— संजय गौतम —
अगर हम आजादी के पहले के संपूर्ण भारत को अपने पुरखों की धरती मानते तो निश्चय ही रुकैय्या सखावत हुसैन को याद करते, उनके सपनों के लिए और अपने सपनों के लिए भी। ‘नारी लोक’ के सृजन और नारियों की शिक्षा के लिए किए गए उनके कार्यों के कारण, भारतीय उपमहाद्वीप में स्त्रियों के लिए सोचने वालों की कड़ी में एक मजबूत कड़ी के रूप में उन्हें भी देखते और समय-समय पर उनकी स्मृति को ताजा करते। लेकिन कष्ट यही है कि देश विभाजित होने के साथ ही हमारी स्मृतियां भी खंडित हो गईं और इस या उस देश में रहते हुए इस या उस देश में छूट गए पुरखों को अपना पुरखा मानने में इस या उस देश में देशद्रोही कहे जाने का खतरा बना रहता है।
मेरे हाथ ‘सुल्ताना का सपना’ लगा, हारिस कदीर के हिंदी अनुवाद में, ‘हंस’ के मार्च 2020 के अंक में। ‘सुल्ताना का सपना’ क्या है? यूटोपिया? नहीं, नहीं, धरती पर स्त्री की पीड़ा के संताप से नारी के मन में खिला हुआ एक फूल, एक सृजन लोक, नारी लोक। वैज्ञानिक दृष्टि और विकास की संभावनाओं से भरपूर नारी लोक।
कैसा है यह नारी लोक, जो मुझे बार-बार खींच रहा है, कैसे सृजित हुआ यह। सपना वाकई हमारे लिए बहुत बड़ी नेमत है, सोये में, अधनींद में हम जिस स्वप्न लोक में घूमते रहते हैं, वह ऊटपटांग और फालतू चाहे जितना हो, लेकिन अपनी उड़ान से डर, भय, आकांक्षाओं की अंतिम संभावनाओं की सैर जरूर कराता है, जागते में जब स्वप्न देखते हैं, तब तो उसे पूरा करने के लिए हमारे कदम उठ ही जाते हैं, और तब भी हम स्वप्न देखते हैं, जब किसी बड़ी सत्ता से टकराना होता है। सीधे तौर पर टकराने से पहले हम उससे सपनों में टकराते हैं या टकराने का स्वप्न देखते हैं, इसीलिए हुकूमतें सपनों से भी डरती हैं, स्वप्नजीवी मनुष्यों से भी डरती हैं, इसीलिए पाश कहते हैं सबसे खतरनाक है सपनों का मर जाना। भला हो अभी तक ऐसी कोई मशीन नहीं बनी, जो मनुष्यों के सपनों को पढ़ सके, अन्यथा समाज में उथल-पुथल मच जाती।
तो कैसा है यह नारी लोक। अद्भुत है, जहां पुरुष घरों में रहते हैं, किचन का कार्य करते हैं, बच्चे संभालते हैं और नारियां बाहर घूमती हैं, बाहर का कार्य करती हैं। सड़कों पर एक भी पुरुष नहीं दिखता है। यह नारी लोक उन्नीसवीं सदी के बिल्कुल शुरू का है, जब भारतीय नारियों को अकेले सड़क पर चलते हुए भी लाज आती थी, लेकिन यहाँ तो उलटा है। यहाँ तो यह कहते हुए लोग उपहास करते हैं कि वह पुरुषों की तरह दुर्बल और लजीली है, भला यहां डर और लाज की क्या जरूरत ‘यह नारी लोक है पाप और संकटों से पवित्र, यहां सभ्यता और शालीनता का राज्य है’.
यह नारी लोक सुल्ताना के वतन जैसा नहीं है, जहां पुरुष हानि पहुंचाने की सीमा लांघ देते हैं तो भी उनको खुला छोड़ दिया जाता है और भोली-भाली महिलाओं को जनाने में बंद रखा जाता है।
किस बिना पर?
इसी बिना पर न कि पुरुषों को शारीरिक रूप से ज्यादा बलवान समझा जाता है?
हाँ, लेकिन नारी लोक की महिलाओं की सोच अलग है, वे कहती हैं शेर बलवान है तो क्या मनुष्य उस पर नियंत्रण नहीं रखता है, दिमाग के कारण ही तो नियंत्रण रखता है! हाथी बलवान है तो क्या दिमाग से ही तो मनुष्य उसे काबू में रखता है। नारी लोक की नारियों ने दिमाग पर भरोसा करना शुरू किया। वहां की रानी ने सभी नारियों को शिक्षा देने का आदेश जारी कर दिया। दो-दो विश्वविद्यालय बनाए गए जहां सिर्फ लड़कियों को शिक्षा दी जाती थी, वहां की उपकुलपति भी महिलाएं होती थीं। नारी लोक की कोई महिला अशिक्षित नहीं थी। जब पुरुष हथियार इकठ्ठे कर रहे थे, शरीर बल को बढ़ाने पर जोर लगा रहे थे, महिलाएं अपने दिमाग को धार दे रही थीं, वैज्ञानिक अनुसंधान कर रही थीं। जब पुरुषों ने महिलाओं का मजाक उड़ाया, उन्होंने कोई जवाब नहीं दिया। उनकी उपकुलपति ने कहा, समय आने पर अपने कर्मों से जवाब देंगे।
और वह समय आ गया।
जब पड़ोसी देश के राजा ने राज्य पर हमला कर दिया।
हमला इसलिए कर दिया कि इस देश में पड़ोसी देश के कुछ लोगों ने राजनीतिक कारणों से शरण ली थी।
पड़ोसी देश के राजा ने उन्हें वापस करने को कहा।
लेकिन शरणार्थी को भला कौन वापस करता है। यह रानी की नैतिकता में नहीं था। उन्होंने वापस करने से मना कर दिया। पड़ोसी ताकतवर देश ने हमला कर दिया।
इस देश के सैनिक बहादुरी से लड़े, सोलह वर्ष के बच्चे भी लड़ने चले गए लेकिन टिक न सके। बहुत से सैनिक मारे गए। राज्य पर संकट आ गया। कैसे हो राज्य की सुरक्षा? रानी के साथ महिलाओं की बैठक हुई।
एक विश्वविद्यालय की उपकुलपति ने कहा, वह एक उपाय करना चाहेंगी।
रानी ने उन्हें अनुमति दे दी।
उपकुलपति ने युद्ध में जाने से पूर्व समस्त मर्दों को जनाने में करा दिया था। युद्ध से थके-हारे मर्दों ने राहत महसूस की और जनाने में चले गए। उपकुलपति ने ताप एकत्रित करने के यंत्र का उपयोग किया। अपनी दो हजार शिष्याओं के साथ युद्ध के मैदान की ओर कूच किया। और सूर्य के समस्त एकत्रित ताप को विरोधी सैनिकों की तरफ कर दिया। सूर्य के ताप को सैनिक सह नहीं पाए और खेत रहे। उनके अस्त्र-शस्त्रों को भी सूर्य के ताप से जला दिया गया।
उपकुलपति ने अपने ज्ञान के बल से देश की सुरक्षा की, उसका मान बचाया, आत्महत्या की विवशता से राष्ट्र बाहर निकल आया।
तब से सभी पुरुष जनानखाने में गए तो फिर कभी बाहर नहीं निकले। अब इसे ही मरदाना कहा जाता था। वे किचन का काम देखते थे। बच्चों को देखते थे। पुरुष बाहर नहीं निकलते थे तो अपराध भी नहीं होता था। जब से मरदाना का प्रबंध हुआ तब से कोई भी पाप या अपराध नहीं हुआ, इसलिए किसी अपराधी को खोजने के लिए न तो पुलिस की आवश्यकता पड़ी और न ही अदालती कार्यवाही के लिए किसी न्यायाधीश की जरूरत पड़ी।
नारी लोक की रानी को उपवन बहुत पसंद थे। वह पूरे देश को उपवन की ही तरह सुंदर बना देना चाहती थी। उनके यहां का किचन भी फलों और सब्जियों के सुंदर बेलों से भरा रहता था।
सारा कमाल उन दो विश्वविद्यालयों एवं दो उपकुलपतियों का था।
जब नारियों की शिक्षा शुरू हुई तो दोनों विश्वविद्यालयों में प्रतिस्पर्धा हुई। एक विश्वविद्यालय ने गुब्बारे के माध्यम से वायुमंडल के जल को संचित करने की प्रविधि खोज ली जिससे जल की समस्या खत्म। इसी जल से उनका सारा कार्य होने लगा। दूसरे विश्वविद्यालय ने प्रतिस्पर्धा में सूर्य के ताप को संचित करने की प्रविधि खोजी, जिससे ऊर्जा की समस्या हल हो गई। इसी ताप की पाइपें किचन तक गई थीं, जिससे खाना बनता था।
और इसी ताप की पाइपों से उपकुलपति ने दुश्मन सेना को परास्त भी किया।
कैसा सुंदर था यह नारी लोक जहां किसी को मृत्युदंड नहीं दिया जाता था, क्योंकि वहां के लोगों को भगवान के दिए किसी जीव जंतु को मारने में आनंद नहीं आता था। बस किसी झूठे को इतना ही दंड दिया जाता था कि उसे बाहर जाने को कह दिया जाता था और फिर वापस न आने का आदेश दे दिया जाता था। और व्यक्ति पूरे हृदय से क्षमायाचक हो तो उसे माफ भी कर दिया जाता था।
यह ऐसा लोक था, जहां किसी ऐसे देश से व्यापार या लेन देन नहीं होता, जहां औरतों को जनाने में रखा जाता है, औरतों को कमतर समझा जाता है, क्योंकि इस देश की महिलाओं ने पुरुषों को मरदाने में रखकर उन्हें सीमित कार्य सौंप कर अपने देश के बारे में खुद निर्णय करके उसे स्वर्ग से भी सुंदर बना दिया है, उनका देश सभी के लिए सुखकर हो गया है, मनुष्यों के साथ ही पशु-पक्षियों और वन उपवनों के लिए भी।
उनके देश में यह सुंदरता इसलिए आ पाई क्योंकि उनके भीतर जमीनों के लिए लालच नहीं था, हीरों के टुकड़ों के लिए वह लड़ते नहीं थे। किसी राजा के मयूर सिंहासन से उन्हें कोई ईर्ष्या नहीं थी। वे ज्ञान के समुंदर में डूबकर प्रकृति के उपहारों को ढूंढ़ने का प्रयास करते थे, और उसी में आनंद का अनुभव करते थे। लालसा से पूरी तरह मुक्त यह नारी लोक प्रकृति के साथ जीवन जीते हुए आनंद और उल्लास के भाव में डूबा हुआ था। यह नारी लोक पूरी तरह आनंद नगर था, क्योंकि नारियों की चलती थी और पुरुष मरदाने में रहते थे। उन्होंने नारियों के निर्णय में ही अपनी सुरक्षा समझ ली और सहजता से इस जीवन को जी रहे थे।
रुकैय्या सखावत हुसैन द्वारा ‘सुल्ताना का सपना’ के रूप में रचे गए इस नारी लोक में घूमते हुए, इसकी विशेषताओं को देखते हुए हमें प्रीतिकर भी लगता है, विस्मय भी होता है।
रुकैय्या 9 दिसम्बर 1880 को रंगपुर, पैराबंद (वर्तमान बांग्लादेश) में पैदा हुईं। जमींदार एवं समृद्ध परिवार में होने के बावजूद वह कभी स्कूल नहीं जा सकीं, क्योंकि लड़कियों के स्कूल जाने का रिवाज ही नहीं था। भला हो बड़े भाई का जिसने उनके अंदर पढ़ने की ललक को पहचाना और छिप-छप कर उन्हें बांग्ला, उर्दू और अंग्रेजी पढ़ाया। विवाह भी ऐसे व्यक्ति से कराने में सहायक हुआ, जो थोड़ा खुले दिमाग के थे। बिहार प्रांत के भागलपुर में सरकारी नौकरी में थे। वहीं रुकैय्या ने मुस्लिम लड़कियों के लिए 1909 में एक स्कूल खोला। पति के निधन के बाद स्कूल चलाना मुश्किल हो गया और भागलपुर में रहना भी। वह कोलकता चली आईं और 16 मार्च 1911 को सखावत मेमोरियल गर्ल्स स्कूल की स्थापना की। 1935 में सरकार ने इसका अधिग्रहण किया, आज भी यह स्कूल चल रहा है। स्कूल चलाने के अलावा उन्होंने अन्य सामाजिक कार्य भी किए। 09 दिसंबर 1932 को कोलकता में उनका निधन हुआ।
यह कहानी ‘सुल्ताना का सपना’ 1905 में तत्कालीन मद्रास प्रांत की अंग्रेजी आवधिक पत्रिका ‘द इंडियन लेडीज’ में प्रकाशित हुई, 1908 में पुस्तक रूप में आई।
गौर करें कि 1905 बंगभंग का दौर था, और उस समय बंगाल के क्षेत्र में कैसी हलचल मची हुई थी। भारतीय समाज उन दिनों लड़कियों की पढ़ाई लिखाई को लेकर कितना रूढ़िवादी था, उस दौर में कितनी कम महिलाएं हैं, जिन्होंने शैक्षणिक क्षेत्र या सार्वजनिक जीवन में कार्य किया। महाराष्ट्र में सावित्री बाई फुले द्वारा नारी की शिक्षा के लिए अलख जगा देने के बावजूद तब तक पूरे देश में ऐसी स्थिति नहीं बनी थी कि लड़कियां शिक्षा सहज रूप से ले सकें। रुकैय्या को भी मुस्लिम लड़कियों को स्कूल तक लाने के लिए बहुत विरोध का सामना करना पड़ा और अनेक लांछन सहने पड़े। उनका मानना था कि एक बार लड़कियां पढ़ने लगेंगी तो बहुत सी समस्याएं हल हो जाएंगी, इसीलिए उन्होंने समझौता करते हुए परदादारी का भी इंतजाम किया।
उनकी यह कहानी जिस नारी लोक का सृजन करती है, वह सामान्य नहीं है और न ही स्वप्निल आस्फालन है। उसमें सपने की मौज है, कल्पना की उड़ान है, वैज्ञानिक चेतना है, प्रकृति के साथ सहज जीवन जीने का उल्लास है, हजारों साल की रूढ़ियों से मुक्त होने की आत्मिक पुकार है। इस सपने में पानी और ऊर्जा की ऐसी खोज की गई है, जिसे हम मूढ़ ढंग से प्रचारित करें या गर्व करें तो कह सकते हैं कि उन दिनों वह सोलर पैनल का इस्तेमाल कर रही थीं। जैसा आजकल प्राय: हर खोज को लेकर अतीत के गौरव में खोने का चलन हो गया है। लेकिन हमें ऐसा न कर लेखक की कल्पना शक्ति की सार्थकता को समझना चाहिए।
रुकैय्या की इस सपनीली कहानी में ‘नारी लोक’ के लिए जो उड़ान भरी गई है, वह कई शताब्दियों से नारियों की दमित इच्छाओं का परिणाम ही तो है। जो बात हम वास्तविक धरातल पर नहीं कह सकते या जमीन पर जिसकी स्वीकार्यता की संभावना नहीं होती है, उसे ही तो सपनों की उड़ान में कहा जाता है।
यह ऐसी रचनात्मक प्रविधि है, जिससे मन का सारा दर्द, सारी भड़ास, सारी इच्छा, सारी महत्त्वाकांक्षा बाहर आ जाती है। इसीलिए रुकैय्या ने इस प्रविधि का इस्तेमाल किया। दमन की शिकार तमाम सभ्यताओं में पौराणिक कथाओं की उड़ान सपने में पूरा जीवन जी लेने की लालसा का ही परिणाम तो है। परास्त हुए राज्यों की जनता में मिथक लोक का सृजन सपना नहीं तो क्या है? हमारे लोक साहित्य का उड़ान भरता जीवन वंचित जनसमुदाय का सपना ही तो है? रुकैय्या का सपना भी इसी तरह का है।
कहानी की परंपरा में इस सपने का महत्त्व है, इसकी जगह है। मुस्लिम लड़कियों की शिक्षा और अन्य सामाजिक कार्यों के लिहाज से इतिहास में रुकैय्या की जगह है, वह भारत की जीवंत परंपरा का हिस्सा है, क्योंकि उनका जन्म हुआ था तत्कालीन भारत में और उन्होंने काम किया था भागलपुर और आज के कोलकता में। लेकिन इस भाग्य का क्या किया जाए कि उनका जन्मस्थान अब बांग्लादेश में है जहाँ उनकी प्रतिमा तो स्थापित कर दी गई है, लेकिन उनके विचारों को कितना आत्मिक मान दिया जाता है, पता नहीं। यदि दिया गया होता तो तसलीमा नसरीन को निर्वासन की पीड़ा नहीं सहनी पड़ती।
क्या वह समय आएगा, जब हम आजादी के पूर्व के भारत देश को अपने पुरखों की भूमि के रूप में स्मृत कर सकेंगे और किसी महापुरुष को याद करने में किसी कुंठा के शिकार नहीं होंगे। देशद्रोही होने की आशंका से मुक्त होंगे। बहुतों ने इस महादेश की एकता का सपना देखा। इस महादेश की मनुष्यता के कल्याण के लिए यह जरूरी है, इसलिए हमें भी यह सपना देखने में कोई हर्ज नहीं। इंतजार करते रहें। इंतजार करने से, सोचने से, कुछ करते रहने से ही संभव भी होगा।