समृद्धि की एक नयी अवधारणा चाहिए

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किशन पटनायक (30 जून 1930 – 27 सितंबर 2004)

— किशन पटनायक —

(कल प्रकाशित लेख का बाकी हिस्सा)

न् 1970 के बाद भारत में, और 1980 के बाद रूस और चीन की उम्मीदें कम होने लगीं। इन देशों के शासकों और बुद्धिजीवियों ने फिर से नहीं कहा कि हम अमरीका बन जाएंगे। वास्तविक सत्य के दबाव के कारण उनके मुंह से ऐसी बातें निकल नहीं सकती थीं। लेकिन मूल धारणाएं ज्यों की त्यों रह गई हैं। उनकी विश्वसनीयता खत्म हो चुकी है, इसलिए विचारधाराएं धॅंस गई हैं। समृद्धि पैदा करने की टेक्नोलॉजी की अपार क्षमता और समृद्धि द्वारा मानवीय दुख का निराकरण हो सकता है, यह धारणा अभी भी शासकों का मूलाधार बनी हुई है। इसलिए ज्ञान और अविश्वसनीय हो गया है।

एशिया और अफ्रीका के नवस्वाधीन देशों की बात को छोड़ दें। सोवियत संघ को लें जहां अमरीका की बराबरी करने का सबसे गंभीर प्रयास हुआ था। सोवियत संघ का विघटन और पूर्वी यूरोपीय कम्युनिस्ट शासकों का पतन इतिहास की कितनी बड़ी घटना थी। लेकिन इसके कारणों पर चर्चा और अध्ययन की इतनी कमी क्यों? कोई उल्लेखनीय किताब जल्दी नजर नहीं आती है। भारत में शायद एक भी किताब इस पर नहीं लिखी गई है। अंग्रेजी में मुश्किल से दो-चार किताबें होंगी। फिर भी पूर्णांग अध्ययन किसी में भी नहीं है। जब कभी होगा तो विकास, समृद्धि और टेक्नोलॉजी के बारे में नए तथ्य और निष्कर्ष निकलेंगे।

1956 में एकाएक लगा था कि अमरीका से अधिक समृद्ध होने का रूसी दावा शायद सच निकलेगा क्योंकि उस साल ‘स्पुतनिक’ ईजाद हुआ था यानी अंतरिक्ष विज्ञान में रूस अमरीका से आगे हो गया था। यह आभास गलत था। अंतरिक्ष विज्ञान शुद्ध वैज्ञानिक अनुसंधान नहीं था। यह युद्ध विज्ञान का एक अंग था। अमरीका और रूस में युद्ध विज्ञान के क्षेत्र में होड़ थी। सोवियत रूस सरकार कुछ गिने-चुने क्षेत्रों में ही अपनी पूंजी का बहुत अंश लगा रही थी। सबसे अधिक हथियार में। स्पुतनिक की सफलता से अमरीका विचलित हुआ और उसने जोरदार प्रयत्न कर इस क्षेत्र में शीघ्र अग्रगति हासिल कर ली। बाद में कभी भी रूस की अगुवाई नहीं हो पाई।

रूस के पास पूंजी इतनी सीमित थी कि सोवियत संघ के सारे क्षेत्रों का आधुनिकीकरण नहीं हो सकता था। आधुनिक समृद्धि का इलाका सिर्फ मास्को, लेनिनग्राद के आसपास था और कुछ महत्त्वपूर्ण औद्योगिक क्षेत्रों तक सीमित था। इससे सोवियत रूस में विषमता पनपने लगी, नगर और गांव की गैरबराबरी विकासशील देशों जैसी ही थी। क्षेत्रीय वैमनस्य सबसे बड़ा कारण होता है। रूस के अंदर क्षेत्रीय असंतोष इतना अधिक हो चुका था कि जैसे ही सोवियत सत्ता का केंद्र कमजोर हुआ, विघटन को रोक पाना असंभव हो गया।

आधुनिक टेक्नोलॉजी की असफलता सोवियत रूस के पतन का संभवतः मुख्य कारण था। अगर कोई इसका खंडन करना चाहेगा तो तथ्य देने पड़ेंगे कि सोवियत रूस का आधुनिकीकरण चौतरफा हो रहा था, और क्षेत्रीय विषमताओं से क्षेत्रीय अंसतोष नहीं पनप रहा था।

क्या आधुनिक टेक्नोलॉजी समृद्धि पैदा कर सकती है? हां, लेकिन अपनी शर्त पर। यह समृद्धि पैदा करती है लेकिन साम्राज्य उपनिवेश संपर्क के एक ढांचे के अंदर। उपनिवेश उसका बाजार होता है- सस्ता श्रम और सस्ता माल मुहैया करनेवाला। इसी सपंर्क के ढॉंचे में पूंजी की लगातार उत्पत्ति होती है। उसकी अपनी क्षमता केंद्रीकरण की है और पूंजी की बहुतायत से समृद्धि का विस्तार इस टेक्नोलॉजी के द्वारा होता है। अन्यथा, पूंजी के अभाव में, आधुनिक समृद्धि कुछ केंद्रीय इलाकों में, कुछ महानगरों में सिमट कर रह जाती है और टेक्नोलॉजी नाना प्रकार का असंतुलन पैदा करती है जिनमें क्षेत्रीय विषमता मुख्य है।

सोवियत संघ का औपनिवेशिक आधार बहुत कम था। पूर्वी यूरोप उसका उपनिवेश या अर्ध उपनिवेश था। वहां भी विद्रोह होने लगा। यूगोस्लाविया, चेकोस्लाविया, पोलैंड अलग होते गए। जब कोई राष्ट्र आधुनिक समृद्धि के उद्देश्य से अत्याधुनिक टेक्नोलॉजी का प्रयोग करने लगता है और उसका बाहरी उपनिवेश नहीं होता है, तब राष्ट्र के अंदर ही चुने हुए इलाकों को समृद्ध करने के लिए बाकी क्षेत्र को उपनिवेश (आंतरिक उपनिवेश) में परिवर्तित करना पड़ता है। सोवियत रूस के एशियाई गणराज्यों में आधुनिक समृद्धि का विकास नदारद था।

आधुनिक टेक्नोलॉजी समतावादी ढांचे में आधुनिक समृद्धि पैदा नहीं कर सकती है। इसलिए चीन के कम्युनिस्टों को बाजार-साम्यवाद स्थापित करना पड़ा ताकि चीन के कुछ क्षेत्रों में आधुनिक समृद्धि की चोटियां दिखाई पड़ें। बाजार-साम्यवाद यानी अर्थव्यवस्था पूंजीवादी ढंग से संचालित होगी लेकिन निगरानी करनेवाली राज्यव्यवस्था, कम्युनिस्टों के एकाधिकारवाली होगी।

चीन के पास बाह्य उपनिवेश न होने के कारण देश के अंदर ही आंतरिक उपनिवेश पैदा करना होगा। आधुनिक समृद्धि का एक इलाका और पिछड़ेपन का एक बहुत बड़ा इलाका- चीन के अंदर यह विरोधाभास तीव्र रूप धारण करने वाला है। यहां से आगे बढ़ने के लिए समृद्धि का अर्थ ढूंढ़ना होगा। जैसा कि आधुनिक हिंदी भाषा में, जैसा कि अंग्रेजी में, सारी भाषाओं में समृद्धि एक अपरिभाषित शब्द है। शब्दकोशों में और व्यवहारों में भी समृद्धि, संपन्नता, वैभव, प्राचुर्य, बहुतायत, ये सारे शब्द समानार्थक हो जाते हैं। भौतिक सुख को इतना अधिक महत्त्व देनेवाले युग में भाषा और ज्ञान की यह कैसी अपरिपक्वता है?

समाज की कैसी स्थिति को हम समृद्धि कहेंगे, और कहां हम संपन्नता कहेंगे, कहां प्राचुर्य, कहां बहुतायत और कहां वैभव? समाज में अधिक धन होना, व्यक्ति के पास अधिक धन होना, समाज के विभिन्न वर्गों में सुख का संसाधन होना, अभाव न होना और ऐयाशी करने लायक अतिरिक्त धन होना- इन अलग-अलग अवस्थाओं को हम अलग-अलग शब्दों से नहीं जान सकते हैं तो अवश्य ही हमारा समृद्धि का विवेचन, उसका साहित्य सतही है जबकि निरंतर हम समृद्धि की चर्चा कर रहे हैं, उसका सपना देख रहे हैं और उसका अध्ययन कर रहे हैं।

आधुनिक ज्ञान में समृद्धि एक अपरिभाषित शब्द या धारणा है। आधुनिक समृद्धि कहने के लिए हम व्यक्त या अव्यक्त रूप में पश्चिम यूरोप या अमरीका की तरफ इशारा करते हैं। यानी उसका मूर्त रूप है, परिभाषा नहीं है। किसी समाज में सारे व्यक्तियों तथा परिवारों की मौलिक आवश्यकताएं पूरी हो जाती हैं और सामाजिक सुविधाएं भी मुहैया करने लायक व्यवस्था है, लेकिन ऐयाशी या आडंबर के लिए धन उपलब्ध नहीं है, तो उस समाज के लिए हमारे पास एक शब्द होना चाहिए। हम उसको ‘संपन्नता’ कह सकते हैं। उसको आधुनिक समृद्धि में नहीं ही गिन सकते हैं क्योंकि आधुनिक समृद्धि में बीच-बीच में वैभव दिखाई देना चाहिए, भले ही वैभव के साथ भुखमरी और महामारी भी दिखाई दे। या हम ‘विलासिताविहीन समृद्धि’ या ‘विषमताविहीन समृद्धि’ की बात करके देखें। ‘ग्रामीण समृद्धि’ कहना भी निकट का प्रयोग हो सकता है। शब्द जो भी हो, समृद्धि की एक नई अवधारणा चाहिए जो काम्य हो और संभव हो, दुनिया के किसी भी क्षेत्र में संभव हो।

भौतिक विकास का प्रश्न एक आधारभूत प्रश्न है। सामाजिक मनुष्य के किसी भी प्रकार के विकास के लिए यह प्रारंभिक आवश्यकता है। सारे शास्त्रों के लिए यह प्रस्थान-बिंदु है।

सभ्यता की इतनी लंबी अवधि के बाद अगर मनुष्य जाति अपने समूह के लिए मौलिक आवश्यकताओं को पूरा करने की कोई व्यवस्था नहीं कर पाई है तो सभ्यता पर ही प्रश्नचिह्न लगता है। मनुष्य प्रजाति की श्रेष्ठता पर यह प्रश्नचिह्न है। आधुनिक सभ्यता ने इसमें कोई योगदान नहीं किया है। आधुनिक सभ्यता का कार्यक्षेत्र विश्वव्यापी है। अमरीका का वर्चस्व भी विश्वव्यापी है। इसलिए सिर्फ उत्तर अमरीका का वैभव दिखाकर यह सभ्यता और उसका विज्ञान अपने को श्रेष्ठ प्रमाणित नहीं कर सकता है।

संभवतः कुछ प्राचीन सभ्यताओं में सामूहिक जीवनधारण की बेहतर व्यवस्थाएं थीं। विकास की यह ‘प्रजातीय’ कसौटी है। क्या आधुनिक सभ्यता ने मनुष्य प्रजाति को विपन्न नहीं किया है? जीवजगत की तो प्रतिवर्ष हजारों प्रजातियां समाप्त हो रही हैं। तो ज्ञान कहां है?

किसी विचारधारा के माध्यम से ही ज्ञान साधारण मनुष्य तक पहुंचता है। विचारधाराओं के अभाव में साधारण मनुष्य ज्ञानी नहीं हो पाता है। इसलिए विचारधारा की शून्यता जनसाधारण में जड़त्व पैदा करती है।

प्रजाति की चेतना से नए ज्ञान का अभ्युदय होगा। समृद्धि की एक नई अवधारणा से इसका प्रारंभ होगा। विकास अधिकतम समृद्धि के लिए नहीं, समग्र विश्व के प्राणियों के लिए जीवनधारण की स्थितियां पैदा करना और सारे मनुष्यों की मौलिक आवश्यकताओं को पूरा करना इसका लक्ष्य है। किसी भी बुद्धिजीवी को जो अपने को बुद्धिजीवी कहलाने लायक समझता है, इस पर अपना एक स्पष्ट बयान देना होगा कि पृथ्वी और मनुष्य प्रजाति का भविष्य अगले सौ साल में (सहस्राब्दी में नहीं) क्या होने जा रहा है ।

समकालीन बुद्धिजीवियों का यह एक पाखंड है कि पर्यावरण को एक अलग विषय बनाकर इस पर चिंता व्यक्त करते हैं? लेकिन उस चिंता को अपने जीवन दर्शन या सामाजिक दर्शन में अंगीभूत नहीं करते। जिसको वे ‘पर्यावरण’ कहते हैं वह दरअसल मनुष्य प्रजाति के जीवनधारण का एकमात्र संबल है और समूचे विकास तथा प्रौद्योगिकी के लिए एकमात्र संबल है।

(किशन जी का यह लेख पहली बार ‘बहुवचन’ के जुलाई-दिसंबर 2000 के अंक में प्रकाशित हुआ था. यह पत्रकार गंगा प्रसाद के संपादन में निकली किशन जी की किताब ‘संभावनाओं की तलाश’ में संकलित है.)

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