— अरुण कुमार —
ग्रामीण अर्थव्यवस्था पेचीदा है, इसमें कृषि के अलावा उद्योग और सेवाएँ भी शामिल हैं। लेकिन गतिविधियाँ मुख्य रूप से असंगठित क्षेत्र में होती हैं और उनमें शहरी क्षेत्रों के मुकाबले कम आय होती है। यही वजह है कि देश की लगभग 70 फीसद आबादी ग्रामीण होने के बावजूद जीडीपी में इसका हिस्सा शहरी भारत के मुकाबले काफी कम है।
संकट रोजगार के अपर्याप्त अवसरों की वजह से भी है, हालांकि कृषि समेत असंगठित क्षेत्र में होने वाले काम श्रम की अधिक माँग वाले होते हैं। बहरहाल, ग्रामीण अर्थव्यवस्था के संकट में होने के कारण गाँवों से शहरों की ओर बड़े पैमाने पर पलायन होता रहा है। यह पलायन मौसमी भी है और स्थायी भी। जो चुपचाप होता रहा है वह लाकडाउन के दौरान सतह पर दीखने लगा जब काफी तकलीफदेह हालात में लाखों लोग अपने अपने गाँव की ओर पैदल लौट रहे थे। दुनिया की किसी और बड़ी अर्थव्यवस्था वाले देश में ऐसा पलायन नहीं हुआ।
ऐतिहासिक घटनाक्रम
हमारे नीति-निर्माताओं का फोकस अर्थव्यवस्था के संगठित क्षेत्र पर, आधुनिक क्षेत्र पर रहा है और इसकी परिणति ग्रामीण अर्थव्यवस्था के हाशियाकरण में हुई है। अर्थव्यवस्था के आधुनिकीकरण के चक्कर में हुआ यह कि पश्चिमी आधुनिकता की नकल की जाने लगी। भारत ने अपनी विशिष्ट आधुनिकता गढ़ने की कोशिश नहीं की, ऐसी आधुनिकता जो गाँवों में रहने वाली उसकी विशाल आबादी की जरूरतों के माफिक बैठती हो। लिहाजा, हैरानी की बात नहीं कि कृषि सेक्टर, जो हमारे उपभोग की सबसे अहम चीज यानी खाद्य मुहैया कराता है, हाशिये पर चला गया।
आजादी के समय से हमारी नीतियाँ ‘रिसन सिद्धांत’ (ट्रिकल डाउन) पर आधारित रही हैं; यानी आधुनिक सेक्टर फलेगा-फूलेगा और विकास के लाभ रिस-रिस कर हाशिये के तबकों तक पहुँचेंगे।
उम्मीद यह भी की गयी थी कि आधुनिक सेक्टर पनपेगा तो वह अर्थव्यवस्था के पिछड़े सेक्टरों को अपने में समाहित कर लेगा- और इस तरह पूरी अर्थव्यवस्था आधुनिकीकृत हो जाएगी। बदकिस्मती से, ऐसा नहीं हुआ, क्योंकि आधुनिक सेक्टर को इतनी ज्यादा पूँजी की जरूरत पड़ती है कि वह काफी रोजगार पैदा नहीं कर सकता। लिहाजा, पिछड़े सेक्टर जहाँ के तहाँ रह गये। अधिकांश आय उन लोगों ने अर्जित की, जो आगे बढ़े हुए सेक्टरों में थे, बाकियों तक रिस-रिस कर पहुँचने के लिए ज्यादा कुछ नहीं था।
दुर्भाग्य से, असंगठित क्षेत्र के अधिकांश हिस्से से संबंधित आँकड़े अलग से उपलब्ध नहीं हैं, लिहाजा, उसके प्रदर्शन को संगठित क्षेत्र की प्रगति में ही प्रतिबिंबित मान लिया जाता है। इस स्थिति के कारण, अर्थव्यवस्था संबंधी आँकड़ों को लेकर हम एक खुशफहमी के शिकार रहते हैं क्योंकि असंगठित क्षेत्र की अधोगति हो रही है जबकि संगठित क्षेत्र ऊपर चढ़ रहा है। असल में, भारत की अर्थव्यवस्था के प्रदर्शन को आँकने का यह तरीका दोषपूर्ण है और वास्तविक आर्थिक विकास को जानने के लिए इसे बदलने की जरूरत है।
ग्रामीण अर्थव्यवस्था का उपनिवेशीकरण और हाशियाकरण
नोटबंदी, जीएसटी, गैर-बैंकिंग सेवाओं के संकट और लाकडाउन ने असंगठित क्षेत्र को भयावह नुकसान पहुँचाया और यह आधिकारिक आँकड़ों में दर्ज नहीं हुआ। अगर यह दर्ज हो पाता तो भारत की विकास दर आज नकारात्मक दीख रही होती, न कि 7 फीसद से अधिक, जैसा कि आधिकारिक तौर पर दावा किया गया है।
असंगठित क्षेत्र को न सिर्फ आँकड़ों में दरकिनार किया गया है बल्कि नीतियों में भी। अगर त्रुटिपूर्ण आँकड़ों के आधार पर, अर्थव्यवस्था मजबूत हालत में दीखती है, तो ग्रामीण अर्थव्यवस्था का संकट दूर करने के लिए विशेष नीतियाँ बनाने की जरूरत नहीं रह जाती। तब सिर्फ कुछ राहत बाँटना पर्याप्त मान लिया जाता है, संकट के समाधान के बारे में सोचा ही नहीं जाता। लब्बोलुआब यह कि ग्रामीण सेक्टर आँकड़ों में भी ओझल है और नीतियों में भी।
काला धन इन हालात को और पेचीदा बना देता है। चूँकि असंगठित क्षेत्र में अधिकतर लोगों की आय कर-योग्य सीमा से काफी नीचे है, काला धन अमूमन वही लोग अर्जित करते हैं जो संगठित क्षेत्र में हैं। लेकिन काले धन पर अंकुश लगाने के नाम पर, असंगठित क्षेत्र में डिजिटलीकरण और औपचारिकीकरण जैसे जो तौर-तरीके और नीतियाँ लागू की जाती हैं उनके चलते इस क्षेत्र को और भी नुकसान हो रहा है।
इससे भी अहम बात यह है कि काला धन पैदा होने के कारण, आँकड़े और भी गलत-सलत तैयार होते हैं फिर नीतियाँ और भी दोषपूर्ण आँकड़ों के आधार पर बनती हैं। काला धन मुट्ठी भर अमीरों के हाथ में केंद्रित होता है। नतीजतन, उनके और गरीबों के बीच विषमता भयावह रूप से बढ़ी है, और यह आँकड़ों में दर्ज नहीं हुआ है।
दरअसल, असंगठित क्षेत्र न सिर्फ हाशिये पर है बल्कि यह संगठित क्षेत्र का उपनिवेश बन गया है। असंगठित क्षेत्र की कीमत पर, संगठित क्षेत्र फल-फूल रहा है- असंगठित क्षेत्र, संगठित क्षेत्र को बाजार मुहैया करता है, उसी तरह जैसे भारत ब्रिटिश उद्योगों के लिए करता था।
1991 में नयी आर्थिक नीतियाँ लागू होने के बाद असंगठित क्षेत्र के हाशियाकरण और उपनिवेशीकरण का रुझान और मजबूत हुआ। अब तो वे नीतियाँ आधुनिक सेक्टर तथा बड़े उद्योगों की और भी तरफदार हैं। 1947 से चल रही, इससे पहले की नीतियों के विपरीत, नयी आर्थिक नीति हाशिये के तबकों की तरफदारी में जुबानी जमाखर्च भी नहीं करती।
कृषि और ग्रामीण क्षेत्रों के लिए वे आधुनिकीकरण और मशीनीकरण की ही वकालत करते हैं, जो कि विशाल ग्रामीण आबादी की जरूरतों के माफिक नहीं बैठता।
कृषि में रोजगार सृजन के विस्तार की संभावना शून्य पर पहुँच गयी है और पर्याप्त गैर-कृषि रोजगार न होने के कारण, लोग वहीं अटके हुए हैं, और इसका परिणाम छिपी हुई बेरोजगारी के रूप में आता है। इससे गरीबी बढ़ती है क्योंकि निर्भर आबादी का अनुपात बढ़ता है। आजादी के समय से ही, कृषि पैदावार की खरीद की प्रतिकूल नीति के कारण, कृषि क्षेत्र का अधिशेष शहरीकरण और उद्योगीकरण की सेवा में लगता रहा है। चूँकि शहरीकरण और उद्योगीकरण, दोनों काफी कीमत वसूलते हैं, ग्रामीण क्षेत्रों के लिए संसाधन बहुत ही कम रह गये और उन्हें इसका खमियाजा भुगता पड़ा।
हाशियाकरण का व्यापक दुष्प्रभाव : बढ़ती अस्थिरता
असंगठित क्षेत्र 94 फीसद श्रमशक्ति को रोजगार मुहैया करता है और अर्थव्यवस्था में 45 फीसद का योगदान करता है, इसमें 14 फीसद कृषि से आता है। असंगठित क्षेत्र की उपेक्षा ने बड़े पैमाने पर अर्थव्यवस्था को चोट पहुँचायी है। इसका नतीजा माँग में कमी के रूप में सामने आया है और इससे आर्थिक वृद्धि दर धीमी हुई है।
नोटबंदी के बाद, अर्थव्यवस्था की वृद्धि दर तिमाही-दर-तिमाही गिरती गयी और 8 फीसद से गिरते-गिरते 2019-20 की चौथी तिमाही में, यानी भारत में कोरोना फैलने से ऐन पहले की तिमाही में, 3.1 फीसद हो गयी। इस पर किसी को हैरानी नहीं होनी चाहिए। अगर अर्थव्यवस्था का एक बड़ा हिस्सा दरकिनार रहे, तो क्रय-शक्ति घट जाएगी और अर्थव्यवस्था के गैर-ग्रामीण हिस्से की वृद्धि दर में भी कमी आएगी।
अगर अमीरों के बजाय गरीबों की आमदनी बढ़ती है, तो खपत में वृद्धि होगी। गरीबों की बुनियादी जरूरतें पूरी नहीं हो पाती हैं, अगर उनकी आमदनी बढ़ती है तो वे वस्त्र, भोजन आदि पर पहले से अधिक खर्च करेंगे। अगर अमीरों की आमदनी में इजाफा होता है तो वह अमूमन बचत के रूप में जमा होगा। अगर वे उद्योग/व्यापार में नया निवेश नहीं करते हैं, तो उस अतरिक्त आमदनी से माँग में कोई बढ़ोतरी नहीं होगी।
अमीरों की आमदनी बढ़ती है तो उन्हें निवेश बढ़ाते जाना होगा, पर साथ ही विषमता भी बढ़ती जाएगी। अगर निवेश घटता जाता है तो माँग में कमी होगी और इससे अर्थव्यवस्था की वृद्धि दर में गिरावट आएगी।
कृषि के समक्ष चुनौतियाँ
जिन चुनौतियों से कृषि क्षेत्र आक्रांत है वे भी ग्रामीण अर्थव्यवस्था को प्रभावित करती हैं क्योंकि कृषि उसका सबसे बड़ा घटक है। गैर-कृषि रोजगार की पर्याप्त उपलब्धता न होना, एक बड़ा मसला है। लोगों की एक बड़ी संख्या खेती से इसलिए चिपकी हुई है क्योंकि उनके पास कोई और चारा नहीं है, और इससे ग्रामीण परिवारों में गरीबी बढ़ रही है।
खेती के जोत, बँटते-बँटते छोटे होते गये हैं, और अब 85 फीसद जोत 5 एकड़ से कम है। अधिकतर छोटे किसानों की स्थिति यह है कि वे अपने परिवार के लिए जरूरी आय अर्जित नहीं कर सकते। वैकल्पिक काम उनके लिए बहुत मायने रखता है।
कृषि क्षेत्र के अधिशेष का शहरों तथा उद्योगों की भेंट चढ़ जाने का नतीजा यह है कि किसानों के पास इस तरह के निवेश और तकनीकी बदलाव करने के लिए कुछ नहीं होता जिससे आमदनी बढ़ सके। इसका अर्थ यह भी है कि उनके पास बच्चों को अच्छी शिक्षा दिलाने और परिवार को, जरूरत के वक्त, अच्छी स्वास्थ्य सुविधाएँ मुहैया कराने के लिए कुछ नहीं होता। इस तरह, परिवार का भविष्य सँवारने के मौके धूल में मिल जाते हैं और गरीबी बनी रहती है।
सरकार का दावा है कि वह 80 करोड़ लोगों को मुफ्त अनाज मुहैया करा रही है। फिर भी ग्रामीण इलाकों में गरीबी बदस्तूर कायम है। अगर मुफ्त अनाज की सुविधा न हो, तो गरीबी और भी चुभने वाली होगी। इस स्थिति का मतलब यह भी है कि जो काम ये लोग करते हैं उनसे गुजारे लायक आमदनी नहीं होती। नतीजतन, वे गरीब बने रहते हैं।
कृषि क्षेत्र की कमजोरी का एक बड़ा कारण यह है कि लोगों की बहुत बड़ी संख्या निर्भर है। क्रय शक्ति की कमी और गरीबी के चलते, छोटे किसान, व्यापारियों तथा साहूकारों के चंगुल में फँसे रहते हैं। लिहाजा, किसानों को बाजार में जो दाम मिलता है वह व्यापारियों तथा साहूकारों के मुनाफे के मुकाबले कम होता है। यह मुनाफा और भी अधिक हो सकता है।
इसलिए किसान आस लगाए रहते हैं कि सरकार उनकी फसलों के लिए एमएसपी यानी न्यूनतम समर्थन मूल्य घोषित करे। यह किसानों और व्यापारियों के लिए एक पैमाने (बेंचमार्क) की तरह होता है। दुर्भाग्य से, इसे लागू करने का तंत्र काफी कमजोर है। इसी तरह, खेतिहर मजदूरों के लिए न्यूनतम मजदूरी लागू करने का कोई तंत्र नहीं है। लिहाजा, किसानों और खेतिहर मजदूरों की एक विशाल संख्या वंचना का शिकार है।
खेती की लागत बढ़ गयी है, जबकि पैदावार की कीमत उस हिसाब से नहीं बढ़ी है। लिहाजा किसानों की आमदनी निचुड़ गयी है। अपनी आय बढ़ाने का उनके पास बस यही एक तरीका रह गया है कि वे खेतिहर मजदूरों को निचोड़ें। लेकिन इसका नतीजा खाद्य की माँग में कमी और कृषि पैदावार के बाजार-मूल्य को कमजोर करने के रूप में होता है।
अधिकतर फसलों पर एमएसपी न मिल पाने का बुरा परिणाम पर्यावरण की दृष्टि से भी होता है। धान, गेहूँ, गन्ना जैसी फसलें अधिक बोयी जाती हैं क्योंकि उनमें कमाई अधिक है। लिहाजा तिलहन, दलहन और बाजरा कम हो रहा है। इनकी पैदावार घटने से इनका आयात करना पड़ता है। इसके अलावा, ऐसी फसलें उगायी जा रही हैं जो संबंधित इलाके की जलवायु के माफिक नहीं हैं। मसलन, पानी की खूब खपत करने वाली धान और गन्ना जैसी फसलें अर्ध-शुष्क इलाकों में भी बोयी जा रही हैं।
इस तरह, नीति (या उसका अभाव) हर संभव तरीके से पर्यावरणीय समस्या को जन्म दे रही है। इसके अलावा, अधिक पैदावार पाने के लिए रासायनिक खादों और कीटनाशकों का अंधाधुंध इस्तेमाल हो रहा है। इससे जमीन की उर्वरा-शक्ति नष्ट हो रही है, और पानी प्रदूषित हो रहा है। नतीजतन, बीमारियाँ बढ़ रही हैं।
कृषि में यंत्रीकरण और गैर-कृषि क्षेत्र में स्वचालन (ऑटोमेशन) का परिणाम गैर-कृषि रोजगार में घटोतरी के रूप में हुआ है।
राजनीतिक चुनौतियाँ और आवश्यक सुधार
एक लोकतंत्र में ऐसी अवस्था क्यों है कि खेतिहर और ग्रामीण आबादी, संख्या में विशाल होते हुए भी, अपने को हाशिये पर पाती है? कारण यह है कि कृषि क्षेत्र के साथ बहुत सारे, विभिन्न आर्थिक हित जुड़े हुए हैं।
किसानों की कई श्रेणियाँ हैं- धनी, मझोले और सीमांत; और सिंचित तथा असिंचित क्षेत्र के किसान। फिर भूमिहीन खेतिहर मजदूर हैं और बहुत छोटी जोत वाले किसान हैं जो मजदूर भी हैं। सबके अपने-अपने हित हैं और इनमें साझापन अभी साधा नहीं जा सका है। राजनीतिक दल इन दरारों का बेजा लाभ उठाते हैं।
राजनीति में आने वाले किसान अमूमन धनी किसान होते हैं जो जल्दी ही कारोबारी भी बन बैठते हैं और देर-सबेर शहरी तथा कारोबारी एलीट वर्ग के हितों का प्रतिनिधित्व करने लगते हैं।
ग्रामीण इलाकों और किसानों के नेताओं को अपने मतभेद दूर करने की जरूरत है। गैर-कृषि और शहरी हितों से उनके जो अंतर्विरोध हैं उसके मुकाबले उनके आपसी अंतर्विरोध काफी कम हैं। अगर वे सभी फसलों के लिए एमएसपी की माँग करेंगे और उसमें खेतिहर मजदूरों को पुसाने लायक मजदूरी का हिसाब शामिल होगा, तो वे नाकाम नहीं होंगे। वे तो लाभान्वित होंगे ही, क्योंकि मजदूरों की तरफ से उनकी पैदावार की माँग बढ़ेगी और तब बाजार में उनकी पैदावार की कीमत संभवतः एमएसपी से भी अधिक होगी। फिर एमएसपी को कैसे लागू किया जाए यह समस्या भी नहीं रहेगी।
यह स्थिति खाद्य पदार्थों की महँगाई बढ़ाने वाली भी हो सकती है और संभवतः मध्यवर्ग तथा कारोबारी समुदाय की ओर से इसका विरोध होगा जिन्हें अपने मजदूरों को अधिक वेतन या पारिश्रमिक देना पड़ेगा।
लेकिन क्या मध्यवर्ग और कारोबारी समुदाय का जीवन-स्तर ग्रामीण इलाकों के मजदूरों तथा किसानों के हितों की बलि चढ़ाकर होना चाहिए? यह न्याय नहीं है। महँगाई के अंदेशे को कम करने के लिए किसानों को अप्रत्यक्ष करों में कमी तथा प्रत्यक्ष करों में वृद्धि और काले धन पर सख्त नियंत्रण की माँग करनी चाहिए। उन्हें पूर्ण रोजगार के लिए कदम उठाने तथा कामगारों के लिए निर्वाह-योग्य वेतन की माँग भी उठानी चाहिए। दरअसल, अर्थव्यवस्था के लिए इस तरह के एक पूरे पैकेज की जरूरत है। ग्रामीण क्षेत्रों की समस्याओं का समाधान अर्थव्यवस्था में व्यापक तब्दीली से ही होगा।
अनुवाद : राजेन्द्र राजन