— रामजी प्रसाद ‘भैरव’ —
मेरी उम्र के आसपास या और पहले के लोग नौटंकी में नगाड़ा बजते हुए, जरूर सुने होंगे। उससे निकलने वाली ध्वनि केवल हृदय को आह्लाद ही नहीं देती बल्कि महीनों तक सुकून देती है।
एक बार हमारे बचपन में एक ड्रामा कम्पनी आयी थी गाँव में, सम्भवतः उस समय तक टीवी जैसे मनोरंजन का साधन नहीं आया था। इसलिए ड्रामा कम्पनी का गांव में आना बड़ा मनोरंजन था। कम्पनी को टैन्ट घंट लगाने में पन्द्रह दिन से अधिक लगे। रिक्शे से गाँव गाँव प्रचार होता रहा। हम लोग छोटे थे, स्कूल से लौटने के बाद कुछ खा-पीकर खेलने उधर ही चले जाया करते थे। पहली बार ट्रक से केवल कुर्सियां उतरते देखा। एक हजार से अधिक लकड़ी की मुड़ने वाली कुर्सियां रही होंगी, जो लगने के बाद अलग अलग दरों में विभक्त हो गयीं।
यह सिनेमा के विपरीत होता था। सिनेमा में महंगे टिकट खरीदने वाले पीछे बैठते हैं और ड्रामा कम्पनी में महंगे टिकट वाले आगे। जैसे जैसे दर कम होती है लोगों को क्रमशः पीछे की ओर बैठाया जाता था। खैर, मैं बात कर रहा था नगाड़े की, जब कम्पनी का पहले दिन का ड्रामा शुरू हुआ। मैं भी टिकट लेकर देखने गया। सात, पांच और दो रुपये टिकट के लगते थे। मैं दो रुपये वाला दर्शक था। उस जमाने में हैलोजन या बड़ी लाइटों की सुविधा नहीं थी। इसलिए कम्पनी ने लाइटिंग सुविधा के लिए सैकड़ों बल्ब लगाए थे। हमने बड़े बड़े बल्ब पहली बार देखे।
स्टेज पर रंग-बिरंगे पर्दे लगे थे। ये पर्दे दृश्य के हिसाब से बनवाये जाते थे। किसी नाटक में जैसे पर्दे की आवश्यकता होती उसे पहले से लगा के रखते थे। स्टेज के पीछे थोड़ी जगह छोड़ के रावटियां लगी थी। जो कलाकारों का ख़्वाबगाह हुआ करता था। कुछ कलाकार अपने रावटी में तैयार होते थे तो कुछ बाहर चारपाई या चौकी पर। मेरी निगाह पर्दे पर टँगी आकृतियों और दृश्यों पर लगी थी। कुर्सियां आधी भरी तो आधी खाली थीं। शोरगुल हो रहा था। कोई सुर्ती मल रहा है तो कोई बीड़ी पी रहा है। सिगरेट वाले न के बराबर थे। हाँ, दर्शकों के हाथों में लम्बी लम्बी टार्च और लाठी जरूर हुआ करती थी क्योंकि दर्शक कई गांवों से आते थे। झगड़े की संभावना के मद्देनजर साथ रखते थे।
अनाउंसर बीच-बीच में कुछ न कुछ बोलता रहता था, जो अब स्मृति में नहीं है। एक अकुताहट मची थी, ड्रामा कब शुरू होगा। उसी बीच अचानक से नगाड़े की ध्वनि ने कान को सुकून दिया। एक उम्मीद बन गयी। अब जल्द खेला शुरू होगा। जब पर्दा खुला। जगमग करता स्टेज और एक किनारे हारमोनियम, नगाड़े और अन्य वाद्य यंत्र वाले कलाकार लकदक कुर्ते और पायजामे में बैठे थे। बीच-बीच में वे अपने यंत्रों को बजाकर देख लिया करते थे। जिसमें सबसे हृदयस्पर्शी नगाड़े की ध्वनि ही होती थी। जब वे बजाते थे लगता धीरे-धीरे रूह में उतर रही है।
कुछ देर बाद नगाड़ा बन्द हो गया। पर्दा भी बन्द हो गया। नगाड़े और अन्य वाद्ययंत्र सब बन्द हो गए। सबके चेहरों पर मायूसी छा गयी। कुछ देर पूर्व दर्शकों की आंखों में जो चमक थी वह फीकी पड़ गयी। लोग फिर बोलने बतियाने लगे। पहले दिन कृष्णावतार ड्रामा होना था। मैंने चारों ओर नजर दौड़ाकर देखा, कुर्सियां लगभग भर चुकी थीं।
कई लोग तो फिर से बीड़ी सुलगा चुके थे। कुछ गदेलिया गर्म कर रहे थे। दर्शकों को बहुत इंतजार नहीं करना पड़ा। सबसे पहले भगवान की आरती हुई। बेहद भावपूर्ण प्रस्तुति से मन में आह्लाद हुआ। पर्दा फिर गिर गया। लेकिन इस बार बहुत इंतजार नहीं करना पड़ा। अनाउंसर ने बाहर आकर घोषणा की, अपने दिलों को थामकर बैठिए, अब दिल धड़काने आ रही हैं हुस्न की मलिका हेमलता रानी!
अनाउंसर के इतना कहते ही, मंच पर बैठे नगाड़े और वाद्ययंत्र फिर बज उठे, साथ ही उसी जोश में एक नर्तकी आकर नृत्य कर उठी, बिल्कुल अप्सरा की तरह।
महीनों चले कम्पनी के नाटकों को इतनी बार देखा कि हेमलता रानी, एक पुरुष कलाकार आरके झा और कम्पनी के मालिक वशिष्ठ जी का नाम अब भी याद है। कुछ अन्य कलाकार भी अच्छे प्रदर्शन करते थे, जिनके नाम स्मृति में नहीं हैं। कम्पनी बिहार के दरभंगा से आई थी। उसके मालिक सिल्क का कुर्ता और धोती पहनते थे। गले में एक-दो मालाएं और हाथ में सोने की अंगूठियां हुआ करती थीं। उनका मालिक जैसा रुतबा था, कठोर अनुशासन वाले वशिष्ठ जी की दृष्टि पड़ते ही, कलाकार हिल जाते थे। एक स्त्री कलाकार और थी, जो मुख्य नायिका थी। उसे लोग मालकिन ही मानते थे। सच्चाई जो भी हो, मुझे ज्यादा स्मृति में नहीं है। उसे प्रायः फिल्मी गीतों को गाते हुए देखा था, उसका स्वर अच्छा था। पर वह मेरी दृष्टि में हेमलता जैसी सुंदर नहीं थी। हेमलता की हेयर स्टाइल अच्छी थी।
आरके झा प्रायः नायक का रोल करते थे। और सिगरेट पीते थे। उनके स्टाइल से फिल्मी झलक मिलती थी। कई बार उन्हें बाजार में टहलते और लोगों से बात करते देखा था। वह दिन में भी बिना मेकअप के सुंदर लगते थे। कई बार हम बच्चों से स्नेहपूर्ण बातें भी करते थे। कलाकार होने का गुरुर नहीं था।
कई बार हम बच्चों को कोई ध्यान नहीं देता था तो हम कलाकारों को बनते-संवरते देखते। एक बार मैंने देखा एक महिला कलाकार अपने मुंह पर कुछ लेप कर रही है। देखते ही देखते उसका चेहरा बहुत सुंदर हो निखर आया।
मैंने किसी से बाद में पूछा था, ये लोग अपने चेहरे पर क्या लगाते हैं जो इतने सुंदर लगते हैं। जबाब मिला, मुर्दा शंख। पता नहीं उस बात में कितनी सच्चाई थी लेकिन बात सालों मेरे दिमाग में रही।
कई बार नाटक या नृत्य जब शबाब पर होता, प्रकृति रुष्ट हो आंधी या पानी ला देती। कार्यक्रम रोकना पड़ता। उस समय दर्शकों के लिए छाजन की व्यवस्था नहीं थी, नतीजतन तेज बरसात या आंधी आने पर अनाउंसर द्वारा कार्यक्रम को स्थगित करने की घोषणा की जाती थी। जिससे लोग मायूस होकर लौट जाते। ऐसी स्थिति यदि कार्यक्रम की शुरुआत में होती तो, उसी टिकट पर अगले दिन देखने की छूट मिलती, और यदि कार्यक्रम आधे से अधिक प्रस्तुत हो चुका होता तो सीधे कार्यक्रम स्थगित होने की ही घोषणा होती।
नाटक कम्पनी ने कई प्रकार के धार्मिक, सामाजिक और प्रेम प्रसंग वाले नाटक खेले। मेरी रुचि धार्मिक नाटकों में ही अधिक होती। कभी कभी चर्चित फिल्मों का भी मंचन किया जाता।
किसी नौटंकी में विदूषक की बड़ी महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है। प्रायः किसी इमोशनल सीन के बाद विदूषक आता, लोगों को अपनी भाव भंगिमा या सम्वाद से हँसा हँसा के बेहाल कर देता। ऐसा तभी होता जब कोई सामाजिक नाटक खेला जाता। नौटंकी में एक धुन बहरत की बड़ी भूमिका होती। बहरत प्रायः गेय धुनों और सम्वादों पर आधारित होता जिसमें नगाड़ा प्रमुख भूमिका निभाता। वह दर्शकों के सिर जादू सा छा जाता। मेरे गाँव में सुनील ड्रामा कम्पनी कई महीने रही, और लोगों का मनोरंजन करती रही।
उसके बाद कई मंडली और शादी-ब्याह में नौटंकी देखी, जिसमें नगाड़े के प्रति आकर्षण तो बरकरार रहा लेकिन सुनील ड्रामा कम्पनी जैसी भव्यता का अभाव भी रहा।
वैसे नौटंकी का मुख्य आकर्षण नगाड़ा भले रहा हो लेकिन उसकी कुछ मूलभूत प्रवृत्ति भी होती है। नौटंकी में मंगलाचरण होता जो ईश वंदना के रूप में जाना जाता है।
नौटंकी में कुछ निश्चित छंदों का प्रयोग आवश्यक होता है। जिसमें दोहा, चौबोला, कड़ा और लावनी आदि प्रमुख हैं। प्रायः इन छंदों में प्रयुक्त संवाद ही बोले जाते हैं। नौटंकी के पुराने स्वरूप में कलाकारों द्वारा सम्पूर्ण संवाद गेयता में प्रस्तुत करने होते हैं। फिल्म अभिनेता राजकुमार और अभिनेत्री प्रिया राजवंश द्वारा अभिनीत एक फिल्म हीर रांझा नौटंकी के पैटर्न पर बनी है। उसके गीतों को छोड़ दिया जाए तो फिल्म के सभी कलाकार, चाहे छोटा हो बड़ा, सभी पद्य में ही संवाद बोलते नजर आते हैं।
नौटंकी भले ही अपने पुराने स्वरूप में न हो लेकिन आधुनिक गद्यरूप वाले सम्वादों के रूप में आज भी जिंदा है। नगाड़े अब भी यदा कदा सुनने को मिल जाते हैं।