— शर्मिला जालान —
काव्य-संग्रह ‘अन्तस की खुरचन’ के बाद युवा कवि यतीश कुमार की दूसरी पुस्तक आविर्भाव ग्यारह प्रसिद्ध कृतियों पर कविताई है। इन कृतियों से यतीश जी को खाद-पानी मिलता रहा होगा तभी ये उनके अंदर आकार लेती रही हैं। इनको पढ़ते हुए इस बात पर ध्यान गया कि यहाँ यतीश कुमार ने अपनी रुचि के वे उपन्यास लिये हैं जिनके विलक्षण योगदान को हम हर बार नई तरह से समझते रहे हैं। जिन्होंने परंपरा और प्रयोग में कुछ नया जोड़ा है और नए रास्ते खोले हैं। वे इन रचनाओं से एक निजी तरह का सम्बन्ध बनाते हैं और फिर इनकी अर्थ छवियों को निजी भाषा शैली में रचते हैं।
एक तरह से ये कविताएं उन कृतियों को समर्पित होने के साथ ही साथ कुछ नया ढूँढ़ती हुई मौलिक कविताएं हैं जो चयनित कृतियों से शब्द, बिंब, पद, प्रत्यय ले अपने को समृद्ध करती हैं और फिर एकदम नए बिम्ब, पद, प्रत्यय और शब्द से नया वितान रचती हैं। इस तरह से इस संग्रह की कविता रिइंटरप्रेट करती है। कवि के पास ऐसी भाषा है जो उनकी सोच को अपने में पूरी तरह वहन कर उनके चिंतन और मनन को संप्रेषित करती है। साहित्य अनुरागी यतीश कुमार एक तरह से भिन्न पीढ़ियों की कृतियों का संवाद करवाते हैं।
इन कविताओं से गुजरकर ऐसा लगा कि यहाँ एक विधा को दूसरी विधा का मात्र जामा पहनाना नहीं है बल्कि दूसरी विधा के अनुशासन और नियमों का पालन करते हुए, उसकी चुनौतियों को स्वीकार करते हुए कुछ अलग सा रचना है। हम जानते हैं कि उपन्यास के पाठक और रसिक अलग होते हैं और कविता के पाठक और रसिक अलग हैं। यहाँ एक विधा का पाठक दूसरी विधा में संतरण करता है।
‘आविर्भाव’ को पढ़ते हुए हम इस बात पर एक बार फिर ठहरते हैं कि जिस तरह से एक कला का दूसरी कला में रूपांतरण होता है, एक कला में दूसरी कला अंतर्गुम्फित होती है, उसी तरह एक विधा में दूसरी विधा अंतर्गुम्फित होती है और उसका दूसरे में रूपांतरण होता है। उपन्यास, कहानी और कविता का नाटकीय रूपांतरण होता रहा है। ‘आविर्भाव’ को पढ़ते हुए संगीतकारों, चित्रकारों पर या कला-संगीत के प्रसंग से लिखी गई कवि-आलोचक और संस्कृतिकर्मी अशोक वाजपेयी की कविताओं की याद आती है। ‘अली अकबर खां का सरोद वादन’ शीर्षक से उन्होंने कविताएं सत्रह-अट्ठारह वर्ष की उम्र में ही लिखी थीं। कुमार गंधर्व पर ‘बहुरि अकेला’ नाम से उनकी कविताओं की एक पुस्तिका है। कविता-संग्रह ‘उजाला एक मंदिर बनाता है’ अशोक वाजपेयी का चित्रकारों और संगीतकारों पर संग्रह है। कलाओं और कलाकारों पर हिंदी में शमशेर, सर्वेश्वर दयाल सक्सेना, श्रीकांत वर्मा की कविताएं मौजूद हैं। यह प्रसंग अवांतर भी लग सकता है पर कई अवांतर प्रसंग किसी रचना से गुजरते हुए हमें याद आ जाते हैं और यह उस रचना की खूबी है।
ममता कालिया इसकी भूमिका में कहती हैं- ‘यतीश कुमार की यह पुस्तक अपनी तरह का अनूठा प्रयोग है, अलका सरावगी का उपन्यास, ‘कलिकथा वाया बाईपास’ पढ़ते हुए यतीश कुमार इस प्राचीन नगर को जीने लगते हैं। किशोर बाबू हमारे सामने खड़े हो जाते हैं जब यतीश कहते हैं ‘समय की लहरों से खींची लकीरें माथे पर दिखती हैं।’
पुस्तक के मलाट पर देवीप्रसाद मिश्र लिखते हैं- ‘अमूमन उपन्यास और कविता को अपनी संरचनाओं में एक-दूसरे का विपरीत और विलोम माना जा सकता है। लेकिन यतीश बहुत मौलिक तरीके से दोनों को किसी पारस्परिकता में देखना शुरू करते हैं। वह उपन्यास को कविता की तात्विकता में घटित करने का जोखिम उठाते हैं। इसके लिए वह उपन्यास के मानस और मनस्तत्त्व को आविष्कृत करते हैं- उसका विज़न और उसकी अंतर्दृष्टि उसकी मेटाफिजिकल अन्तर्धारा और उसकी वैचारिक निर्मिति।’
यतीश कुमार अपनी पुस्तक की भूमिका में कहते हैं ‘बतौर सर्जक साहित्य में बहुत देर से आए’। लेकिन मेरा यह मानना है कि उनके अंदर बीज बहुत पहले से पड़े हुए थे। साहित्य की यात्रा तो अंदर ही अंदर चलती रही है तभी पुस्तक का जन्म हुआ है। ‘आविर्भाव’ सुंदर चित्रों के साथ सुरुचिपूर्ण ढंग से छपी है। पुस्तक का सादा आवरण और कलेवर सौन्दर्य का भाव पैदा करता है। आवरण हेतु चित्रकार संजू जैन और संकलित संग्रहों से सम्बन्धित चित्रों के लिए चित्रकार विनय अम्बर बधाई के पात्र हैं।
अन्त में कवि यतीश को आगामी रचनाधर्मिता के लिए शुभकामनाओं समेत मैं इस काव्य-संग्रह में संकलित दो कालजयी संग्रह विनोद कुमार शुक्ल रचित ‘दीवार में एक खिड़की रहती थी’ और कृष्णनाथ रचित ‘स्पीति में बारिश’ की अपनी एक-एक पसंदीदा कविता जोड़ रही हूं, ताकि संग्रह को आप और समीप से महसूस कर सकें।
विनोद कुमार शुक्ल रचित ‘दीवार में एक खिड़की रहती थी’ से गुजरते हुए उपजी पंक्तियां –
“एक खिड़की आँखों की
एक मन की !
खिड़की के बाहर
दुनिया अनन्त आसमानी
मन के भीतर की
सिमटी हुई पलकों में या अधरों पर
दुनिया कितनी जल्दी सिमट आती है !
एक-एक पल के पकने की आवाज होती है
किसी को सुनाई आती है, किसी को नहीं
देखा नन्हीं गुड़िया को
आकाश से झांकते, खिड़की की ओर
उसकी मुट्ठी में बन्द है
आराम करती एक खुशनुमा दुनिया
उस पल पृथ्वी
लंबी सांस ले रही होती है
उसकी नन्ही नज़रों से निहारता हूँ
जिसमें दुनिया घूमती हुई
ब्रह्मांड के चक्कर लगा रही है”
कृष्णनाथ रचित यात्रा-वृत्तांत ‘स्पीति में बारिश’ से उपजी इन पंक्तियों से भी आपका पाठक मन सहज जुड़ जाता है।
“निरखने का अपना सुख है
खुले अनंत क्षितिज को निरखता हूँ
पहाड़ से मैदान जैसे-जैसे उतरता हूँ
दृष्टि और क्षितिज दोनों ही
सिकुड़ते नज़र आते हैं
आरम्भ से क्षोभ होता है
अनारम्भ से शांति
अवलम्बित करुणा राग है
निरवलम्ब करुणा की तलाश में हूँ
खड़े रहने के लिए चलना है
सृष्टि चलती रहती है
हमें भी चलना है
और धर्म संस्कृति को भी
अकेला छिद्र
पूरे पात्र को खाली करने के लिए काफी है
यहाँ तो दो हैं
जातिवाद और सुरापान
दोनों बौद्ध चित्त में सेंध हैं।।”
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आविर्भाव (कविता संग्रह), प्र.- राधाकृष्ण प्रकाशन, नयी दिल्ली; मूल्य : 229 रु.