत लोगों के पास 3 प्रतिशत संपत्ति है। वहां इन बातों से बेखबर हमारी सरकार अपनी आर्थिक संभावनाओं के गुण गा रही थी जबकि दुनिया में आर्थिक संकट की आहट सुनाई पड़ रही है।
भारतीय गणतंत्र आज अपने लोकतंत्र को ढूंढ़ रहा है। क्योंकि अभिव्यक्ति की आजादी पर ऐसा संकट आपातकाल के अलावा कभी नहीं था। आपातकाल घोषित था इसलिए खबरें सेंसर होती थीं। आज ऐसे संपादक ही बिठा दिए गए हैं कि उनका काम सेंसर करना है। वे मीडिया घरानों के हितों को साधने के लिए एक ओर नफरत का एजेंडा चलाते हैं तो दूसरी ओर इस बात के लिए चौकस रहते हैं कि कहीं से ऐसे वास्तविक मुद्दे न उठ जाएं जिनसे सरकार का सच उजागर हो जाए। लेकिन इतने से भी सरकार निश्चिंत नहीं हो पाई और उसने सोशल मीडिया से खबरें और टिप्पणियां हटाने का अधिकार प्रेस सूचना ब्यूरो के अधिकारियों को दे दिया है।
पूंजीवाद की निरंतर बढ़ती आक्रामकता इस बात की द्योतक है कि उसे अब लोकतंत्र नहीं चाहिए। उसे एक उदारमना तानाशाही चाहिए और उसके लिए वह लंबे समय से काम कर रहा है। क्या भारतीय गणतंत्र उसी ओर जा रहा है या यह महज आभास है और धीरे धीरे सब ठीक हो जाएगा? निश्चित तौर पर नियतिवाद से मनुष्य का काम चलने वाला नहीं। उसे उस भवन को सुधारना पड़ता है, मरम्मत करानी होती है जिसे उसने स्वयं ही खड़ा किया है। आज जरूरत इस बात की है कि गणतंत्र के इस मौके पर लोकतांत्रिक मूल्यों का स्मरण किया जाए और सोचा जाए कि राज्य की बढ़ती शक्ति के बरअक्स कैसे नागरिकों के अधिकारों और उनके भाईचारे को बचाया जाए।