गांधी-आंबेडकर : विवाद और संवाद

0

— अरमान अंसारी —

र्ष 2019 में आई अरुंधति राय की पुस्तक ‘एक था संत एक था डॉक्टर’ के जवाब में रघु ठाकुर ने ‘गांधी-आंबेडकर कितने दूर कितने पास’ पुस्तक लिखी है। इसमें रघु ठाकुर ने अरुंधति राय और आंबेडकरवादियों द्वारा गांधी पर उठाए जानेवाले सवालों का जवाब देने की कोशिश की है। पूरी पुस्तक इन सात अध्यायों में बंटी हुई है- गांधी की आलोचना कितना सही कितना गलत, लोहिया : गांधी एवं आंबेडकर के बीच वैचारिक सेतु, गांधी के प्रति अभिजात्य दुराभाव एवं वैमनस्य, गांधी के बाद आंबेडकर लक्षित, आंबेडकर और कम्युनिस्ट, अरुंधति एवं गोडसे, गांधी का अमरत्व। लेखक ने पुस्तक की भूमिका में यह बात साफ कर दी है कि किताब लिखने के पीछे उनका इरादा गांधी और आंबेडकर की तुलना कर, गांधी को ऊँचा और आंबेडकर को नीचा दिखाना नहीं है।

रघु ठाकुर ने अपनी पुस्तक के पहले अध्याय ‘गांधी की आलोचना : कितनी सही कितनी गलत’ में विचार के लिए चार प्रश्न तय कर लिये हैं जो अक्सर महात्मा गांधी की आलोचना में आंबेडकरवादियों और अन्य लोगों द्वारा उठाये जाते हैं।(क) गांधी वर्ण और जाति मानते थे इसलिए जातिवादी और दलित विरोधी थे।(ख) गांधीजी ने गोलमेज सम्मेलन में बाबासाहेब का विरोध किया था। (ग) गांधीजी ने अनशन करके पृथक मताधिकार की आंबेडकर की मांग को लागू नहीं होने दिया था, इससे दलितों का नुकसान हुआ।(घ) गांधी धर्मशास्त्रों को मानते थे और हिन्दू धर्मशास्त्र जाति व्यवस्था के जनक हैं।

रघु ठाकुर ने इन तमाम सवालों का एक-एक कर जवाब देने की कोशिश की है। पहले प्रश्न के जवाब में रघु ठाकुर कहते हैं कि यह बात ठीक है कि गांधी अपने शुरुआती दौर में जाति और वर्ण व्यवस्था में विश्वास रखते थे। इसे गांधी ने किसी से छुपाया नहीं है। उनका जन्म स्वयं उच्चवर्णीय सम्पन्न परिवार में हुआ था जो उनकी दृष्टि में अत्यंत धार्मिक और परंपरावादी था। गांधीजी का गहरा विश्वास था कि वर्ण का आरंभ योग्यता के आधार पर कर्म विभाजन से हुआ है था, वह जाति को भी कर्म आधारित मानते थे। वह किसी प्रकार के भेदभाव के सख्त खिलाफ थे। इसी रूप में, उन्होंने जाति और वर्ण को जन्मना नहीं माना था। वह अपने आपको सनातनी हिंदू मानते थे। रघु ठाकुर के अनुसार सनातनी हिन्दू से उनका तात्पर्य उस प्राचीन कालीन प्रकृति केंद्रित समाज से था जिसमें व्यक्ति-व्यक्ति के बीच कोई भेद नहीं था। न अर्थ आधारित न जन्म आधारित। जब कोई राज्य नहीं था। वह एक ऐसी आजादी की कल्पना करते थे जिसमें स्वदेशी और स्वावलंबन होता था। जिसमें व्यक्ति और गांव इतना उन्नत व परिपूर्ण हो कि वह अपनी न्यूनतम जरूरतों की पूर्ति कर सके। किसी बाह्य सत्ता के नियंत्रण की जरूरत न हो। भारत की प्राचीन सामाजिक, आर्थिक व्यवस्था के अध्येता रविंद्र नाथ शर्मा ऐसी ही व्यवस्था में जाति की कल्पना के संदर्भ में जाति का मतलब ज्ञाति मानते थे। एक तरह से विशेषज्ञता के अर्थ में इसका प्रयोग करते थे। उनका मानना था कि ज्ञाति का रूप बिगड़कर जाति हो गया होगा।

डॉ आंबेडकर भी महात्मा गांधी के जाति और वर्ण के विचार को लेकर शंकित तो थे, लेकिन उनकी नीयत को लेकर साफ थे। उन्होंने स्वयं 1925 में एक सम्मेलन में कहा था “जब कोई भी तुम्हारे निकट नहीं आ रहा तब गांधी की सहानुभूति कोई छोटी बात नहीं है।”1927 में महाण में आयोजित सत्याग्रह परिषद के मंच पर बाबासाहब की प्रेरणा से महात्मा गांधी की तस्वीर लगाई गई थी। इस प्रकार रघु ठाकुर कहते हैं कि गांधीजी के विचार जातिवाद और अस्पृश्यता के संबंध में उत्तरोत्तर प्रगतिशील होते गए। वे अछूतवाद को भारत के माथे पर कलंक मानते थे। 1945 के बाद गांधीजी ने केवल उन्हीं शादियों में आर्शीवाद देने जाना शुरू किया जिसमें एक पक्ष अनिवार्य रूप से दलित हो। 7 जुलाई 1946 को ‘हरिजन’ में गांधीजी ने लिखा था, “यदि मेरा वश चले तो मैं अपने प्रभाव में आनेवाली सभी सवर्ण लड़कियों को चरित्रवान हरिजन युवकों को पति के रूप में चुनने की सलाह दूँ।” एक जगह कहा कि यह कहना गलत है कि वर्णाश्रम के बारे में मेरे विचार पहले जो थे वही हैं।

पुस्तक में रघु ठाकुर, अरुंधति राय द्वारा गांधीजी पर लगाए गए आरोप से खिन्न नजर आते हैं। सुश्री राय ने गड़े मुर्दे उखाड़ने की कोशिश की है। मसलन पृथक मताधिकार, जिसकी मांग आंबेडकर ने गोलमेज सम्मेलन में की थी। गांधीजी को लगता था कि मुस्लिम और सिखों की तरह दलित संगठित नहीं हैं, यदि उन्हें पृथक मताधिकार दे दिया जाएगा तो ब्राह्मणों का मुकाबला वे नहीं कर पाएंगे। इसकी वजह से कटुता पैदा होगी और दलित समाज का बड़ा नुकसान होगा। गांधीजी ने कम्युनल अवार्ड की घोषणा के बाद आमरण अनशन शुरू कर दिया था। उपवास के पूर्व उन्होंने कहा था “अपनी जान की बाजी लगाकर अस्पृश्यता का यह कलंक दूर करना चाहता हूँ। मैं कुछ और भी कर सकता तो वह भी कर डालता लेकिन मेरे पास जान के सिवाय और कुछ भी नहीं है।” रघु ठाकुर यह कल्पना करते हैं कि यदि बापू और डॉ आंबेडकर दोनों साथ मिलकर गांव-गांव छुआछूत मिटाने का अभियान चलाते तो स्थिति कुछ और होती। पूना पैक्ट के बाद यदि बाबासाहब स्वतंत्रता आंदोलन में शामिल हो गए होते तो गांधीजी के बाद सबसे स्वीकार्य नेता होते लेकिन ऐसा नहीं हो सका।

रघु ठाकुर कहते हैं कि अरुंधति रॉय जिस विचारधारा को आगे बढ़ाना चाहती हैं वह साम्यवादी नक्सली विचार है जिसके दिन अब लद चुके हैं। स्वयं बाबासाहेब आंबेडकर ने न तो कभी साम्यवाद को स्वीकार किया, न मार्क्सवाद को।

दूसरे अध्याय में रघु ठाकुर ने डॉ राममनोहर लोहिया को गांधी-आंबेडकर के बीच एक कड़ी के रूप में देखने की कोशिश की है। यह तथ्य है कि लोहिया और आंबेडकर दोनों वैचारिक रूप से एक दूसरे के करीब आ गए थे। उन दोनों के बीच हुए पत्र व्यवहार से यह स्थापित होता है। 20 अक्टूबर 1956 को डॉ लोहिया और बाबासाहेब मिलना चाहते थे। मुलाकात का समय तय हो चुका था। इस बात की जानकारी बाबासाहेब द्वारा 5 अक्टूबर 1956 को लोहिया जी को लिखे पत्र से प्राप्त होती है। लेकिन यह मुलाकात नहीं हो सकी। 5 अक्टूबर को बाबासाहेब गंभीर रूप बीमार हो गए और 6 दिसंबर 1956 को उनकी मृत्यु हो गई। आंबेडकर की मृत्यु डॉ लोहिया को सालती रही। इस बात को मधु लिमये को लिखे पत्र में देखा जा सकता है। लोहिया 1 जुलाई 1957 को मधु लिमये को लिखे पत्र में कहते हैं : “तुम समझ सकते हो कि डॉ आंबेडकर की अचानक मौत का दुख मेरे लिए थोड़ा बहुत व्यक्तिगत रहा है और अब भी है। मेरी बराबर आकांक्षा रही है कि वे मेरे साथ आएं – केवल संगठन में नहीं बल्कि पूरी तौर से सिद्धान्त में भी और यह मौका करीब मालूम होता था।” डॉ लोहिया इसी पत्र में आगे आंबेडकर के व्यक्तित्व के बारे में कहते हैं : मेरे लिए आंबेडकर हिंदुस्तान की राजनीति के एक महान आदमी थे और गांधीजी को छोड़कर वे बड़े से बड़े सवर्ण हिंदुओं के बराबर। इससे मुझे संतोष और विश्वास मिला है कि हिन्दू धर्म की जाति प्रथा एक न एक दिन समाप्त की जा सकती है।”

रघु ठाकुर कहते हैं कि लोहियाजी ने गांधीजी के साथ तीस-पैंतीस साल काम किया था। वह उनके विचारों को आत्मसात कर चुके थे, उनकी हत्या के बाद उनके विचारों को कार्यरूप देने की कोशिश कर रहे थे। पचास के दशक में लोहिया और आंबेडकर यदि साथ काम कर पाते तो स्थितियां कुछ और होतीं। शायद इतिहास को यह मंजूर नहीं था। डॉ आंबेडकर की असामयिक मृत्यु के साथ इतिहास के इस अध्याय का अंत हो गया।

तीसरे अध्याय में रघु ठाकुर ने गांधीजी के प्रति आभिजात्य दुर्भाव और वैमनस्य की चर्चा की है। वह बताते हैं कि अरुंधति राय की 139 पृष्ठ की पुस्तक में मात्र 20-25 पेज ही विषय से संबंधित हैं। बाकी का विषय उन्होंने अपनी विचारधारा, नक्सलवाद के प्रचार के लिए इस्तेमाल किया है। उनका मानना है कि लैटिन अमेरिका के देशों में नक्सल विचार ठंडा पड़ रहा है, उन्हें दक्षिण अफ्रीका के देशों में अपना पैर जमाना हैं, इसके लिए वह गांधी की अहिंसा की प्रतीक छवि को तोड़ना चाहती हैं। रघु ठाकुर का मानना है कि अरुंधति रॉय ने गांधीजी को लेकर ऐसे सवाल उठाए हैं जिनको कोई भी व्यक्ति हास्यास्पद मान सकता है। मसलन गांधीजी को दक्षिण अफ्रीका में ट्रेन से उतारे जाने की घटना को, सुश्री राय ने इस तरह उद्धृत किया है कि गांधी अंग्रेजों की बराबरी करना चाहते थे। इसी प्रकार अन्य कई आरोप भी ऐसे हैं, जिनका कोई सिर-पैर नहीं है। इसकी इन्तहा तब हो जाती है जब सुश्री रॉय गांधीजी के हत्यारे नाथूराम गोडसे को महिमामंडित करने लगती हैं। रघु ठाकुर कहते हैं यह दुस्साहस कोई कट्टरपंथी हिन्दू नहीं करेगा जो अरुंधति रॉय कर रही हैं। अरुंधति रॉय को हर वह व्यक्ति और संस्थान बुरे नजर आते हैं जो गांधी की तारीफ करते हैं। रघु ठाकुर इसे वैमनस्य और दुर्भाव कहते हैं।

अगले अध्याय में ठाकुर स्पष्ट करते हैं कि पहले तो अरुंधति रॉय आंबेडकर के कंधे पर बंदूक रखकर गांधीजी का शिकार करती हैं। फिर आंबेडकर के आदिवासी नजरिये से आंबेडकर पर ही वार करेंगी,इस बात का संकेत उन्होंने अपनी पुस्तक में देने की कोशिश की है। आदिवासियों को वह नक्सल विचारधारा के वाहक के तौर पर देखती हैं, इसके लिए जरूरी है कि शहरी पढ़े-लिखे दलितों को गांधी के अहिंसात्मक विचार के खिलाफ खड़ा किया जाय। आगे अरुंधति रॉय आंबेडकर को हिन्दू कट्टरपंथी और मुस्लिम और ईसाई विरोधी के रूप में पेश करने की कोशिश करती हैं। एक जगह तो सुश्री राय ने आंबेडकर को आदिवासी विरोधी के रूप में दिखाने की कोशिश की है। वह कहती हैं आंबेडकर ने आदिवासियों को बर्बर कहा था, वहीं साइमन कमीशन के सामने आंबेडकर ने आदिवासियों को मतदान का अधिकार दिए जाने का विरोध किया था। आंबेडकर गांव और पंचायत को जातिवाद का गढ़ मानते थे। गांधी के प्रभाव के कारण ही उन्होंने पंचायती राज को भारत के संविधान के नीति-निर्देशक सिद्धान्तों में शामिल कराया।

अरुंधति राय ने बाबासाहब पर 1950 में ब्रिटिश औपनिवेशिक नीति का अनुमोदन करने का आरोप लगाया है जिसके कारण आदिवासी आबादी अपनी ही जमीन पर अवैध कब्जेदार बन गई। उनका आरोप है कि बाबासाहब ने वोट का अधिकार तो आदिवासियों को दिया लेकिन उनकी आजीविका और गरिमा को छीन लिया। इस प्रकार अरुंधति राय बिना सिर-पैर के अनगिनत आरोप बाबासाहब पर लगाने की कोशिश करती हैं।

रघु ठाकुर ने पांचवें अध्याय का  नाम ‘आंबेडकर और कम्युनिस्ट रखा है। इस अध्याय में रघु ठाकुर ने आंबेडकर द्वारा कम्युनिस्ट विचार, व्यवहार और कम्युनिस्टों द्वारा आंबेडकर के बारे में की गई टिप्पणी का आकलन करने की कोशिश है। इसी संदर्भ में रघु ठाकुर, आंबेडकर को उद्धृत करते हुए कहते हैं : “क्या कहा जा सकता है कि भारत का सर्वहारा, गरीब होने के बावजूद, गरीब और अमीर के अलावा और कोई फर्क नहीं मानता? क्या यह कहा जा सकता है कि भारत का गरीब किसी जाति या सम्प्रदाय उँच या नीच के भेद को नहीं मानता?” इसी प्रकार रघु ठाकुर कम्युनिस्ट नेता नंबूदरीपाद की पुस्तक ‘भारतीय स्वतंत्रता संग्राम का इतिहास’ को उद्धृत करते हैं। वह लिखते हैं कि आंबेडकर की वजह से स्वतंत्रता संग्राम को तगड़ा झटका लगा। आंबेडकर की वजह से लोगों का ध्यान स्वतंत्रता जैसे महत्त्वपूर्ण मुद्दे से हटकर हरिजन, छुआछूत जैसे महत्त्वहीन मुद्दे पर गया। इस प्रकार स्पष्ट होता है कि कम्युनिस्ट विचारकों के लिए अस्पृश्यता और जाति जैसे मुद्दे कोई मायने नहीं रखते हैं। वहीं गांधीजी के लिए स्वराज का आंदोलन जितना महत्त्वपूर्ण था उतना ही महत्त्वपूर्ण अस्पृश्यता का खात्मा भी था। एक जगह गांधीजी कहते हैं : “मैं चाहूंगा कि हिंदू धर्म की मृत्यु हो जाय बजाय इसके की अस्पृश्यता जीवित रहे।” इस प्रकार रघु ठाकुर कम्युनिस्ट विचार और उनके विचारकों की लघुता और उनके वैचारिकता के खोखलेपन को सामने लाते हैं।

छठे अध्याय का नाम रघु ठाकुर ने ‘अरुंधति और गोडसे’ रखा है। इस अध्याय में उन्होंने यह दिखाने की कोशिश की है कि अरुंधति रॉय गांधी की आलोचना करते समय गोडसे सरीखे हिन्दू कट्टरपंथियों के करीब पहुँच जाती हैं। और उन्हीं के तर्क से गांधी की आलोचना करने लगती हैं। रघु ठाकुर कहते हैं कि अरुंधति रॉय किताब तो गांधी और और आंबेडकर को लेकर लिख रही हैं लेकिन जिस प्रकार लंबे-लंबे उद्धरण गोडसे और सावरकर के हवाले से देती हैं लगता है कि सावरकर और गोडसे ही उनके प्रकाश पुंज (लाइट हाउस) हैं। इस अध्याय में भी अरुंधति रॉय ने गांधीजी को ब्रह्मचर्य पालन को लेकर भी घेरने की कोशिश की है। ऐसे सवालों का अब कोई मतलब नहीं है। गांधीजी ने जिस स्तर पर अपने विचार और जीवन के साथ प्रयोग किये हैं, अरुंधति जैसी लेखिका सोच भी नही सकती हैं। इस अध्याय का अंत रघु ठाकुर यह कहते हुए करते हैं याद रहे : मार्क्सवाद, साम्यवाद, हिंदूवाद, कट्टरवाद शरीर को मारता है पर गांधीजी, किसी को मारते नहीं है बल्कि उसके मन को बदलते हैं। एक दिन वह समय जरूर आएगा जब अरुंधति जी के मन में गांधीजी का प्रवेश होगा।

अंतिम और सातवें अध्याय का नाम रघु ठाकुर ने ‘गांधीवाद का अमरत्व’ रखा है। इस अध्याय में उन्होंने गांधीवाद की प्रासंगिकता को रेखांकित करने की कोशिश की है। वह कहते हैं 1909 में गांधीजी ने महानगरीय सभ्यता को अस्वीकार कर दिया था, रेलगाड़ी के माध्यम से बीमारियों के फैलने का शंका जताई थी। वर्तमान कोरोना संकट तो हवाई जहाज से फैला है। इसका समाधान स्थानीयता और ग्रामीण सभ्यता वाली व्यवस्था में ही है जिसकी तरफ गांधीजी बहुत पहले इशारा कर चुके थे। यदि मानव सभ्यता को बचना है गांधीजी के द्वारा बताया गया रास्ता ही विकल्प है।

किताब :  गांधी-आंबेडकर : कितने दूर कितने पास

लेखक : रघु ठाकुर

प्रकाशक : आकर बुक्स, 28 ई पॉकेट 4, मयूर विहार फेस-1

 दिल्ली-110091

Leave a Comment