प्रतिरोध के नए तरीके ढूँढ़ना है

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— लाल्टू —

 (दूसरी किस्त)

 

भारत में भी पिछले दशकों में फासिस्ट विकास का झूठा मुहावरा गढ़ रहे थे। 2014 में विकल्प और भी थेपर जिस सांप्रदायिक राष्ट्रवाद की धौंस का सपना लोगों के ज़हन में डाला गया थाबाक़ी सारे दल उसके खिलाफ थे – यही भाजपा की जीत की मुख्य वजह थी। यह बात वे सब अच्छी तरह जानते थेजो लोग तब भाजपा की जीत की दूसरी वजहें ढूँढ़ रहे थे। दूसरी वजहें ढूँढ़ना औरों को धोखा देना तो है हीयह खुद को भी धोखा देना है। इसी तरह दरारें जो भी होंलोकतांत्रिक ताकतों द्वारा फासीवाद के खिलाफ आज भी एक मंच न बना पाना दरअसल राष्ट्रवाद और सांप्रदायिकता का वर्चस्व ही दिखलाता है।

जर्मनी में नात्सी’ यानी राष्ट्रवादी समाजवाद एक खास तरह की विचारधारा थीजिसके मुताबिक जर्मनी की हर समस्या यहूदियों की वजह से थी और उनका और गैरआर्य लोगों का नरसंहार ही हर समस्या का समाधान था। नात्सी विचारधारा में सुधार नहीं हो सकताक्योंकि हिंसा और नफ़रत ही उनका अस्तित्व है। इसलिए वे बहुसंख्यकों के ज़हन में नफ़रत भर कर हर तरह के प्रतिरोध को खत्म करते हैं। नफरत और हिंसा वहाँ सही मान लिया जाता है। भले लोगहँसतेखेलते लोगमानो अनजाने ही इस नफ़रत से भरे होते हैं।

आज दुनिया भर में नरसंहारों को रोकने पर काम कर रहे लोगों में यह फ़िक्र है कि भारत में हालात इतने बिगड़ गये हैं कि साल भर बाद यहाँ बड़े कत्लेआम हो सकते हैं। बेशक भाजपा विरोधियों में सांप्रदायिकता शून्य नहीं हैहोती तो भाजपा को जमीन न मिली होती। पर जहाँ हिंसा व्यक्तियों के निहितस्वार्थों की वजह से हैउसका प्रतिरोध हो सकता हैक्योंकि आम लोगों में मानवता बची होती हैजबकि नात्सी’ या हिंदुत्व विचार के प्रभावक्षेत्र में यह मुमकिन नहीं रहता। खासतौर पर जब पड़ोसी मुल्कों में कट्टरपंथियों का वर्चस्व हैयह प्रतिरोध और मुश्किल हो जाता है।

इसलिए सवाल सिर्फ हिंदुत्व के प्रतिरोध का नहीं हैहर तरह की नफरत की राजनीति के खिलाफ खड़े होना है। नो वोट टु बीजेपी की मुहिम अंततइसी चेतना को आगे बढ़ाती है कि इंसानियत को कायम रखना है। इसलिए इसका दूरगामी असर हैजिसे समझना चाहिए। संघ की नफरत की सियासत से जूझते हुए ही यह आंदोलन आखिरकार बेहतर समाज की लड़ाई तक बढ़ेगा।

सौ साल पहले के जर्मनी की तुलना में आज के भारतीय समाज की जटिलताएँ कहीं ज्यादा हैं। जातिवर्गलिंग और तरहतरह की विषमताओं से हमारा समाज भरा पड़ा है। बड़ी पार्टियों में जो विकल्प आमलोगों को दिखते हैंउनमें से कोई भी जनता की सर्वांगीण भलाई के लिए प्रतिबद्ध नहीं है। चुनावों में कमतर शैतान को चुनना ही विकल्प सा बनकर सामने आता है। यह सही है कि दमनतंत्र में पिसते हुए लोग अक्सर बौखलाहट में गलत विकल्प चुन लेते हैं। पुरानी कहावत है कि दुश्मन का दुश्मन दोस्त हैपर चलते हुए लोग संघी फासिस्टों को जिता बैठते हैं।

चुनाव जीतने के लिए हर तरह के छल जो कोई भी बड़ी पार्टी इस्तेमाल करती हैवो सारे दाँवपेच संघी सियासत में शामिल हैं। इनके अलावा मुसलमानों के प्रति नफरत और हिंसा बढ़ाते रहना इनकी सोच के केंद्र में है। दमनकारी शासनतंत्र को हटाते हुए नफरत और हिंसा को अपनी विचारधारा बना लेना भयंकर भूल है। अपनी मानवता को बचाये रखना है और प्रतिरोध के नये तरीके ढूँढ़ना है।

आज उत्तर भारत में किसानों ने पूँजीवाद और फासीवाद के गठबंधन को सबके सामने उजागर कर दिया है। महामारी के दौरान जाहिल नेतृत्व की सच्चाई खुलने लगी है। फिरकापरस्ती के साये में जो लोग फरवरी 2002 के गुजरात के दंगे भूल गएनोटबंदी के बाद लाइनों में खड़े 200 लोगों की मौत भूल गएतालीम सेहत जैसे तमाम खित्तों के निजीकरण और भगवाकरण से जिनको फर्क नहीं पड़ापिछले साल लॉकडाउन में अनगिनत जानें चली जाना जिनकी जानकारी में जगह न बना पायींअगर आज महामारी की चपेट में ही वे कुछ सीख सकें और संघियों के असली स्वरूप को समझ लें और साथ ही लोकतांत्रिक और जनपक्षधर ताकतें एकजुट होकर चुनावतंत्र में हस्तक्षेप कर सकें तो मुमकिन है कि आगे हालात बेहतर हों।

यूरोप में फासीवाद के दौरानआज जैसे समाचार के साधन नहीं थे। आज उनके और हमारेदोनों तरह के विचार कोनेकोने तक पहुँच सकते हैं। नफरत एक हद तक पहुँच रखती हैपर समझ दूर तक जाती है। हमें लगे रहना होगा। मंजिल तक जा पाना आसान नहीं हैपर जीत हमारी होगी।

एक सदी पहले से हमने यह सीखा है कि वैचारिक मतभेद अपनी जगह पर हैंपर हमें एकजुट होना होगा और बहुलता और विविधता में यकीन रखना होगा। फासिस्टों ने यह बात लोगों के ज़ेहन में डाल दी है कि विकल्प दो हैं – शैतान की बदी या बदतर। हमें इस भ्रम को तोड़ना होगा। विकल्प हम हैं। नेकी के सात रंगों में इकट्ठे हम। हमें खुद इस बात में यकीन करना होगा और लोगों को यकीन करवाना होगा। फासिस्टों को एक भी वोट नहीं।

अगर फासीवाद विरोधी नागरिक मंच बनता है तो उसके उद्देश्य क्या होंगे। मुख्यतइन बिंदुओं पर काम करना है 

1. भारत में रूसी या चीनी इंकलाब जैसा कुछ नहीं होनेवाला है। चुनावों के जरिए फासिस्ट और हिंदुत्व वर्चस्व को पलटना ही एकमात्र संभावना है। चुनाव झेलना ही आज की सियासत है तो बंगाल की तर्ज पर हर जगह नो वोट टु बीजेपी’ आंदोलन खड़ा हो। सारे तरक्कीपसंद लोग मिलकर फासिस्ट विरोधी मंच बनाएँ।

2. गैरभाजपा पार्टियों पर दबाव डालें कि जहाँ किसी एक पार्टी की जीत निश्चित दिखती होवहाँ दूसरी पार्टी उम्मीदवार खड़ा न करे। स्थानीय स्तर पर इस रणनीति पर काम करें।

3. छोटे संगठन फालतू का चंदा लेकर अपने उम्मीदवार खड़ा न करें।

4. उम्मीद यह है कि बड़े वामपंथी दल गठबंधन बनाएँगे। जाहिर है कि हर वामपंथी ऐसे गठबंधन के उम्मीदवार को वोट देना चाहेगा। पर जैसा कम्युनिस्ट पार्टी माले ने बंगाल में तय किया था कि पहले संघ को परास्त करना हैऐसे ही उत्तर प्रदेश और दूसरे राज्यों में भी कोशिश करनी होगी कि संघ को हराने के मक़सद से सोचते हुए अपने उम्मीदवार वहीं खड़े किये जाएँ जहाँ जीतने की पक्की संभावना हो। अन्य दलों की तरह वामपंथी दल पैसे लेकर उम्मीदवार खड़े नहीं करतेइसलिए बेवजह उम्मीदवार खड़े कर अपने संसाधन खर्च करने का कोई मतलब नहीं होता। गैरभाजपा जो भी पार्टी जहाँ जीतने की क्षमता रखती होपूरी ताकत से उसे जिताने की कोशिश की जाए।

4. जहाँ भी फासीवादी गिरोह गुंडागर्दी या फिरकापरस्ती पर उतर आएँवहाँ प्रतिरोध की तैयारी हो।

5. इस पूरी प्रक्रिया में नफरत की विचाराधारा के खिलाफ पुरजोर बुलंद आवाज उठायी जाएताकि गैरभाजपा पार्टियों के सदस्य पार्टी छोड़ने पर भाजपा में जाने की कोशिश न करें।

कुछ लोगों की राय है कि अगर भाजपा के विरोध में एक ही दल का मुख्य उम्मीदवार हो तो उस दल से नाराज लोग भाजपा को वोट देंगे। इस गफलत पर काम करना है। लोगों को समझाना है कि बद से जूझने के लिए जमीन बनानी हैबदतर को समर्थन नहीं करना।

जाहिर है कि हर लोकपक्षी संगठन में यह चिंता है कि फिरकापरस्त ताकतें सर पर चढ़ आयी हैं। इसलिए अपनेअपने स्तर पर बहुत सारे लोग प्रतिरोध में जुटे हैं। पर पूरे राज्य में एकसाथ मिलकर प्रतिरोध में खड़ा बड़ा नागरिक मंच उत्तर प्रदेश या दूसरे राज्यों में नहीं दिख रहा। अगर इसपर तुरंत पुरजोर ताकत के साथ न जुटा गया तो यह न केवल तरक्कीपसंद सोच की ऐतिहासिक भूल होगीबल्कि इससे फिरकापरस्ती के खिलाफ हमारी प्रतिबद्धता भी शक के दायरे में आ जाएगी।

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