— उमेश प्रसाद सिंह —
कुछ लोग होते हैं जो बुढ़ापा को सामने खड़ा देख चिचियाने लगते हैं। कुछ तो ऐसे रिरियाने लगते हैं, जैसे शेर ने कंधे पर औचक पंजा गड़ा दिया हो। कितने तो पसीने-पसीने होकर पानी में पत्थर गलाने लगते हैं, पीछा छुड़ाने के लिए। पीछे छूट गई जवानी की हिफाजत के लिए बहुतेरे वैद्यों की ड्योढ़ी पर नाक रगड़ते-रगड़ते नाक ही गँवा देते हैं। बुढ़ापा और कोई चीज नहीं है। कुछ गँवा देने का नाम ही बुढ़ापा है। बुढ़ापा का डर ही बुढ़ापा है। बूढ़ा वह नहीं है, जिसके बाल सफेद हो गए हैं। बूढ़ा वह नहीं है, जिसके दाँत निकल गए हैं। बूढ़ा वह है, जिसके हाथ से तलवार छूट गई है। बूढ़ा वह है, जिसकी उँगलियों से कलम फिसल गई है। बूढ़ा वह है, जिसकी आँख से सपने गुम हो गए हैं। बूढ़ा वह है, जिसके पास दुनिया को देने के लिए कुछ भी नहीं है। जो बूढ़ा हो गया है, वसन्त को नहीं जानता। जो वसन्त को नहीं जानता, बूढ़ा हो जाना उसकी अटल नियति है। चाहे कोई व्यक्ति हो, चाहे कोई देश, चाहे कोई संस्कृति; जहाँ वसन्त नहीं है, वहाँ केवल बुढ़ापा है। जर्जर ढाँचे को ढोती हुई कभी भी रुक जाने को व्याकुल साँसों का व्यर्थ का संजाल है। जहाँ वसन्त नहीं है, जो भी है, व्यर्थ है।
जहाँ वसन्त है। जहाँ वसन्त होता है। वहाँ विरसता नहीं होती। वहाँ उदासी के, अवसाद के आने के सारे रास्ते ही बन्द हो जाते हैं। वहाँ कुछ खोने की आशंका का अवसान हो जाता है। कुछ खोने का भय ही आदमी को थकाता है। मनुष्य को उदास बनाता है। इससे ही मनहूसियत का प्रसार होता है। आदमी बूढ़ा बाल पक जाने से नहीं होता। आदमी बूढ़ा थक जाने की वजह से होता है। आदमी बूढ़ा दाँत निकल जाने की वजह से नहीं होता। आदमी बूढ़ा तब होता है, जब उसके पास कुछ भी देने के लिए नहीं रह जाता। बूढ़ा आदमी आँख की रोशनी घट जाने के कारण नहीं होता। आदमी बूढ़ा होता है, जब आँख सपनों से सूनी हो जाती है। जिन आँखों में सपने नहीं होते, वे आँखें नहीं रह जाती हैं। जिनमें सपनों के रंग नहीं खिलते, रोशनी नहीं चकमती, वे बूढ़े वृक्षों के कोटर की तरह होती हैं। उनमें केवल उल्लुओं का बसेरा होता है। जिनके सपने मर जाते हैं। जिनके अपने होने की उमंग चुक जाती है। जिनके भीतर कुछ बाँटने की लालसा विलुप्त हो जाती है। उनका सौभाग्य समाप्त हो जाता है। चाहे मनुष्य हो, चाहे संस्कृति, चाहे राष्ट्र, जिसकी धन्यता लुट जाती है, बूढ़ा हो जाता है। जिसके पास न मुसकान है, न आश्वासन है, न आलम्ब है, न अहोभाव है न आह्लाद है, वह कंगाल है। कंगाल होना ही बूढ़ा होना है। उसके होने और न होने में कोई फर्क नहीं है।
जिसका मनुष्यता के श्रृंगार में कोई योगदान शेष नहीं बचा है, पतझर के वृक्ष से विलग पत्तों की तरह उसके होने का कोई मतलब नहीं। जो बासी हो चुका, उसके बचे रहने का भला क्या प्रयोजन! वसन्त के साम्राज्य में प्रयोजनहीन के लिए कोई स्थान नहीं है।
वसन्त अथक और अथाह उल्लास का दिगन्त में गूँजता हुआ अमन्द गान है। सौन्दर्य के संभार का अकुंठ अनुष्ठान है। मनुष्यजाति की अचूक जिजीविषा के अभिनन्दन का उत्फुल्ल आयोजन है। यह जीवन रस की मोहक और मादक धारा के कलनाद से कुंजित महानदों के संगम का पवित्र तीर्थ है। इस संगम की पावन जलधार में धँसकर अवगाहन कर लेने से मनुष्यजाति की जड़ता बह-दह जाती है। जड़ता के बह जाने के बाद आदमी बिल्कुल बदल जाता है। वसन्त आदमी को बदल देता है। वसन्त केवल छूता नहीं है। वह केवल छूकर निकल जाने वाला मौसम नहीं है। ऊपर-ऊपर छूकर, छेड़कर निकल जाने वाली हवा तो रोज-रोज गली-गली बौंड़ियाती मिलती रहती है। वसन्त की हवा सींच देने वाली हवा है। वह पत्ता-पत्ता नहीं सींचती। वह डाल-डाल नहीं सींचती। वह सींचती है, जीवन की जड़ों को। उसके सींचने से प्राण पलुहित हो उठता है। रोआँ-रोआँ हरा हो जाता है। कोना-कोना प्रकाशित हो उठता है। आँखों में फूल खिल उठते है। मन महक जाता है। जीवन फलित हो जाता है। जीवन के फलित होने से अपार तृप्ति उमड़ पड़ती है। हर कहीं भीतर भी और बाहर भी धन्यता भर जाती है। वसन्त जीवन की जड़ों को सींचने वाला मनुष्यजाति के लिए प्रकृति का अद्भुत उपहार है।
जो यह सोचते हैं कि प्रकृति केवल मनुष्य के जीवन के लिए बाहर का पर्यावरण है, वे ठीक नहीं सोचते। जो ठीक नहीं सोचते हैं, चाहे दर्शन में, चाहे विज्ञान में, चाहे समाज-विज्ञान में, उनकी ही सोच ने आदमी और प्रकृति के बीच अलगाव पैदा किया है। इसी अलगाव ने आदमी को भी और प्रकृति को भी विपन्नता के गर्त में ढकेला है। प्रकृति के साथ आदमी का रिश्ता शोषण का रिश्ता नहीं है। परस्पर संपोषण का रिश्ता है। संपोषण का रिश्ता प्यार का रिश्ता होता है। हमारा समय पता नहीं कितना क्रूर और हत्यारा हो गया है कि आदमी सारे रिश्तों की जड़ काटने के लिए कुल्हाड़ियों के गढ़ने के कारखाने खोलने में लगा है। रिश्ते सिर झुकाए खड़े हैं और कुल्हाड़ियाँ जड़ें काटने में तत्पर। ऐसे समय में प्रकृति के बारे में कुछ भी कहना-सुनना मूर्खता का पर्याय समझा जाने लगा है।
प्रकृति केवल मनुष्य के बाहर-बाहर ही नहीं है। वह उसके भीतर भी है। वह जितनी बाहर-बाहर है, उससे कम भीतर-भीतर नहीं है। जब बादल बरसता है, केवल धरती ही नहीं भींगती। हमारी अन्तश्चेतना का धरातल भी नम हो जाता है।
जब वसन्त की हरियाली हुमसती है तो हमारा हृदय भी हुलस उठता है। जब फुलवारियों में फूल खिलते हैं, हमारे अन्तरतम के कान्तर भी सुगन्धि से महक उठते हैं। आमों के बौर हमारी चेतना को भी बौरा देते हैं। पेड़ों में आने वाले फल मनुष्य की आन्तरिकता को भी फलितार्थ प्रदान करते हैं। मनुष्य और प्रकृति के पार्थक्य की पाखण्डपूर्ण अवधारणा को वसन्त निरस्त करता है। मनुष्य की स्वार्थी सोच के तमाम खड्यन्त्रों को ध्वस्त करने का वसन्त अद्भुत आलम्बन है। वह प्रकृति के विस्तार में स्थित भिन्न-भिन्न सत्ताओं और इयत्ताओं के पारस्परिक समाहन का अनूठा आश्रय है।
कुछ लोग ऐसा समझते हैं कि आदमी घर में रहता है। घर में रहकर आदमी शीत और गर्मी से सुरक्षित हो जाता है। यह सच भी है। मगर पूरा सच नहीं है। घर के भीतर एक और घर है। घर से बाहर भी वह घर हमें घेरे रहता है; वह घर है भावदशाओं का घर। हम हमेशा भावदशाओं की अदृश्य दीवारों से घिरे घर में बने रहते हैं। यह घर इतना सूक्ष्म है कि वह प्रायः हमारे देखने में नहीं आता। यही घर हमारी मनःस्थिति का आश्रय है। यही हमें सुख-दुख, हर्ष-शोक का अनुभव कराता है। किन्तु हमारा खयाल इतना स्थूल है कि हम ईंट-पत्थर का घर बनाने में पूरा जीवन ही खपा देते हैं और सुख सपना ही बना रह जाता है। वसन्त हमें अपने आगमन में सुन्दर भावदशा के सुसज्जित घर की ओर उन्मुख करता है। वह हमें अपनी उत्प्रेरणा से समृद्ध बनाता है। वसन्त में वैभव का अचूक स्रोत है। वसन्त हमारा हाथ पकड़कर हमें जड़ों को सींचने की अभीप्सा में जाग्रत करता है।
वसन्त केवल अभीप्साओं के अंकुरण की ही ऋतु नहीं है। यह मनुष्यजाति की अभीप्साओं के फलित होने का भी मौसम है।
मनुष्य के जीवन का मर्म तो उसकी अभीप्साओं में ही सचमुच में समाहित होता है। वसन्त मनुष्य के हृदय में दबी-छिपी, लतियायी-रुआँसी, दमित-दलित हर तरह की अभीप्साओं को उन्मोचित करके उन्हें अभिव्यक्त होने की आजादी देता है। स्वतंत्रता का और लोकतांत्रिक औदार्य का इस सृष्टि में सबसे पहला प्रवर्तक वसन्त ही है। कालिदास के कान में सौन्दर्य की महिमा का मंत्र- ‘‘क्षणे-क्षणे यन्नवतामुपैत्ति, तदैव रूपं रमणीयतायाः” वसन्त ने ही मुँह सटाकर प्रदान किया था। तुलसीदास की आँखों में रामराज्य के आदर्श की परिकल्पना वसन्त ने ही उगाई थी। रहीम की जीभ पर ‘रहिमन मूलहिं सींचिबो, फूलई फलई अघाइ’ का दोहा वसन्त ने ही अपने हाथ से लिखा था। अन्तरतम की गहराई में पैठकर सभी तरह की गुलामी के बन्धनों को खोलने का हौसला और हैसियत केवल और केवल वसन्त में ही है। सबको अपने अर्थ में फूल उठने का अवसर और आमंत्रण देने वाला वसन्त के अलावा और कौन है? कोई नहीं। वसन्त में कुछ भी अशोभन नहीं है। विरूप नहीं है। विद्रूप नहीं है। जो कुछ भी है सुन्दर है। सरस है। सुगन्धि से भरा हुआ है। सुफल है। सफल है। जहाँ सारी कुरूपताएँ विलुप्त हो जाती हैं। जहाँ सारी क्षुद्रताएँ विलीन हो जाती हैं। वहाँ वसन्त विलस उठता है। जहाँ वसन्त होता है, कोई बूढ़ा नहीं होता।
जहाँ उल्लास है, वहाँ थकान नहीं है। जहाँ उत्सव है, अवसाद नहीं है। जहाँ तृप्ति है, वहाँ अभाव नहीं है। जहाँ अभाव नहीं है, वहीं जीवन है। वहीं वसन्त है।
जीवन की हरियाली उसके मूल के अभिसिंचन पर अवलम्बित है। जीवन डाल-डाल को सींचने से हरा नहीं होता। जीवन पात-पात को सींचने से समृद्ध नहीं होता। जीवन के मूल स्रोत को जानने और उससे जुड़ने का,- उससे निरन्तर जुड़े रहने का आमंत्रण लेकर वसन्त हर साल हमारे बीच आता है। वह द्वार-द्वार जाकर टेर-टेरकर हर आदमी के कान में बोल आता है कि भाई हे, जीवन की हरियाली, जीवन की समृद्धि उसके मूल में निहित है। मूल को भूल गए हो तो उसे खोजो। खोजकर उसे हृदय में रख लो। उसे स्नेह से सींचो। उसे सींचते रहोगे तो सब कुछ हरा-भरा बना रहेगा।
मगर हमारे समय में कोई कुछ नहीं सुनता है। किसी की नहीं सुनता। हमारे समय में हर आदमी बोल रहा है। सुन कोई नहीं रहा है। लोग बोल रहे हैं, माइक लगा-लगाकर, चिल्ला-चिल्लाकर बोल रहे हैं, मगर सुन कोई नहीं रहा है। जो सुनने के लिए बैठे हैं, वे भी बोल रहे हैं। बड़ा अजीब है। बड़ा अजीब समय है। बड़े अजीब समय में हम जी रहे हैं। हर आदमी निरर्थक शोर के आघात से आहत हो रहा है। आहत होकर बौखलाया हुआ आदमी अपने ही जीवन की जड़ों को काट रहा है। हमारा समय जीवन की जड़ों को काटकर पाताल का पानी सोखकर पत्ता-पत्ता सींच रहा है। बड़ा उल्टा अभिक्रम है। फिर भी वसन्त हमारे बीच है। मैं देख रहा हूँ, हमारा देश बुढ़ापे की आशंका में घिरता जा रहा है। हमारे समय की दुनिया को विध्वंस के विस्फोट का धुआँ बूढ़ा बना देने के लिए आमादा है। जवानी के निखरने के पहले ही असुरक्षा का अंदेशा बुढ़ापे के गर्त में गिराने को धक्के लगा रहा है। मगर कोई बात नहीं है। फिर भी वसन्त हमारे बीच है।
जब तक वसन्त हमारे बीच है, हमारी जड़ें उकठेंगी नहीं। वसन्त हमें जीवन के स्रोत से विच्छिन्न नहीं होने देगा। जीवन में हमारी आस्था मन्द नहीं होगी। जब तक फूल खिलना नहीं भूल जाएंगे। जब तक कोयल गाने से विरत नहीं हो जाएगी। जब तक सुगन्धि से आदमी का नाता टूट नहीं जाएगा। तब तक वसन्त हमारे बीच रहेगा। तब तक मनुष्यता बूढ़ी होने से बची रहेगी। यह हमारी कल्पना नहीं है। हमारा सदियों का, – शताब्दियों का आजमाया हुआ विश्वास है,- वसन्त बूढ़ा नहीं होने देता।